श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

महावीर का पुनर्जन्म [जिन-सूत्र]

1. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एतियगं जिणसासणं।।
2. अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाअहं दुग्गइ न गच्छेजा।।

अनादिकाल से इस धरा पर दो महान संस्कृतियां रहीं हैं वैदिक और श्रमण संस्कृति।
सूत्र में प्रवेश से पूर्व अपन वैदिक और श्रमण संस्कृति को थोड़ा सा समझ ले। वेद कहते हैं परमात्मा अकेला था, एकाकीपन उसे खला अकेलेपन से ऊबा। सोचा उसने बहुत हो जाऊं। उसने बहुत रूप धरे।

सृष्टि की यह कथा है – “स एकाकी न रमे, एकोअहं बहुस्याम”
सोचा उसने बहुत रूपो को सजूं, बहुत रूपो मे रमूं।

ब्राह्मण संस्कृति इसी सूत्र का विस्तार है। परमात्मा का अवतरण, परमात्मा का फैलाव। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है जो फैलता चला जाए। संसार परमात्मा का स्वप्न है। परमात्मा के गहन में उठी विचार की तरंगे है। उससे भक्ति शास्त्र का जन्म हुआ। परमात्मा का फैलता यह रूप अहोभाग्य है परम आनंद है। इसलिए भक्ति में रस है। एक शब्द में कहें तो महावीर का जो बचपन का नाम है “वर्धमान” वह ब्राह्मण संस्कृति का सूचक है जो फैले जो विकासमान हो। फिर परमात्मा को दूसरी ऊर्जा के अनुभव का साक्षात हुआ वह ठीक वेद से उलटा है। स्वभाविक है जब अकेलेपन से ऊबा तो इस भीड़ से भी ऊब जायेगा। क्योंकि इस विस्तार का कहीं अंत नहीं। यह तो बढ़ता ही चला जायेगा।
महावीर “बहुत” से थक गये भीड़ से ऊब गये और उन्होंने चाहा अकेला हो जांऊ। परमात्मा का उतरना संसार में, फैलना और महावीर का वापस लौटना परमात्मा में। इसलिए श्रमण संस्कृति के पास अवतार जैसा कोई शब्द नहीं है। तीर्थंकर! अवतार का अर्थ है परमात्मा उतरे अवतरित हो। तीर्थंकर का अर्थ है: उस पार जाए इस पार को छोड़े। अवतार-उस पार से इस पार आये। तीर्थंकर-घाट बनाये इस पार से उस पार जाने का। संसार कैसे तिरोहित हो जाए, स्वप्न कैसे बंद हो, भीड़ कैसे विदा हो, फिर हम अकेले कैसे हो जाए। वही श्रमण संस्कृति का आधार है। जागना होगा।

महावीर की सारी चेष्ठा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहे। मूल स्त्रोत की तरफ, उस की तरफ। लड़ो!दुस्साहस करो – संघर्ष, समर्पण नहीं महान संघर्ष से गुजरना होगा क्यों कि धारा को उलटा ले जाना है इसलिए महावीर के पास शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं अशरण भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण लौटना है घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे से तो दूसरा महत्वपूर्ण हो जायेगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, भूलना है छोड़ना है। बस एक ही याद रह जाए जो अपना स्वभाव है जो अपना स्वरूप है। इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है। महावीर की भाषा ध्यान की है पूजा की नहीं।और ध्यान और प्रार्थना में यही फर्क है प्रार्थना में दूसरा चाहिए और ध्यान में दूसरे को मिटाना है इस तरह भुला देना है कि बस अकेले तुम ही बचो ,शुद्ध चैतन्य बचे। महावीर का मार्ग योद्धा का मार्ग है। इसलिए यह संयोग नहीं कि जैनो के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रीय हुए हैं। लड़ाको की बात है। लड़ना ही जानते थे तूफान मे ही किश्ती पली थी। तलवार ही उनकी भाषा थी युद्ध ही उनका अनुभव था चाहे भीतर का हो या बाहर का। अहिंसक हो गये चींटी भी नहीं मारते थे पर इससे क्या फर्क पड़ता है स्वभाव तो योद्धा का था। इसलिए भक्ति समर्पण उनका मार्ग नहीं था। कहते हैं संघर्ष न हो तो सत्य आविर्भूत न होगा। जैसे सागर के मंथन से अमृत निकला:

किश्ती को भंवर मे घिरने दे , मौजो के थपेडे सहने दे।
जिंदो मे अगर जीना है तुझे,तूफान की हलचल रहने दे।
धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है।
परवर्द-ए-तूफां किश्ती को, धारे के मुखालिफ बहने दे।।

महावीर के लिए जीवन ही रोग है उसी से मुक्त होना है। वो तो सत्य पथ के पथिक थे जीवन मंथन से जो उद्भूत हुआ वही उन्होंने कहा सिद्धांत और दर्शन में उनकी रूचि नहीं थी।

