जैन-दर्शन के सात तत्त्वों में से आदि के दो तत्त्व अर्थात् जीव और अजीव तत्त्वोंका निरूपण पिछले अध्यायों में हो चुका है। इस अध्याय में तीसरे और चौथेक्रमशः आस्रव और बन्ध नामक तत्त्वों की चर्चा करेंगे। यह विषय कर्म-सिद्धान्त का है। इसे आधुनिक भाषा में जैन मनोविज्ञान भी कह सकते हैं। अतः जैन-दर्शन मान्य कर्म-सिद्धान्त का सामान्य परिचय भी इसी अध्याय में प्ररूपित करेंगे।
आस्रव
कर्मों के आगमन को “आस्रव” कहते हैं। जैसे नाली आदि के माध्यम सेतालाब आदि जलाशयों में जल प्रविष्ट होता है वैसे ही कर्म-प्रवाह आत्मा में आस्रव द्वार से प्रवेश करता है। आस्रव कर्म-प्रवाह को भीतर प्रवेश देने वाला द्वारहै। जैन दर्शन के अनुसार यह लोक पुगल वर्गणाओं से ठसाठस भरा है। उनमें सेकुछ ऐसी पुद्गल वर्गणाएँ हैं जो कर्म-रूप परिणत होने की क्षमता रखती हैं, इनवर्गणाओं को कर्म वर्गणा कहते हैं। जीव की मानसिक, वाचिक और कायिकप्रवृत्तियों के निमित्त से ये कार्मण-वर्गणाएँ जीव की ओर आकृष्ट हो, कर्म रूप मेंपरिणत हो जाती हैं और जीव के साथ उनका सम्बन्ध हो जाता है। कर्म वर्गणाओंका कर्म रूप में परिणत हो जाना ही आस्रव है।जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा में मन, वचन और शरीर रूपतीन ऐसी शक्तियाँ हैं जिनसे प्रत्येक संसारी प्राणी में प्रति समय एक विशेष प्रकारका प्रकम्पन/परिस्पन्दन होता रहता है। इस परिस्पन्दन के कारण जीव के प्रत्येकप्रदेश, सागर में उठने वाली लहरों की तरह तरंगायित रहते हैं। जीत्र के उक्त परिस्पन्दन के निमित्त से कर्म-वर्गणाएँ कर्म रूप से परिणत होकर जीत्र के साथसम्बन्ध को प्राप्त हो जाती हैं, इसे “योग” कहते हैं। यह योग ही हमें कर्मों से जोड़ता है, इसलिए “योग” यह इसकी सार्थक संज्ञा है। योग को ही ” आसव” कहते हैं। “आसव” का शाब्दिक अर्थ है “सब ओर से आना” “बहना” “रिसना” आस इस दृष्टि से कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्म किसी भित्र क्षेत्र से आते हों, अपितु हम जहाँ हैं, कर्म वहीं भरे पड़े हैं।
योग का निमित्त पाते ही कर्म-वर्गणाएँ कर्म रूप से परिणत हो जाती हैं। कर्म-वर्गणाओं का कर्म रूप से परिणत हो जाना ही आस्रव कहलाता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार की होती है। शुभ प्रवृत्ति को शुभ योग तथा अशुभ प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग शुभास्रव का कारण है तथा अशुभ योग से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है। विश्वक्षेम की भावना, सबका हित-चिन्तन, दया, करुणा और प्रेम-पूर्ण भाव शुभ-मनो-योग है। प्रिय सम्भाषण, हितकारी वचन, कल्याणकारी उपदेश “शुभ-वचन-योग” के उदाहरण हैं, तथा सेवा, परोपकार, दान एवं देव पूजा आदि ” शुभ-काय-योग” के कार्य हैं। इनसे विपरीत प्रवृत्तियाँ ” अशुभ योग” कहलाती हैं।
आस्रव के भेद आस्रव के द्रव्यास्रव और भावास्रव रूप दो भेद हैं। जिन शुभाशुभ भावों से कार्मण वर्गणाएँ कर्म रूप परिणत होती हैं उसे “भावास्रव” कहते हैं, तथा उन वर्गणाओं का कर्म-रूप परिणत हो जाना “द्रव्यासव” है। दूसरे शब्दों, में, जिन भावों से कर्म आते हैं, वह भावास्रव है तथा कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव है। जैसे-छिद्र से नाव में जल प्रवेश कर जाता है, वैसे ही जीव के मन, वचन, काय के छिद्र से ही कर्म- वर्गणाएँ आकर्षित/प्रविष्ट होती हैं। छिद्र होना-भावास्रव का, तथा कर्म-जल का प्रवेश करना, द्रव्यास्रव का प्रतीक है।
सकषाय और निष्कषाय जीवों की अपेक्षा द्रव्य-आस्रव दो प्रकार का कहा गया है-1. साम्परायिक 2. ईर्यापथ।
