श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

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नया बास, सकर कूंई के पीछे, अलवर (राज.)
मोबा. : 8233082920

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77/124, अरावली मार्ग,
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जिला अलवर – 301025 (राज.)
मोबा. : 9828910628
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जैन धर्म में चातुर्मास का महत्व

चातुर्मास, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, चार महीनों की एक विशेष अवधि है। यह भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक चलता है। यह समय जैन धर्म में आध्यात्मिक उन्नति और आत्मशुद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। वर्षा ऋतु के इन चार महीनों में प्रकृति में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति बढ़ जाती है, जिससे अहिंसा के सिद्धांत का पालन करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी कारण जैन परम्परा में इस काल को विशेष महत्व दिया गया है।

चातुर्मास को जैन धर्म में तपस्या, त्याग और आत्मचिंतन का महापर्व माना जाता है। यह केवल साधुसाध्वियों के लिए ही नहीं, बल्कि गृहस्थों के लिए भी अपनी आध्यात्मिक यात्रा को गहरा करने का अवसर होता है। इस अवधि में, जैन अनुयायी अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने, अनावश्यक इच्छाओं का त्याग करने और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं।

साधुसाध्वियों के लिए चातुर्मास:

जैन साधुसाध्वी, जो सामान्यतः निरंतर विहार करते रहते हैं, चातुर्मास के दौरान एक ही स्थान पर स्थिरवासकरते हैं। इसके कई महत्वपूर्ण कारण हैं:

अहिंसा का पालन: वर्षा ऋतु में जमीन पर, हवा में और पानी में असंख्य सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। विहार करने से इन जीवों को अनजाने में भी हानि पहुँचने की संभावना बढ़ जाती है। एक स्थान पर रहने से साधुसाध्वी इस प्रकार की हिंसा से बचते हैं और अहिंसा के अपने महाव्रत का पूर्णतः पालन कर पाते हैं।

गहन तपस्या और साधना: स्थिरवास की अवधि साधुसाध्वियों को अपनी तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय और आत्मचिंतन पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का अवसर प्रदान करती है। वे इस समय का उपयोग अपने ज्ञान को बढ़ाने, अपनी आत्मा को शुद्ध करने और मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए करते हैं।

ज्ञानार्जन और ज्ञान वितरण: इस दौरान साधुसाध्वी अपने शिष्यों और गृहस्थ अनुयायियों को धर्म का ज्ञान देते हैं। वे प्रवचन, व्याख्यान और शास्त्रचर्चा के माध्यम से जैन दर्शन के सिद्धांतों का प्रचारप्रसार करते हैं, जिससे समाज में धार्मिक जागृति आती है।

श्रावकों के लिए चातुर्मास:

चातुर्मास केवल साधुसाध्वियों के लिए ही नहीं, बल्कि जैन धर्म के गृहस्थ अनुयायियों / श्रावकों के लिए भी विशेष महत्व रखता है। इस अवधि में श्रावक भी अपनी जीवनशैली में कई बदलाव लाते हैं और धार्मिक क्रियाओं में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

तपस्या और त्याग: गृहस्थ भी इस दौरान विभिन्न प्रकार के उपवास, ब्रह्मचर्य का पालन, सीमित भोजन (जैसे हरी सब्जियों का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग) और अन्य त्यागप्रत्याख्यान करते हैं। यह उन्हें अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने और इच्छाओं को कम करने में मदद करता है।

धार्मिक क्रियाएँ: श्रावक इस अवधि में अधिक से अधिक समय धार्मिक गतिविधियों में व्यतीत करते हैं। वे मंदिरों में जाते हैं, साधुसाध्वियों के प्रवचन सुनते हैं, स्वाध्याय करते हैं, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं और दानपुण्य के कार्य करते हैं। यह उन्हें आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनाता है।

आत्मसंयम और आत्मचिंतन: चातुर्मास का समय आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन के लिए आदर्श होता है। गृहस्थ अपने दैनिक जीवन में अधिक संयम बरतते हैं, अनावश्यक गतिविधियों से बचते हैं और अपने विचारों, वचनों और कार्यों को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं।

पर्यावरण और अहिंसा का महत्व:

चातुर्मास का वैज्ञानिक और पर्यावरणीय महत्व भी है। वर्षा ऋतु में जल, वायु और भूमि में असंख्य छोटेछोटे जीव उत्पन्न होते हैं। जैन धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा है, जिसका अर्थ है किसी भी जीव को मन, वचन और काया से कष्ट न पहुँचाना। चातुर्मास के दौरान यात्रा न करने और विशेष आहार नियमों का पालन करने से इन सूक्ष्म जीवों की रक्षा होती है, जो पर्यावरण संतुलन के लिए भी आवश्यक है। यह जैन धर्म की पर्यावरणअनुकूल जीवनशैली को दर्शाता है।

आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता:

आज के व्यस्त और भौतिकवादी युग में भी चातुर्मास की प्रासंगिकता बनी हुई है।

मानसिक शांति: भागदौड़ भरी जिंदगी से कुछ समय निकालकर आत्मचिंतन और ध्यान करने का अवसर देता है, जिससे मानसिक शांति मिलती है।

नैतिक विकास: त्याग, संयम और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करने से नैतिक मूल्यों का विकास होता है और एक बेहतर समाज के निर्माण में मदद मिलती है।

स्वास्थ्य लाभ: उपवास और संयमित आहार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होता है।

जैन धर्म में चातुर्मास केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है जो आत्मशुद्धि, नैतिक उत्थान, अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण पर जोर देती है। यह वह समय है जब साधु और गृहस्थ दोनों ही अपनी आध्यात्मिक यात्रा को गहन करते हैं और एक अधिक संयमित, जागरूक और करुणामय जीवन जीने का अभ्यास करते हैं।

हम आशा करते हैं कि हमारे समाज के सामाजिक कार्यकर्ता भी इस अवधि में आत्मचिंतन कर आपसी मनमुटाव दूर करेंगे एवं समाज में सद्भाव स्थापित करने में सफल होंगे

राजेंद्र कुमार जैन
संयोजक, डिजिटल पत्रिका

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