गतांक से आगे-
पाप क्रियाओं से आत्मा को बचाना गुप्ति है।’ ‘गुप्ति’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘गोपन करना/ रक्षा करना’ अर्थात् मन-वचन-काय की अकुशल प्रवृत्तियों से आत्मा की रक्षा करना ‘गुप्ति’ है।’ मन-वचन काय की प्रवृत्ति को उन्मार्ग से रोकना, यही गुप्ति शब्द का भावार्थ है। गुतियाँ तीन हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। मन का राग-द्वेष, क्रोधादि से अप्रभावित होना ‘मनोगुप्ति’ है।’ असत्य वाणी का निरोध करना अथवा मौन रहना ‘वचन गुप्ति’ है।’ शरीर को वश में रखकर हिंसादिक क्रियाओं से दूर होना ‘कायगुप्ति’ है। गुप्ति ही संवर का साक्षात् कारण है। गुप्ति में असत् क्रिया के निरोध की मुख्यता रहती है तथा समिति में सत् क्रिया की प्रवृत्ति की मुख्यता रहती है। गुप्ति और समिति में यही अन्तर है।
जो व्यक्ति को दुःख से मुक्त कराकर सुख तक पहुँचा दे, उसे धर्म कहते हैं। इस धर्म के दस लक्षण कहे गये हैं- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। ये उत्तम दस धर्म आत्मा के भावनात्मक परिवर्तन से उत्पन्न विशुद्ध परिणाम हैं, जो आत्मा को अशुभ कर्मों के बन्ध से रोकने के कारण संवर के हेतु हैं। ख्याति, पूजा आदि से निरपेक्ष होने के कारण इनमें ‘उत्तम’ विशेषण लगाया गया है।
1. उत्तम क्षमा: क्रोध के कारण उपस्थित रहने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। क्षमा कायरता नहीं है। समर्थ रहने पर भी क्रोधोत्पादक निन्दा, अपमान, गाली-गलौच आदि प्रतिकूल व्यवहार होने पर भी मन में कलुषता न आने देना ‘उत्तम क्षमा’ है।
2. उत्तम मार्दव: चित्त में मृदुता और व्यवहार में विनम्रता ‘मार्दव’ है। यह मान कषाय के अभाव में प्रकट होता है। जाति, कुल, रूप, ज्ञान, तप, वैभव, प्रभुत्व और ऐश्वर्य सम्बन्धी अभिमान-मद कहलाता है। इन्हें विनश्वर समझकर मान-कषाय को जीतना ‘उत्तम मार्दव’ कहलाता है।
3. उत्तम आर्जव: ‘आर्जव’ का अर्थ होता है ‘ऋजुता’ या ‘सरलता’, अर्थात् बाहर-भीतर एक होना। मन में कुछ, वचन में कुछ तथा प्रकट में कुछ, यह प्रवृत्ति कुटिलता या मायाचारी है। इस मायाकषाय को जीतकर मन, वचन और काय की क्रिया में एकरूपता लाना ‘उत्तम आर्जव’ है।
4. उत्तम शौच: ‘शौच’ का अर्थ होता है ‘पवित्रता’ या ‘सफाई’। मद, क्रोधादिक बढ़ाने वाली जितनी दुर्भावनाएँ हैं, उनमें लोभ सबसे प्रबल है। इस लोभ पर विजय पाना ही ‘उत्तम शौच’ है।
5. उत्तम सत्य: यथार्थ बोलना ‘सत्य’ है। दूसरों के मन में सन्ताप उत्पन्न करने वाले, निष्ठुर और कर्कश, कठोर वचनों का त्याग कर, सबके हितकारी और प्रिय बचन बोलना ‘उत्तम सत्य’ धर्म है। अप्रिय शब्द भी असत्य की कोटि में आ जाता है।
6. उत्तम संयम: ‘संयम’ का अर्थ होता है ‘आत्म-नियन्त्रण, पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्तियों पर अंकुश रखकर, उनकी अनर्गल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना ‘उत्तम संयम’ धर्म है।