1. साम्परायिक आस्रव: “साम्पराय” का अर्थ “कषाय” होता है। यह “संसार” का पर्यायवाची है। क्रोधादिक विकारों के साथ होने वाले आम्रव को “सांपरायिक-आस्रव” कहते हैं। यह आंस्रव आत्मा के साथ दीर्घकाल तक टिका रहता है। कषाय स्निग्धता का प्रतीक है। जैसे तेलसिक्त शरीर में धूल चिपककर दीर्घकाल तक टिकी रहती है, वैसे ही कपाय सहित होने वाला यह आस्रव भी दीर्घकाल अवस्थायी रहता है।
2. ईर्यापथ आस्रव : आस्रव का दूसरा भेद ईर्यापथ है। यह मार्गगामी है। अर्थात् आते ही चला जाता है, ठहरता नहीं।’ जिस प्रकार साफ-स्वच्छ दर्पण पर पड़ने वाली धूल उसमें चिपकती नहीं है, उसी प्रकार निष्कषाय, जीवन-मुक्त महात्माओं के योग मात्र से होने वाला आस्रव “ईर्यापथ” आस्रव कहलाता है। कषायों का अभाव हो जाने के कारण यह दीर्घकाल तक नहीं ठहर पाता। इसकी स्थिति एक समय की होती है।
आस्रव के कारण
जैनागम में आस्रव के पाँच कारण बताये गये हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय, 5. योग।
1. मिथ्यात्व- विपरीत श्रद्धा या तत्त्व ज्ञान के अभाव को मिथ्यात्व कहते हैं। विपरीत श्रद्धा के कारण शरीर आदि जड़ पदार्थों में चैतन्य बुद्धि, अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि, अकर्म में कर्म बुद्धि आदि विपरीत मान्यता/प्ररूपणा पायी जाती है। मिथ्यात्व के कारण जीव को स्वपर विवेक नहीं हो पाता। पदार्थों के स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है। कल्याण मार्ग में सही श्रद्धा नहीं होती। यह मिथ्यात्त्व सहज और गृहीत दोनों प्रकार से होता है।’ दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में तत्त्व रुचि जागृत नहीं होती है। जीव कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और लोक मूढ़ताओं को ही धर्म मानता है। मिथ्यात्व ही दोषों का मूल है, इसलिये इसे जीव का सबसे बड़ा अहितकारी कहा गया है।
इस मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-
(1) एकान्त मिथ्यात्व वस्तु के किसी एक पक्ष को ही पूरी वस्तु मान लेना, जैसे पदार्थ नित्य ही है या अनित्य ही है। अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व को न समझ कर एकाङ्गी दृष्टि बनाये रखना। वस्तु के पूर्ण स्वरूप से अपरिचित रहने के कारण सत्यांश को ही सत्य समझ लेना।
(2) विपरीत मिथ्यात्व: पदार्थ को अन्यथा मानकर अधर्म में धर्म बुद्धि रखना।
(3) विनय मिथ्यात्व : सत्य-असत्य का विचार किये बिना तथा विवेक के अभाव में जिस किसी की विनय को ही अपना कल्याणकारी मानना।
(4) संशय मिथ्यात्व : तत्त्व और अतत्त्व के बीच संदेह में झूलते रहना।
(5) अज्ञान मिथ्यात्व : जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार के कारण विचार और विवेक-शून्यता से उत्पन्न अतत्त्व श्रद्धान।
2. अविरति : सदाचार या चरित्र ग्रहण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति न होना अविरति है। मनुष्य कदाचित् चाहे भी तो, कषायों का ऐसा तीव्र उदय रहता है, जिससे वह आंशिक चरित्र भी ग्रहण नहीं कर पाता।
3. प्रमाद : “प्रमाद- का अर्थ होता है “असावधानी”। आत्मविस्मरण या अजागृति को प्रमाद कहते हैं। अधिक स्पष्ट करें तो कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में सावधानी न रखना प्रमाद है। कुशल कार्यों के प्रति अनादर या अनास्था होना भी प्रमाद है।’ प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं- पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय तथा प्रणय और निद्रा। पाँचों इन्द्रियों के विषय में तल्लीन रहने के कारण राज कथा, चोर कथा, स्त्री कथा और भोजन कथा आदि विकथाओं में रस लेने के कारण क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों से कलुषित होने के कारण तथा निद्रा, प्रणय आदि में मग्न रहने के कारण कुशल कार्यों में अनादर भाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार की असावधानी से कुशल कर्मों के प्रति अनास्था भी उत्पन्न होती है और हिंसा की भूमिका तैयार होती है। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है।
