श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

जैन कौन ? हमारे देव कौन

जिन के उपासक जैन कहलाते है, जिन राग-द्वेष के विजेता होते है । राग – द्वेष के विजेता की उपासना से तात्पर्य राग-द्वेष को घटाना है । अर्थात् जोराग-द्वेष, क्रोध, मान, माया – लोभ आदि विकारों को घटाने के लिए प्रयत्नशील रहता है वह जैन है ।
जैन के परम आराध्य देव जिन होते है अतः अरिहन्त — सिद्ध आदि जिन की उपासना करने वाले जैन कहलाते है ।

जन शब्द पर (“) दो मात्राऐं लगने से जैन बना है। अतः यह दो मात्राऐं एक आचार व दूसरी विचार की है अतः जो शुद्ध आचार व निर्मल विचारों से युक्त होता है वह जैन है ।
जिसमें दया – अनुकम्पा का भाव विद्यमान हों जो पर दुखों से दुःखी होता हो वह जैन है।

जो मन व इन्द्रिय विषयों तथा विकारों पर विजय प्राप्त कर आत्म विजय की ओर अग्रसर हो, वह जैन है ।

जो जिनेश्वर देवो की आज्ञा को आगे रखकर चलता है वह जैन है ।

जैन धर्म की आधारशीला भौतिक विजय पर नहीं आध्यात्मिक विजय पर है। यह धार्मिक क्रियाओं के साथ मुख्य रूप से अन्दर में आत्मा का धर्म है। अतः हमारे देव भी आत्मा के शुद्धतम स्वरूप को प्राप्त करने वाले महापुरूष है। राग द्वेष के विजेता, ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूप आत्म गुणों में रमण करने वाले जिन हमारे देव है ।

जिन का अर्थ है विजेता, जिन शब्द “जि” धातु में नक प्रत्यय लग कर बना है। जिन शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो अरिहंत तीर्थंकर एवं केवली के लिए प्रयुक्त होता है।

राग – द्वेष रूपी आन्तरिक शत्रुओं के विजेता, कर्म रूपी रजमैल से रहित, बुढ़ापा एवं मृत्यु से रहित केवल ज्ञान व केवल दर्शन के धारक, जगत के जीवों का एकान्त हित चाहने वाले परमात्मा को जिन कहते है। जिन भगवान न स्तुति से प्रसन्न होते है और न ही निन्दा से नाराज लेकिन हम अपना आदर्श मानकर साधना करते है, क्योंकि हमारा लक्ष्य परसुख प्राप्त करना है ।

जैन धर्म संसार के क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी देवताओं को अपना इष्ट देव नही मानता क्योंकि जो स्वयं विकार ग्रस्त है वे हमें क्या विकार रहित बना सकेगें। जो अपनी रक्षा के लिए अस्त्र शस्त्र रखते हो, काम के वशीभूत होकर स्त्री का संग करते हो, वे हमारे आदर्श नहीं हो सकते है ।

जैन धर्म व्यक्ति पूजक नहीं, गुण पूजक धर्म है।

हमारे देव दो प्रकार के होते है :-

(1) सशरीरी अरिहंत देव ( 2 ) अशरीरी सिद्ध भगवान,   अरिहंत भगवान ने चार घाति कर्मों का क्षय किया तथा व शरीर सहित है। जबकि सिद्ध भगवान ने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर दिया इसलिए वे सर्वार्थ सिद्ध कृत्कृत्य है, उन्हें कुछ भी करना शेष नहीं है। प्रत्यक्ष उपकारी होने से अरिहंत को सर्व प्रथम नमस्कार किया गया है। उन्हें देवादिदेव कहते है । वे ही सिद्ध के स्वरूप का ज्ञान कराते है । तथा जन से जिन बनकर आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग बताते है ।

अरिहंत को जिन, वितराग, सर्वज्ञ, तीर्थंकर, अर्हत कहते है ।

अरिहंत ने चार घाति कर्मो का क्षय किया है ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय एवं अन्तराय ।

अरिहंत को अराध्य देव क्यों मानते है ।

अरिहंत भगवान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चरित्र और अनन्त बलवीर्य के धारक होते है । इसलिए हम अरिहंत को अराध्य देव मानते है,  हमारा आदर्श भी अनन्त सुखो में लीन परमात्मा होना चाहिए ।

सिद्ध किसे कहते है- जिन्होंने आत्मा पर लगे आठो कर्मों रागद्वेष, आदि भाव कर्मों को तथा शरीरादि को जड़ मूल से समाप्त कर दिया है तथा जो अनन्त शाश्वत सुख रूप सिद्धालय में सदाकाल विरजमान है उन्हें सिद्ध कहते है। ये अरूपी होने से, शरीरादि रहित होने से धर्मोपदेश आदि की प्रवृती से भी रहित होते है। उनकी स्तुति करने से परम शन्ति मिलती है । सिद्ध बनने की प्रेरणा मिलती है।

गुरू किसे कहते है?

मानव मन में रहे हुए अज्ञान अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाले महापुरूषों को गुरू कहते है ।

गुरू हमें ज्ञान रूपी चक्षु प्रदान करते है जिससे हम अपने हित अहित को देखते है वे स्वयं मोक्ष मार्ग में लगे है और हमें भी मोक्ष का मार्ग दिखाते है ।

श्रीचन्द जैन
पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री, महासभा 110, अशोक विहार विस्तार
जयपुर

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