सूत्र: 1 – जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरो के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरो के लिए भी मत चाहो। यही जिन शासन है। तीर्थंकर का यही उपदेश है
एक ही सूत्र जीवन को बदल सकता है ऐसे सैंकडो छोटे छोटे सूत्र जो उनके जीवन मंथन से निकले वो उन्होने कहे इसे एक छोटी सी कहानी से समझे
एक आदमी ने बड़ी प्रार्थना पूजा की और वर्षों की साधना के बाद किसी देव को प्रसन्न कर लिया। देवता ने कहा क्या चाहते हो? उसने कहा जो भी मैं मांगू वह मुझे मिल जाए देवता ने कहा निश्चित मिलेगा। लेकिन एक शर्त है तुम से दुगना तुम्हारे पड़ोसियो को भी मिल जाएगा। बस सब पूजा प्रार्थना व्यर्थ हो गई। वह उदास हो गया। यह भी क्या आशीर्वाद हुआ। क्योंकि मजा ही इसमे था कि जो मेरे पास हो, मेरे पड़ोसियो के पास न हो। आशीर्वाद तो मिल गया। आशीर्वाद में कोई कमी नहीं थी। देवता ने कहा तू जो चाहेगा उसी क्षण पूरा होगा इसमे कोई रुकावट नहीं लेकिन मन सुखी न हुआ प्रसन्न नहीं हुआ। फूल खिले नहीं बड़ा उदास हो गया। बड़े उदास मन से देखा, देखे वरदान काम करता है कि नहीं। यह भी कोई वरदान हुआ। कोई रस नहीं रहा फिर भी देखे शायद – कहा कि एक महल बन जाए। एक महल बन गया लेकिन बाहर आकर देखा कि दो दो महल बन गये पड़ोसियो के। छाती पीट ली। यह कोई वरदान हुआ। यह तो अभिशाप हो गया। इससे तो पहले ही भले थे। अपनी मेहनत से कुछ कर लेते। लेकिन उसने रास्ते खोज लिए। आदमी की हिंसा बडी गहन है। उसने कहा ठीक है देवता धोखा दे गया हम भी रास्ता खोज लेंगे। मिला होगा वकीलो से। उनसे कुछ सलाह ली होगी। किसी वकील ने सुझा दिया कि इसमे घबराने की कोई बात नहीं है जहां जहां कानून है वहां निकलने के उपाय भी हैं तू ऐसा कर कि जाकर मांग मेरे घर के सामने दो कुएं खुद जाएं। उसने कहा इससे क्या होगा? तू जाकर कोशिश तो कर। दो कुएं उसके घर के सामने खुद गए। पड़ोसियो के सामने चार चार कुएं खुद गए। वकील ने कहा अब तू प्रार्थना कर मेरी एक आँख फूट जाए। तब समझा वह राज। अब अंधे पड़ोसी ओर चार चार कुएं उनके सामने। आप समझ सकते हैं क्या हाल हुआ होगा उनका। हम जो अपने लिए मांगते हैं वह दूसरो के लिए कभी नहीं मांगते उसके विपरीत तुम दूसरो के लिए चाहते हो। तुम लाख ऊपर से कहो कि नहीं हम सब के लिए सुख चाहते हैं। सबके लिए सुख तुम तभी चाह सकते हो जब तुमने जीवन से अपनी जड़े तोड़ना शुरू कर दी। इस से पहले नहीं क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा है प्रतियोगिता है, महत्वकांक्षा है पागलपन है। यह अकेला सूत्र बड़ी गहराई से तुम्हारे अचेतन को रूपांतरित करने वाला है। जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरे के लिए चाहो। यही जिन शासन है।

सूत्र-2 अध्रुव, अशाश्वत और दुःख बहुल संसार मे ऐसा कौनसा कर्म है जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? महावीर पूछते हैं यहां कुछ भी शाश्वत नहीं। पानी पर खींची लकीर जैसा है जीवन। यहां तुम खींच भी नहीं पाते कि लकीर मिट जाती है। जीवन की तैयारी में ही जीवन बीत जाता है। अध्रुव, अशाश्वत दु:ख बहुल— और जहां दु:ख ज्यादा है सुख के केवल सपने हैं। ऐसा कौन सा कर्म करू इस जगत में जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं।तो महावीर पूछते हैं मौलिक सवाल यह है कि मैं कौनसा कर्म करूं इस दुख बहुल संसार में जहां सभी कुछ क्षण क्षण बदला जा रहा है। कहीं कुछ भूल हो गई। हम शायद समझ नहीं पा रहे अन्यथा इतना दुख कैसे होता।

महावीर के सारे सूत्र एक गहन अर्थ मे आत्मघात के सूत्र हैं। इसलिए तुम चकित होओगे कि महावीर अकेले जाग्रत पुरूष जिन्होंने अपने स॔न्यासियों को आत्मघात की भी आज्ञा दी। करना ही पडेगा। यह तर्क युक्त है क्योंकि वे लौट रहे हैं वापस। तो जीवन के सब तरफ से संबंध तोड देने हैं। तो महावीर ने आखिरी स्वतंत्रता आदमी को दी है कि वह आत्मघात करना चाहे तो निर्णायक स्वयं है। क्रमशः

(महाप्रज्ञ और ओशो की किताबो पर आधारित)

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