4. कषाय : “कषाय” शब्द दो शब्दों के मेल से बना है “कष् + आय”। “कष्” का अर्थ “संसार” है, क्योंकि इसमें प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं, आय का अर्थ है “लाभ”। इस प्रकार कषाय का सम्मिलित अर्थ यह हुआ कि जीव के जिन भावों के द्वारा संसार की प्राप्ति हो, वे कषाय भाव हैं। वस्तुतः कषायों का वेग बहुत ही प्रबल है। जन्म-मरण रूप यह संसार वृक्ष “कपायों” के कारण ही हरा-भरा रहता है। यदि कषायों का अभाव हो तो जन्म- मरण की परम्परा का यह विष-वृक्ष स्वयं ही सूखकर नष्ट हो जाये। कषाय ही समस्त सुख-दुःखों का मूल है। कषाय को कृषक की उपमा देते हुए “पञ्च- संग्रह” में कहा गया है कि “कषाय” एक ऐसा कृषक है जो चारों गतियों की मेड़ वाले कर्म रूपी खेत को जोतकर सुख-दुःख रूपी अनेक प्रकार के धान्य उत्पन्न करता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी कषाय की कर्मोत्पादकता के सम्बन्ध में लिखा है, जो दुःख रूप धान्य को पैदा करने वाले कर्म रूपी खेत का कर्षण करते हैं, जोतते हैं, फलवान् करते हैं वे क्रोध मानादिक कषाय हैं।’ क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं। इनमें क्रोध और मान द्वेष-रूप हैं तथा माया और लोभ राग-रूप हैं। राग और द्वेष समस्त अनर्थों का मूल है।
5. योग : जीव के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन-प्रकम्पन या हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं। (योग का प्रसिद्ध अर्थ यम नियमादि क्रियाएँ हैं, पर वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है।) जैन दर्शन के अनुसार मन, वचन और काय से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म-परमाणुओं के साथ आत्मा का योग अर्थात् सम्बन्ध कराती है। इसी अर्थ में इसे योग कहा जाता है। यह योग प्रवृत्ति के भेद से तीन प्रकार का है मनोयोग, वचन-योग और काय-योग। जीव की कायिक (शरीर) प्रवृत्ति को काय-योग तथा वाचनिक और मानसिक प्रवृत्ति को क्रमशः वचन और मनोयोग कहते हैं।
प्रत्ययों के पाँच होने का प्रयोजन : आत्मा के गुणों का विकास बताने के लिए जैन-दर्शन में चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। उनमें जिन दोषों के दूर होने पर आत्मा की उन्नति मानी गयी है, उन्हीं दोषों को यहाँ आस्रव के हेतु में परिगणित किया गया है। ऊँचे चढ़ते समय पहले मिथ्यात्व जाता है, फिर अविरति जाती है, तदुपरान्त प्रमाद छूटता है, फिर कषाय और अन्त में योग का सर्वथा निरोध होने पर आत्मा सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है। इसलिए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह क्रम रखा गया है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि पूर्व-पूर्व के कारणों के रहने पर उत्तरोत्तर कारण अनिवार्य रूप से रहते हैं। जैसे मिध्यात्व की उपस्थिति में शेष चारों कारण भी रहेंगे। किन्तु अविरति रहने पर मिथ्यात्व रहे यह कोई नियम नहीं है। भिन्न-भिन्न अधिकरणों की अपेक्षा ही उक्त प्रत्यय बताये गये हैं।
बन्ध
