ओम अर्हम नम:
सोमशर्मा ब्राह्मण प्रतिबुद्ध हो गया । गौतम अपने कार्य में सफल होकर भगवान के पास आ रहे थे । उनका मन प्रसन्न था । वे सोच रहे थे — ‘मैं भगवान को अपने उद्देश्य में सफल होने की बात कहूंगा । उन्हें इसका पता है , पर मैं अपनी और से बताऊंगा ।’ वे अपनी कल्पना का ताना-बाना बुन रहे थे । इतने में उन्हें संवाद मिला कि भगवान महावीर का निर्वाण हो गया है ।
उनकी वाणी मौन, पैर स्तब्ध और शरीर निश्चेष्ट हो गया । उन्हें भारी आघात लगा । उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि जीवन भर शरीर के साथ छाया की भांति भगवान के साथ रहने वाला गौतम निर्वाण के समय उनसे बिछुड जायेगा । उन्हें भगवान के शारीरिक वियोग का जितना दुःख हुआ, उससे भी अधिक दु:ख इस बात का हुआ कि वे निर्वाण के समय भगवान के पास नहीं रह सके । वे भवावेश में भगवान को उल्हांना देने लगे – भंते! आपने मेरे साथ विश्वासघात किया । आपको तो पता था फिर भी आपने मुझे अंतिम समय सोमशर्मा को प्रतिबोध देने क्यों भेजा ? यह कार्य बाद में भी किया जा सकता था । लगता है, मेरा अनुराग एक पक्षीय था । मैं आपसे अनुराग कर रहा था, आप मुझसे अनुराग नहीं कर रहे थे भला एक पक्षीय अनुराग कब तक चल सकता है ? एक दिन उसे टूटना ही पड़ता है । आपने मेरे चिरकालीन सम्बन्ध को कच्चे धागे की तरह तोड़ डाला । मुझे अकेला छोड़कर आप चले गये ।
कुछ समय के लिए गौतम भान भूल गए । उनकी अन्तरात्मा जागृत हुई। वे संभले । मैं वीतराग को राग की भूमिका पर लाने का प्रयत्न कर रहा हूं । क्यों नहीं मैं उनकी भूमिका पर चला जांऊ। गौतम की दिशा बदल गई । वे वीतराग के पथ पर चल पड़े सही दिशा, सही पथ और दीर्घकालीन साधना — सबका योग मिला । गौतम ध्यान के उच्च शिखर पर पहुँच गये । उनका राग क्षीण हुआ और वे केवली हो गये । उन्हें महावीर के जीवन में जो नहीं मिला, वह उनके निर्वाण के बाद मिल गया।
अग्निभूति, वायुभूति, अचलभ्रात, मेतार्य और प्रभास इन पांच गणधरों का निर्वाण भगवान से पहले हो चुका था । व्यक्त, मंडित, मौर्यपुत्र और अकंपित इन चार गणधरों का निर्वाण भगवान के निर्वाण के कुछ समय बाद हुआ। इन्द्रभूति भगवान के पश्चात साढे बारह वर्ष और सुधर्मा साढे बीस वर्ष जीवित रहे ।
भगवान महावीर तीर्थंकर थे । वे परम्परा के कारण हैं, पर परम्परा में नहीं हैं । तीर्थंकर की परम्परा नहीं होती । वह किसी का शिष्य नहीं होता और उसका शिष्य तीर्थंकर नहीं होता । गौतम भगवान के सबसे ज्येष्ठ शिष्य थे । उनकी श्रेष्ठता भी अद्वितीय थी । पर भगवान के निर्वाण के बाद वे केवली हो गये । इसलिए वे आचार्य नहीं बनें । केवली किसी का अनुसरण नहीं करता । इस दृष्टि से भगवान महावीर के धर्म शासन में प्रथम आचार्य सुधार्मा हुए। वे भगवान के उत्तराधिकारी नहीं थे । भगवान ने अपना उत्तराधिकार किसी को नहीं सौंपा । धर्म संघ के अनुरोध पर सुधर्मा ने धर्म शासन का सूत्र संभाला ।
श्रमण महावीर (आचार्य महाप्रज्ञ) से चुनी हुई
🙏🏽🙏🏽विनीत 🙏🏽🙏🏽
हरीश मधु जैन बक्शी (हरसाना)