7. उत्तम तप : इच्छा के निरोध को ‘तप’ कहते हैं। विषय कषायों का निग्रह करके बारह प्रकार के तप में चित्त लगाना ‘उत्तम तप’ धर्म है। तप धर्म का प्रमुख उद्देश्य चित्त की मलिन वृत्तियों का उन्मूलन है।
8. उत्तम त्याग: परिग्रह की निवृत्ति को ‘त्याग’ कहते हैं। बिना किसी प्रत्युपकार की अपेक्षा के अपने पास होने वाली ज्ञानादि सम्पदा को दूसरों के हित व कल्याण के लिए लगाना ‘उत्तम त्याग’ है।
9. उत्तम आकिंचन्य: ममत्व के परित्याग को ‘आकिंचन्य’ कहते हैं। आकिंचन्य का अर्थ होता है ‘मेरा कुछ भी नहीं है।’ घर-द्वार, धन-दौलत, बन्धु-बाँधव आदि यहाँ तक कि शरीर भी मेरा नहीं है। इस प्रकार का अनासक्ति भाव उत्पन्न होना ‘उत्तम आकिंचन्य’ धर्म है। सबका त्याग करने के बाद भी उस त्याग के प्रति ममत्व रह सकता है, आकिंचन्य धर्म में उस त्याग के प्रति होने वाले ममत्व का त्याग कराया जाता है।
10. उत्तम ब्रह्मचर्य: ब्रह्म अर्थात् आत्मा में रमण करना ‘ब्रह्मचर्य’ है। रागोत्पादक साधनों के होने पर भी, उन सबसे विरंक्त होकर, आत्मोन्मुखी बने रहना ‘उत्तम ब्रह्मचर्य’ धर्म है।
इस प्रकार धर्म के ये दस लक्षण कोई बाहरी तत्त्व नहीं हैं, वरन् विकारों के अभाव में प्रकट होनेवाली आत्म-शक्तियाँ ही हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच ये आत्मा के अपने भाव हैं, जो क्रमशः क्रोधादिक विकारों के अभाव में प्रकट होते है, सत्य, संयम, तप और त्याग इनकी प्राप्ति के उपाय हैं, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मों का सार है। अपनी आत्मा पर आस्था, अपने अविनश्वर वैभव का ज्ञान और अपने आत्म-ब्रह्म में रमण धर्म का सार तो इतना ही है। चारों गतियों के दुःखों से छुड़ाने की सामर्थ्य इसी में है।
किसी भी पदार्थ का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। विचारों का हमारे मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का जब हम अन्तर-विश्लेषण करते हैं तो बहुत कुछ सार तत्त्व हमारे हाथों में आ जाता है, हमारा मनोबल बढ़ता है और हम सत्य पुरुषार्थ की ओर प्रयत्नशील होते हैं। संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप पर जब हम बार-बार विचार करते हैं, तो उनकी निःसारता हमारी समझ में आने लगती है तथा सहज ही वैराग्य के अंकुर फूटने लगते हैं। इसलिए इन्हें वैराग्य की उत्पत्ति में माता की तरह कहा गया है। जैन- दर्शन में बारह अनुप्रेक्षाएँ प्रसिद्ध हैं। इन्हें बारह भावना भी कहते हैं। वे हैं क्रमशः अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभ और धर्म। आइए अब हम इनके स्वरूप पर विचार करें।
1. अनित्य अनुप्रेक्षा- संसार में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश सुनिश्चित है। संसार के सारे संयोग विनाशशील हैं, क्षण-क्षयी हैं। चाहे हमारा शरीर हो, सम्पत्ति हो या सम्बन्धी, सबके सब छूटने वाले हैं। इनका अस्तित्व भोर के तारे की तरह है, जो कुछ ही क्षणों में विलीन होने वाला है। इस प्रकार का चिन्तन करना ‘अनित्य अनुप्रेक्षा’ है।
