बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य है कि वे समाजिक समस्याओं को सुलझाने में अपनी बुद्धि का उपयोग करें । नेता अपने हर भाषण में यही बातें कहते हैं। खुद कुछ करते – धरते नहीं, बस भाषण देकर अपने कार्य की इति कर लेते हैं। सवाल यह है कि बुद्धिजीवी कौन है ? उत्तर यह है कि मैं हूँ – आप हैं – समाज के सभी लोग हैं। जब वे नेता हो सकते हैं तो क्या आप और हम बुद्धिजीवी नहीं हो सकते ? जब उन्हें अपने आप को नेता कहने में शर्म नहीं आती तो हम अपने को बुद्धिजीवी कहने में क्यूं शरमाएं ।
पर लगता यह है कि समाज में समस्याएं अधिक हैं, उसकी तुलना में बुद्धिजीवी कम हैं। फिर यह भी हो सकता है कि हम जिसे समस्या समझ रहे हों, नेता उसे समस्या ही न माने। मैंने सोचा कि चलो नेता से ही पूछ लेते हैं कि समस्या क्या है और कहां हैं ?
मैंने एक नेता से पूछा कि आपकी नजर में सबसे बड़ी समस्या क्या है ?
उसने कहा- ‘सबसे बड़ी समस्या, एक बार चुनाव जीत गये, नेता बन गये परन्तु दूसरी बार चुनाव जीतना सबसे बड़ी समस्या है।
मैंने कहा कि- बुद्धिजीवी होने के नाते मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ? बे बोले- बुद्धिजीवी होने के नाते तो नहीं, हाँ गुंडे-बदमाश – छटेल – षड्यंत्रकारी होने पर अवश्य आप मेरी मदद कर सकते हैं। मैने कहा- इसके लिए तो मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा ।
वे बोले- ‘तब ही आइए। प्रजातन्त्र अमर है। चुनाव भी होते ही रहेंगे। ‘
मेरा पत्ता कट गया।
मैंने सोचा क्यों न सामाजिक संगठन के कर्ता-धर्ताओं से बात कर के देखा जाए। मैं जिस समाज में पैदा हुआ हूँ उसके राष्ट्रीय नेताओं के पास गया और उनसे पूछा कि बुद्धिजीवी होने के नाते मैं समाज की क्या सेवा कर सकता हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।
सभी सामाजिक नेताओं का लगभग एक जैसा ही जबाब था । लब्बोलुबाव में उनकी बात इस प्रकार समझ में आई – सामाजिक संगठन और धर्म आपस में एक दूसरे से बड़े गहरे से जुडे हुए हैं। धर्म का काम मूलतः साधू-सन्तों, मुनि – ऋषियों ने ले रखा है। उनकी हमने समुचित व्यवस्था कर रखी है। अतः वे फ्री होकर समाज सुधार, चरित्र निर्माण के कार्य में लगे हुए हैं।
अतः बुद्धिजीवी होने के नाते तो आपके लिए कोई काम है नहीं, आप जैसे बुद्धिजीवी लोग हमारे ही समाज से ताल्लुक रखते हो तो आपके लिए भी कुछ-न-कुछ काम तो निकालना ही पड़ेगा। बिना काम के आदमी की मति भ्रष्ट हो जाती है सो हमें आपको नष्ट-भ्रष्ट होने से तो बचाना ही पड़ेगा। सामाजिक नेता ने इस विषय को लेकर काफी माथा पच्ची की और समाज के प्रमुख – प्रमुख बुद्धिजीवीओं को एकत्रित कर निर्देश दिये, जिसमें मैं भी एक था, कि तुम सब मिलकर गोष्ठी – गोष्ठी, परिचर्चा परिचर्चा, सेमीनार सेमीनार का खेल खेलो, पर ध्यान रहे कि गोष्ठी का आयोजन तो बहुत ही भव्य लगे पर निष्कर्ष कुछ भी न निकले। हमें उस गोष्ठी की अध्यक्षता करने, श्रीजी के चित्र का अनावरण करने, दीप प्रज्वलित करने के लिए आमन्त्रित करो, ध्यान रहे निमंत्रण कार्ड पर हमारे नाम का उल्लेख प्रमुखता के साथ होना चाहिए। गोष्ठी में वक्ता के रूप में किसे बुलाते हो किसे नहीं बुलाते हो उससे हमें कोई मतलब नहीं होगा। इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि गोष्ठी के निमंत्रण कार्ड हमारे खास समर्थकों को ही दिये जायें। माला, दुपट्टा, शॉल से हमारा ही स्वागत किया जाए, एक-आध वक्ता को भी माला- दुपट्टा पहना दिया जाए, फोटो आदि खींचने की पूरी व्यवस्था की जाए, हर फोटो में हमारी प्रमुखता प्रदर्शित होनी चाहिए।