कर्म रूप परिणत पुगलों का जीवात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाना कर्म है।’ दो पदार्थों के मेल को बन्ध कहते हैं। यह सम्बन्ध धन और धनी की तरह का नहीं है, न ही गाय के गले में बन्धने वाली रस्सी की तरह का, वरन् बन्ध का अर्थ जीव और कर्म-पुद्गलों का मिलकर एकमेक हो जाने से है। आत्मा के प्रदेशों में कर्म प्रदेशों का दूध में जल की तरह एकमेक हो जाना ही बन्ध कहलाता है। जिस प्रकार सोने और ताँबे के संयोग से एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है, अथवा हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप दो गैसों के सम्मिश्रण से जल रूप एक विजातीय पदार्थ की उत्पत्ति हो जाती है उसी प्रकार बन्ध पर्याय में जीव और पुद्गलों की एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है जो न तो शुद्ध जीव में पायी जाती है, न ही शुद्ध पुगलों में। इसका अर्थ यह नहीं है कि बन्धावस्था में जीव और पुद्गल कर्म सर्वथा अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं तथा फिर उन्हें पृथक् किया ही नहीं जा सकता। उन्हें पृथक् भी किया जा सकता है- जैसे मिश्रित सोने और ताँबे को गलाकर अथवा प्रयोग विशेष से जल को पुनः हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप में परिणत किया जा सकता है। उसी प्रकार कर्मबद्ध जीव भी अपने पुरुषार्थजन्य प्रयोग के बल से अपने आपको कर्मों से पृथक् कर सकता है।
आस्रव-बन्ध सम्बन्ध
जीव के मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं का कर्म रूप से परिणत होना “आस्रव” है, तथा आस्रवित कर्म-पुद्गलों का जीव के रागद्वेष आदि विकारों के निमित्त से आत्मा के साथ एकाकार/एक रस हो जाना ही “बन्ध” है। बन्ध, आस्रवपूर्वक ही होता है। इसीलिए आस्रव को बन्ध का हेतु कहते हैं।’ आस्रव और बन्ध दोनों युगपत् होते हैं। उनमें कोई समय भेद नहीं है। आस्रव और बन्ध का यही सम्बन्ध है। सामान्यतया आस्रव के कारणों को ही बन्ध का कारण (कारण का कारण होने से) कह देते हैं, किन्तु बन्ध के लिए अलग शक्तियाँ कार्य करती हैं।
बन्ध के कारण
मूल रूप से दो ही शक्तियाँ कर्म बन्ध का कारण हैं- योग और कषाय। योग रूप शक्ति के कारण कर्म वर्गणाएं जीव की ओर आकृष्ट होती हैं तथा रागद्वेष आदि रूप मनोविकार – कषायों का निमित्त पाकर जीवात्मा के साथ चिपक जाते हैं, अर्थात् योग शक्ति के कारण कर्म-वर्गणाएँ कर्म रूप से परिणत होती हैं तथा कषायों के कारण उनका आत्मा के साथ संश्लेष रूप एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म-बन्ध के मूल रूप से दो शक्तियाँ योग और कषाय काम करती हैं।’ इन दोनों शक्तियों में से कषायों को गोंद की, योग को वायु की, कर्म को धूल की तथा जीव को दीवार की उपमा दी जाती है। दीवार गीली हो अथवा उस पर गोंद लगी हो तो वायु से प्रेरित धूल उस पर चिपक जाती है, किन्तु साफ- स्वच्छ दीवार पर वह चिपके बिना झड़कर गिर जाती है। उसी प्रकार योग रूपी वायु से प्रेरित कर्म भी कषाय रूपी गोंद युक्त आत्मप्रदेशों से चिपक जाती है। धूल की हीनाधिकता वायु के वेग पर निर्भर करती है तथा उनका टिके रहना गोंद की प्रगाढ़ता और पतलेपन पर अवलम्बित है। गोंद के प्रगाढ़ होने पर धूल की चिपकन भी प्रगाढ़ होती है तथा उसके पतले होने पर धूल की चिपकन भी अल्पकालिक होती है। उसी प्रकार योग की अधिकता से कर्म प्रदेश अधिक आते हैं तथा उनकी हीनता से अल्प। उत्कृष्ट योग होने पर कर्म प्रदेश उत्कृष्ट बँधते हैं तथा जघन्य होने पर जघन्य। उसी प्रकार यदि कषाय प्रगाढ़ होती हैं तो कर्म अधिक समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अधिक मिलता है। कषायों के मन्द होने पर कर्म भी कम समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अल्प मिलता है। इस प्रकार योग और कषाय रूपी शक्तियाँ ही बन्ध के प्रमुख कारण हैं। इसलिये जैन धर्म में कषाय के त्याग पर जोर देते हुए कहा गया है कि “जिन्हें बन्ध नहीं करना है वे कषाय न करें “?
