संघर्षों ने मुझको पाला ,
या संघर्षों को मैनें पाला।
समझ नही पाई मैं अब तक ,
जीवन का ये खेल निराला।
मन मेरा जब जब यहां टूटा,
अंधकार ने मुझको घेरा।
झट से आशा की किरणें आई,
साथ में लाई नया सवेरा।
उम्मीदों ने मुझको पाला।
या उम्मीदों को मैंने पाला
समझ नही पाई मैं अब तक ,
जीवन का ये खेल निराला।
पर पीड़ा से हरदम पिघली,
जाने क्यूं ऐसा होता है।
रिश्ता नही था मेरा फिर भी,
दिल मेरा क्यूं रोता है।
मानवता ने मुझको पाला,
या मानवता को मैंने पाला।
समझ नही पाई मैं अब तक ,
जीवन का ये खेल निराला।
जिद्दी मैं कहलाती थी कभी,
पर अब समझौते करती हूं।
रिश्तों की पगडंडी पर अब
संभल संभल कर चलती हूं।
प्रेम,त्याग ने मुझको पाला,
या प्रेम त्याग को मैनें पाला।
समझ नही पाई अब तक मैं,
जीवन का ये खेल निराला।
_सुनीता जैन “सुनीति”
व्याख्याता
भरतपुर(राजस्थान)
लेखिका ने बहुत ही सरल शब्दों में जीवन के बारे में समझाया है , उसे हम जहां चाहे मोड सकते हैं।
जीवन के यथार्थ का चित्रण