इस गोष्ठी आयोजन का गुरुतर भार हमारे सामाजिक संगठन का जो मुखपत्र है उसके संयोजक और सम्पादक मण्डल का होगा। वे जो भी कार्य कर रहे हैं, हमारे निर्देश पर ही कर रहे हैं। सो वर्तमान समय में उनकी निष्पक्षता पर उंगली उठने लगी हैं। हमारे व्यक्तित्व विकास में उन्होंने अपनी क्षमताओं का जो दुर्पयोग किया है उससे उनकी छवि धुमिल होने लगी है। उनके हित साधन के लिये हमारा भी कोई फर्ज है वैसे भी जो फोटो खींची जायेंगी वह सामाजिक मुखपत्र में प्रमुखता से प्रकाशित की जायेगी, उससे भी समाज में हमारी छवि ही निर्मित होगी। इस गोष्ठी के आयोजन पर जो खर्चा होगा वह हम अपने कुछ लाभार्थीयों द्वारा व्यवस्था करवा देंगे। वे गोष्ठी के आयोजन की तारीख निश्चित करें, विषय का चयन करें, विद्वान वक्ताओं का चयन करें, गोष्ठी में हाई-टी और वात्सल्य भोज की व्यवस्था करें। गोष्ठी के लिए स्थान की व्यवस्था हम कर देंगे, ध्यान रखें कि उसमें 120 श्रोताओं से ज्यादा बैठने की जगह नहीं है, पर भोजन आदि की व्यवस्था लगभग 200 आदमियों की करनी होगी। हमारे कुछ व्यवस्थापक गोष्ठी हॉल में बैठ नहीं पाऐंगे, पर भोजन तो वह भी करेंगे। अतः इतने व्यक्तियों के भोजन की व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी। धन की व्यवस्था तो हम कर ही रहे हैं। इस प्रकार के निर्देश और सुझाव प्राप्त कर सभी बुद्धिजीवी गोष्ठी – गोष्ठी के खेल में संलग्न हो गये ।
सामाजिक संगठन के मुखपत्र के माननीय संयोजक जी और उनकी टीम ने इस गोष्ठी के आयोजन का गुरुतर भार संभाल ही लिया था तो मेरे जैसे बुद्धिजीवी का इस आयोजन के प्रबन्धन से नाम ही कट गया।
क्योंकि सारा भार संयोजक जी के माथे पर ही था सो उन्होंने अपने सहयोगी साथियों से विचार-विमर्श कर गोष्ठी की तारीख तय कर दी, पर समस्या यह थी कि किस विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया जाये । वैसे तो संयोजक जी ने अपने होशो हवास में अनेकों आयोजनों में शिरकत की है पर सभी में उनकी भूमिका पिछलग्गु की रही है, सो उन्होंने विषय के सम्बन्ध में कुछ बाहरी बुद्धिजीवियों से सलाह-मशवरा कर विषय का चयन कर लिया। गोष्ठी का विषय रखा गया-
‘जैन साधु की चर्या ‘
‘भारतीय संस्कृति एंव जैन धर्म’
हर विषय को एक घंटा चालीस मिनट का समय दिया जाना तय किया गया, क्योंकि गोष्ठी में अन्य महत्वपूर्ण बिन्दू थे, अतः कार्यक्रम कुछ इस प्रकार बनाया गया-
रजिस्ट्रेशन – अल्पाहार (ब्रंच) 11.30 से 1 बजे तक
उद्घाटन, स्वागत, सम्बोधन, फिल्म विज्ञापनदाताओं का सम्मान – 1 बजे से 2 बजे तक
हाई-टी के लिए 20 मिनट
भोजन – 6 बजे
विषय पर विचार से पूर्व ब्रंच का आयोजन था अतः श्रोता ब्रंच करने में ज्यादा उत्सुक होने के नाते विषय को सुनने के लिए हॉल में उपलब्ध ही नहीं हो पाये। दूसरे विषय पर विद्वान वक्ताओं के विचार के लिए भी हाई-टी ने अवरोध पैदा कर दिया। सो न तो जैन साधु की चर्या पर विचार हो सका और न ही भारतीय संस्कृति और जैन धर्म के बखिये उधेड़े जा सके।
जिन लोगों ने अपने नाम के पीछे एक दिन पूर्व निमंत्रण कार्ड में तब्दीली कराने के लिए ब्लेकमेलिंग का काम किया था वे ज्ञानवर्धक संगोष्ठी में अपनी उपस्थिति नहीं दे पाये ।
समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में नेताजी के फोटो और विचार बहुत ही प्रमुखता के साथ प्रकाशित कर समाज में उनकी अक्षुण्णछवी को बनाने में यह संगोष्ठी अवश्य सफल हुई और आयोजकों को अपनी उपलब्धि प्रदर्शन करने और नेताजी के प्रति समर्पण से अपने बुद्धिजीवी होने के खिताब को बरकरार रखने से जो सन्तुष्टी मिली उससे वे समाज का आगे भी मार्गदर्शन करते रहेंगे।
अशोक कुमार जैन
2- बी, रामद्वारा कॉलोनी, महावीर नगर, जयपुर
मो.: 9414047684