बन्ध के भेद :
द्रव्य बन्ध और भाव बन्ध की अपेक्षा बन्ध के दो भेद किये गये हैं। जिन राग, द्वेष मोह आदि मनोविकारों से कर्मों का बन्ध होता है उन्हें “भाव-बन्ध” कहते हैं तथा कर्म-पुगलों का आत्मा के साथ एकाकार हो जाना ” द्रव्य” बन्ध है।” भाव बन्ध हीद्रव्य बन्ध का कारण है, अतः उसे प्रधान समझकर उससे बचना चाहिए।
द्रव्य बन्ध के भेद : द्रव्य बन्ध के चार भेद किये गये हैं- 1. प्रकृति बन्ध, 2. प्रदेश बन्ध, 3. स्थिति बन्ध, 4. अनुभाग बन्ध।
1. प्रकृति बन्ध – प्रकृति का अर्थ है स्वभाव/ कर्मबन्ध के समय बँधने वाले कर्म परमाणुओं में बन्धन का स्वभाव निर्धारण होना प्रकृति बन्ध है। प्रकृति बन्ध यह निश्चित करता है कि कर्म-वर्गणा के ये पुगल आत्मा की ज्ञान-दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत/आच्छादित करेंगे।
2. प्रदेश बन्ध – बँधे हुए कर्म-परमाणुओं की मात्रा को प्रदेश बन्ध कहते हैं।
3. स्थिति बन्ध – बँधे हुए कर्म जब तक अपना फल देने की स्थिति में रहते हैं, तब तक की काल मर्यादा को स्थिति बन्ध कहते हैं। सभी कर्मों की अपनी-अपनी स्थिति होती है। कुछ कर्म क्षण-भर टिकते हैं तथा कुछ कर्म अति दीर्घ काल तक आत्मा के साथ चिपके रहते हैं। उनके इस टिके रहने की काल-मर्यादा को ही “स्थिति बन्ध” कहते हैं। जिस प्रकार गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध में माधुर्य एक निश्चित कालावधि तक ही रहता है, उसके बाद वह विकृत हो जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक कर्म का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है। यह मर्यादा ही स्थिति बन्ध है, जिसका निर्धारण जीव के भावों के अनुसार कर्म बँधते समय ही हो जाता है और कर्म तभी तक फल देते हैं, जब तक कि उनकी स्थिति होती है। इसे काल- मर्यादा भी कह सकते हैं।
4. अनुभाग बन्ध- कर्मों की फलदान-शक्ति को “अनुभाग बन्ध” कहते हैं। कर्मफल की तीव्रता मन्दता इसी पर अवलम्बित है। प्रकृति बन्ध सामान्य है। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म आ तो जाते हैं, किन्तु उनमें तरतमता अनुभाग बन्ध्र के कारण ही आती है। जैसे गन्ने का स्वभाव मीठा है, पर वह कितना मीठा है यह सब उसमें रहने वाली मिठास पर ही निर्भर है। ज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव ज्ञान को ढाँकना है, पर वह कितना ढाँके, यह उसके अनुभाग बन्ध की तरतमता पर निर्भर है। प्रकृति बन्ध और अनुभाग बन्ध में इतना ही अन्तर है।
अनुभाग बन्ध में तरतमता हमारे शुभाशुभ भावों के अनुसार होती रहती है। मंद अनुभाग में हमें अल्प सुख-दुःख होता है तथा अनुभाग में तीव्रता होने पर हमारे सुख-दुःख में तीव्रता होती है। जैसे उबलते हुए जल के एक कटोरे से भी हमारा शरीर जल जाता है, किन्तु सामान्य गर्म जल से स्नान करने के बाद भी वैसा कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार तीव्र अनुभाग युक्त अल्पकर्म भी हमारे गुणों को अधिक घातते हैं तथा मन्द अनुभाग युक्त अधिक कर्म-पुञ्ज भी हमारे गुणों को घातने में उतने समर्थ नहीं हो पाते। इसी कारण चारों बन्धों में अनुभाग बन्ध की ही प्रधानता है।
इन चार प्रकार के बन्धों में प्रकृति-बन्ध और प्रदेश बन्ध योग से होते हैं, जबकि स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का कारण कषाय है। इस प्रकार कर्मों से बँधा हुआ जीव विकारी होकर नाना योनियों में भटकता है। कर्म ही जीव को परतन्त्र करते हैं। संसार में जो विविधता दिखाई देती है, वह सब कर्म बन्ध जन्य ही है। आस्रव और बन्ध के स्वरूप को विशेष रूप से समझने के लिए कर्म-सिद्धान्त पर विचार करना आवश्यक है। उसके बिना इस विषय को समझ पाना असम्भव है।
साभार – जैन धर्म और दर्शन : मुनिश्री प्रमाणसागर