2. अशरण अनुप्रेक्षा : जन्म, जरा और मृत्यु से, इस संसार में कोई भी किसी को बचा नहीं सकता। चाहे कितना ही बड़ा परिकर और परिवार हो, धन और वैभव हो अथवा देवी-देवताओं की उपासना की जाये, मृत्यु के समय इनका कोई जोर नहीं चलता, सारे साधन रहते हुए भी निष्प्राण हो जाते हैं। जन्म लेने वाले का मरण अनिवार्य है। बड़ी-बड़ी औषधि, मन्त्र-तन्त्र और संसार के सारे पदार्थ व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार शेर के मुरख में रहने वाले हिरण को कोई बचा नहीं सकता, उसी प्रकार इस जीव को मृत्युरूपी सिंह के मुख से नहीं बचाया जा सकता। ऐसी स्थिति में कोई शरण और सहारा है तो मात्र देव, धर्म और गुरु हो हमारे शरण हैं जो हमें मृत्यु के आतंक से बचा सकते हैं, इस प्रकार चिन्तन करना ‘अशरण अनुप्रेक्षा’ है।
3. संसार अनुप्रेक्षा- जन्म, जरा और मृत्युरूपी इस संसार में सभी जीव चारों गतियों में भ्रमण करते हुए दुःख पाते हैं। संसार में रहने वाले सभी प्राणी दुःखी हैं। चाहे वह बहुत वैभव सम्पन्न हो, उसके पास सारी सुविधाएँ ही अथवा वैभवहीन, दरिद्र, अभावग्रस्त हो, सभी के सभी दुःखी हैं। फर्क इतना है कि धनवान् अधिक पाने की चाह में दुःखी हो रहा है तथा निर्धन अभाव के कारण दुःखी हो रहा है। गरीब की कोशिश है अपने अभाव को मिटाने की तथा सम्पन्न वर्ग की चाहत है और अधिक पाने की। इस प्रकार सभी आशा और तृष्णा के अधीन होकर तदनुरूप दुःखी हैं। इस प्रकार चिन्तन करना ‘संसार अनुप्रेक्षा’ है।
4. एकत्व अनुप्रेक्षा – संसार में प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही जन्म लेता है। जन्म के समय उसके साथ कोई नहीं आता। सारे रिश्ते-नाते, संगी-साथी सव बीच में ही मिलते हैं तथा यह मरता भी अकेला है। संगी साथी न तो जन्म के समय उसके साथ आते हैं और न ही मरण के बाद कोई उसके साथ जाता है। अपना सुख-दुःख उसे अकेला ही भोगना पड़ता है। उसे संसार की पूरी यात्रा अकेले ही पूर्ण करनी पड़ती है। इस प्रकार विचार करना ‘एकत्व अनुप्रेक्षा’ है।
5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा- बाहर से दिखने वाले धन-वैभव तथा परिवार-परिजन ये सब मुझसे पृथक् हैं, ये मेरे नहीं हैं। यहाँ तक कि यह देह, जिसका मेरे साथ बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है. यह भी मेरी नहीं है। यद्यपि दूध और पानी की तरह मिली-जुली होने के कारण यह देह और आत्मा एक-सी दिखती है, किन्तु विवेक के द्वारा इनका भेद जाना जाता है। मैं अपने पुरुषार्थ के बल पर अपनी आत्मा को इस शरीर की कैद से मुक्त कर सकता हूँ। इस प्रकार विचार करना’ अन्यत्व अनुप्रेक्षा’ है।
6. अशुचि अनुप्रेक्षा- ऊपर से गोरा या काला, सुन्दर या कुरूप दिखाई पड़ने वाला शरीर भीतर से उतना ही घिनौना है। इसके अन्दर कोई सार नहीं है। इसे जितना साफ करने का प्रयास करते हैं, यह उतना ही मैला होता जाता है। इतना ही नहीं, इसके सम्पर्क में आने वाली केशर, चन्दन, पुष्प जैसी पवित्र सामग्री भी अपवित्र हो जाती है। इस देह का श्रृंगार करना तो मल के घड़े को फूलों से सजाने जैसा कृत्य है। इस शरीर के द्वारा तप करने में ही सार्थकता है। इसी से यह पवित्र होता है। इस प्रकार विचार करना ‘अशुचि अनुप्रेक्षा’ है।
7. आस्रव अनुप्रेक्षा- मैं अपने मन, वचन और काय की क्रियाओं के कारण, निरन्तर, अनेक प्रकार के कर्मों का आस्रव कर रहा हूँ। जिससे सम्बद्ध हो, अनेक प्रकार के कर्म मेरी आत्मा को नाना योनियों में भटका रहे हैं। जब तक मेरा अज्ञान दूर नहीं हो जाता, तब तक मैं इस आस्रव से नहीं बच सकता। इस प्रकार का चिन्तन करना ‘आस्रव अनुप्रेक्षा’ है।
8. संवर अनुप्रेक्षा- प्रति समय होने वाले कर्मों के आस्रव की इस प्रक्रिया को रोके बिना हमारी आत्मा का विकास सम्भव नहीं। संवर के माध्यम से ही कर्मों को रोका जा सकता है। इसके साधन मेरे जीवन में कैसे विकसित हों? इस प्रकार विचार करना ‘संवर अनुप्रेक्षा’ है।
9. निर्जरा अनुप्रेक्षा- कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं। तप के द्वारा सभी कर्मों की निर्जरा होती है। जब तक मैं अपने कर्मों की निर्जरा नहीं कर लेता, तब तक मैं आत्मिक सुख को नहीं पा सकता। संवरपूर्वक जब तपरूपी ज्योति मेरे अन्तर में प्रकट होगी, तभी मेरी आत्मा आलोकित होगी। इस प्रकार का विचार करना ‘निर्जरा अनुप्रेक्षा’ है।
10. लोक अनुप्रेक्षा- अपने आत्म-स्वरूप को भूलकर, मैं अनादि से इस लोक में भटक रहा हूँ। यह लोक छह द्रव्यों का संयुक्त रूप है। किसी के द्वारा बनाया नहीं गया है; न ही इसका विनाश सम्भव है। यह अनादि निधन है। चौदह राजू ऊँचाई वाले पुरुपाकार इस लोक में, मैं अपने अज्ञान के कारण भटकता हुआ अकथनीय दुःखों का पात्र रहा हूँ। अब जैसे भी बने, मुझे इस परिभ्रमण को समाप्त कर अपना शाश्वत स्वरूप प्राप्त करना है, जहाँ जाने के बाद किसी प्रकार का आवागमन नहीं होगा। इस प्रकार के चिन्तन को ‘लोक अनुप्रेक्षा’ कहते हैं।
11. बोधि-दुर्लभ अनुप्रेक्षा धन-धान्यादि बाह्य सांसारिक सम्पदा तो में अनेक बार प्राप्त कर चुका, पर उनसे मुझे किसी प्रकार का सुख या सन्तोष नहीं मिला, किन्तु संसार से पार उतारने वाला यह ज्ञान मुझे बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुआ है। इसको प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि किसी शहर के चौराहे पर रत्नों की राशि का मिलना। अतः रत्नों से भी बहुमूल्य इस बोधि-रत्न को पाकर मुझे इसके संरक्षण और संवर्धन में लगना चाहिए। इस प्रकार के चिन्तन को ‘बोधि-दुर्लभअनुप्रेक्षा’ कहते हैं।
12. धर्म अनुप्रेक्षा- लोक के सारे संयोग और सम्बन्ध यहीं छूट जाते हैं। धर्म इस जीव के साथ परलोक में भी जाता है। धर्म ही इसका सच्चा साथी है। यही हमारा वास्तविक मित्र है। इससे ही हमारा कल्याण होगा। इस प्रकार के चिन्तन से अपनी धार्मिक आस्था दृढ़ करना ‘धर्म अनुप्रेक्षा’ है।
इन बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। इन पर अनेक ग्रन्थ प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। हिंदी के अनेक कवियों ने भी अपनी लेखनी का विषय बनाया है। उनका आलम्बन लेकर, हम सहज ही इनका सविस्तार चिन्तन कर सकते हैं।
मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज