विवाह से संबन्धित कई पहलू सामने आते हैं। मसलन विवाह क्या है? विवाह कैसे होता है? विवाह कहाँ-कहाँ हो सकता है? क्या विवाह का जैन धर्म से कोई संबंध है? क्या अंतर्जातीय विवाह या पुनर्विवाह किया जा सकता है? यहाँ हम इन तमाम मुद्दों पर चर्चा करेंगे।
शास्त्रों में कहा गया है ‘कन्यादानं विवाह’ (कन्या का दान विवाह कहलाता है) हिन्दुओं में सामान्यतः यही मान्यता प्रचलित थी। 13-14 वर्ष तक की लड़की को कन्या कहते हैं; अतः पहले बाल-विवाह हो जाया करते थे, लेकिन आजकल ‘कन्या’ शब्द का व्यवहार प्रत्येक कुंवारी लड़की के लिए होता है, चाहें वह कन्या हो या युवती, शादी के समय तक वह कन्या ही कही जाती है। शादियों में कन्यादान की रस्म भी होती है। खैर !
जैनधर्म के संदर्भ में विवाह की उक्त परिभाषा कितनी तर्क-संगत बैठती है, अब हम इसे देखेंगे। विवाह की चर्चा से पूर्व हम दान की चर्चा करेंगे। जैनधर्मानुसार श्रावक के छह आवश्यक कर्तव्य हैं। उनमें से एक दान भी है। दान चार प्रकार का कहा गया – आहार, औषधि अभय तथा शास्त्र (ज्ञान), लेकिन कन्या दान का कहीं कोई जिक्र नहीं है। वैसे भी दान किसी वस्तु का किया जाता है। कन्या कोई वस्तु नहीं है; जिसे चाहे जब, चाहे जिसे, उठा कर दे दिया जाए, अतः जैनधर्म के संदर्भ में ‘कन्या के दान’ का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए विवाह की उक्त परिभाषा असंगत है। वस्तुतः स्त्री तथा पुरुष के दाम्पत्य जीवन में प्रवेश का नाम ही विवाह है। विवाह के बाद से ये दोनों अपने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हैं।
कुछ लोग विवाह को धार्मिक कृत्य मानते हैं; लेकिन जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में देखें तो विवाह को धार्मिक कृत्य बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है। यदि यह धार्मिक कृत्य होता तो इसे भगवान् महावीर ने क्यों नहीं किया? अन्य चार तीर्थंकर वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ ने विवाह क्यों नहीं किया? इतना ही नहीं, हमारे शास्त्रों में तो स्थान-स्थान पर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की चर्चा की गयी है। ब्रह्मचर्य व्रत पाँच महाव्रतों में से एक है। इस प्रकार विवाह धार्मिक कृत्य नहीं है। यह एक सामाजिक कृत्य है। समाज किसे विवाह कहता है, यह उस पर ही निर्भर करता है। धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं है।
जैन विवाह विधि
हिन्दुओं में सामान्यतः विवाह में वर-पक्ष बारात ले कर आता है। कन्या-के-द्वार पर आने के बाद वह तोरण मारता है तथा वरमाला की रस्म होती है। फिर वर तथा कन्या को अग्नि के समक्ष बिठा कर सभी देवताओं को साक्षी रख कर कन्या का पिता अपनी पुत्री का दान कर देता है। फिर वर तथा वधू दोनों अग्नि के चारों ओर सात फेरे दे कर जीवन-भर साथ रहने की क़सम खाते हैं तथा इस तरह दाम्पत्य जीवन में उनका प्रवेश हो जाता है। इस पूरे कार्य को मात्र ब्राह्मण ही करा सकता है।
जैन विवाह-विधि भी हिन्दुओं की विवाह विधि जैसी ही है। कुछ दशकों पहले तक तो जैन भी हिन्दुओं की तरह पवन देवता, अग्नि देवता आदि-आदि सभी का आह्वान करते थे, तथा वर-वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लगा कर एक दूसरे को सात- सात वचन देते थे, लेकिन कुछ वर्षों से जैन समाज में कुछ जागृति जैसी आयी है और उन्होंने अपनी ‘जैन विवाह विधि’ प्रारम्भ कर दी है। इसमें ब्राह्मणों के स्थान पर जैन-पण्डित विवाह करवाते हैं, वैसे हिन्दू विवाह-विधि से यह विधि बहुत अलग नहीं है। हाँ, देवताओं के नाम बदल दिये गये हैं। हिन्दू-पूजा के स्थान पर जैन-पूजा की जाती है। अग्नि में हवन किया जाता है तथा अग्नि के सात फेरे भी दिये जाते हैं।
विवाह के अवसर पर पूजा तथा अग्नि के चारों ओर फेरों का जैनधर्म में कोई तर्क संगत उत्तर नहीं मिलता है। मेरी दृष्टि में तो यह गलत भी है। एक ओर दाम्पत्य जीवन में प्रवेश का अर्थ ब्रह्मचर्य व्रत का छोड़ना है, दूसरी ओर तीर्थकरों की पूजा कि हम भी आप जैसे हो जाएँ तथा पूजा में ‘काम-वाण-विध्वंसनाय’ कह कर आहुति देना, मजाक ही है। इसी प्रकार हवन आदि में अग्रिकायिक जीवों की अनावश्यक हिंसा भी अनुचित ही प्रतीत होती है। फिर अग्नि के चारों ओर ही सात फेरे क्यों दिये जाते हैं? हिन्दुओं के लिए तो ठीक है कि वे अग्नि को देवता का रूप मानते हैं, अतः उसे साक्षी रख कर सात फेरे के साथ-साथ सात वचन भी कहे जाते हैं; लेकिन जैन तो अग्रि को देवता मानते नहीं हैं फिर वे इसके सात फेरे क्यों दिलवाते हैं?
कुछ लोग सोचेंगे कि फिर विवाह-विधि कैसी होनी चाहिये? यदि हम प्रथमानुयोग विषयक जैन शास्त्रों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि उक्त प्रपंच नहीं रचा जाता था। प्राचीन काल में विवाह का तरीका दूसरा था। सामान्यतः स्वयंवर की प्रथा थी। इस प्रथा में कन्या का पिता कुछ विवाह-योग्य पुरुषों को अपने यहाँ आमन्त्रित करता था। इन पुरुषों में से कन्या जिस पुरुष को पसन्द करती थी, उसके गले में माला डाल देती थी तथा उसी के साथ उसका विवाह हो जाता था। वर माला के पश्चात् उक्त कोई प्रपंच होता हो इसका कहीं उल्लेख नहीं है, अतः वरमाला ही विवाह की एक मात्र रस्म हुआ करती थी।
वैसे, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि विवाह एक सामाजिक कृत्य है; अतः अलग-अलग देशों में, अलग-अलग जातियों में अलग-अलग विवाह-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। यह समाज के लोगों पर निर्भर करता है कि वे सामाजिक कार्यों को किस प्रकार संपन्न करें।
अंतर्जातीय विवाह
प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था थी। भगवत् जिनसेनाचार्य ने चारों वर्णों में अनुलोम-रूप से विवाह करने का विधान बताया है। इनके अनुसार ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं से विवाह कर सकता है। क्षत्रिय ब्राह्मण की कन्या के अतिरिक्त अन्य तीन वर्णों की कन्या से, वैश्य सिर्फ वैश्य तथा शूद्र की कन्या से तथा शूद्र मात्र शूद्र की कन्या से विवाह कर सकता है; अतः सभी वर्णों के लिए शुद्र की कन्या से विवाह करना उचित ठहराया गया है; परन्तु प्रतिलोम विवाह की (अपने ऊपर के वर्ण की कन्या से विवाह करने की) आज्ञा नहीं दी गयी है।
प्राचीन समय में सभी वर्णों और उपजातियों में बिना किसी भेदभाव के विवाह-संबंध हो जाया करते थे। शास्त्रों में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। चक्रवर्ती भरत ने म्लेच्छ कन्याओं से विवाह किया। भीम ने भील कन्या से विवाह किया। भरत तथा भीम क्षत्रिय थे जबकि म्लेच्छ तथा भील शूद्र वर्ण में आते हैं। सम्राट् श्रेणिक के पिता शिशुनाग, जो कि क्षत्रिय थे, उन्होंने भी भील-की-कन्या से विवाह किया। सम्राट् श्रेणिक ने वणिक् सेठ की कन्या नन्दश्री से विवाह किया। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि एक वर्ण वाले का दूसरे वर्ण वालों से विवाह हो जाया करते थे।
आजकल पहले जैसी वर्ण व्यवस्था नहीं है। सारा समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ है। कौन-सी जाति किस वर्ण की है यह किसी को ठीक से ज्ञात नहीं है; अतः कहीं वर्ण-संकरता न हो जाए, इस भय से सभी अपनी-अपनी जाति में ही विवाह-संबंध करने लगे। अंतर्जातीय विवाह का सामान्यतः प्रचलन नहीं रहा है, लेकिन आज जब सारा संसार प्रगति के मार्ग पर है तब यह प्रत्येक के सोचने का विषय हो गया है कि क्या पुराने परम्परागत सामाजिक रीति-रिवाज सही हैं, या उनमें कोई फेरफार की जरूरत है? जैन समाज में भी ‘विवाह’ आज आम चर्चा का विषय बना हुआ है।
जैनों की समाज-व्यवस्था हिन्दुओं से कभी अलग नहीं रही है। जैसा ब्राह्मणों ने तय कर दिया वैसा ही जैन लोग भी करते रहे। वस्तुतः एक युग ऐसा था कि ब्राह्मण अपने को सर्वोपरि सिद्ध करने के लिए न जाने क्या-क्या हथकण्डे अपनाते थे। कभी कहा कि ब्राह्मण किसी भी वर्ण की कन्या से शादी कर सकता है, अन्य कोई ऐसा नहीं कर सकता। कभी यह कि शादी-विवाह ब्राह्मण ही करा सकता है, अन्य कोर्ड नहीं। इसी प्रकार कभी कहा कि अन्य सामाजिक कार्यों में भी ब्राह्मण का होना अनिवार्य है; अतः आप स्वयं सोच सकते हैं कि किसे किस जाति में शादी करनी है, इसका निर्णय भी ब्राह्मणों ने ही तय किया है। शादी-विवाह जैसे सामाजिक कार्यों में जैनों का अलग से कभी कोई मौलिक चिन्तन नहीं रहा है। वस्तुतः इस विषय पर चर्चा करना जैनधर्म में कोई आवश्यक भी नहीं है, लेकिन आज जब कुछ बुद्धिजीवी जैनों ने इसे आम चर्चा का विषय बनाया ही है, तब उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार हो ही जाना चाहिये।
जैनों सहित बहुत से जैनेतर हिन्दुओं ने अपने कई सामाजिक रीति-रिवाजों में परिवर्तन कर लिये हैं। पहले वाल-विवाह का प्रचलन था, आज नहीं है। पुरुष बहुविवाह करते थे, आज न तो करते ही हैं और न ही उसे अच्छा या उचित माना जाता है। हिन्दुओं में सती-प्रथा प्रचलित थी, आज नहीं है। मृत्यु- भोज पहले अनिवार्य समझा जाता था, आज वह अनावश्यक ही नहीं, अनुचित भी समझा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक रीति-रिवाजों में सदा परिवर्तन होते रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि आम सहमति मिलने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। जब बाल-विवाह, सती-प्रथा आदि पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तब विरोध हुआ। इसी प्रकार आप कोई भी नया कदम उठाइये, उसमें कुछ विरोध तो होगा ही, और यदि आपका उठाया हुआ कदम तर्क-संगत तथा प्रगतिशील है तो कुछ समय में उसे सभी लोग स्वीकार कर लेंगे।
अब देखना यह है कि अंतर्जातीय विवाह तर्क संगत है या नहीं? रूढ़िवादियों का कहना है कि अंतर्जातीय विवाह नहीं होने चाहिये, क्योंकि इससे वर्ण-संकरता का भय रहता है, लेकिन क्या रूढ़िवादियों ने कभी सोचा भी है कि वर्ण-जाति क्या है ? वस्तुतः रुढ़िवादियों को कभी कुछ सोचने-विचारने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती है। वे किसी बात के सही या गलत होने का निर्णय इससे करते हैं कि परम्परा या रूढ़ि उसे सही मानती है या गलत !
भगवान् आदिनाथ के समय की वर्ण-व्यवस्था में तथा भगवान् महावीर के समय की वर्ण-व्यवस्था में भी बहुत अन्तर हुआ है। भगवान् आदिनाथ के समय व्यक्ति का वर्ण उसके कर्म द्वारा निर्धारित किया जाता था। एक ही परिवार के लोग अपने-अपने कर्म (काम-की-आदत) के आधार पर अलग-अलग वर्ण के हो सकते थे; लेकिन भगवान् महावीर के समय में व्यक्ति का वर्ण उसके जन्म से तय किया जाने लगा। यह स्थिति आज तक बनी हुई है।
जब जातियों की रचना हुई तब समान धर्म, समान रहन-सहन, समान खान-पान तथा समान आचार-विचार वाले लोगों के समूह विभिन्न जातियों में परिणत हो गये लेकिन आज हम किसे जाति कहें? किसे वर्णं कहें? प्रत्येक कार्य प्रत्येक जाति में होता है- उचित तथा अनुचित। जहाँ भी कोई रहता है वहाँ की वेश-भूषा, खान-पान ग्रहण कर लेता है। वस्तुतः आज हम जिन जातियों के लिए बहस कर रहे हैं; वे हैं कहाँ? जिसके मन में जैसा आ रहा है, वैसा वह कर रहा है। जो लोग तस्करी, काले धन्धे तथा हिंसक कार्यों में संलग्न हैं, उन्हें किसी शुद्ध धार्मिक जाति का अंग कैसे माना जा सकता है? उनसे विवाह-संबंध भी कैसे किये जा सकते हैं? रुढ़िवादियों से मेरा एक प्रश्न यह है कि मानो अलग-अलग जातियों में विवाह करने पर वर्ण संकरता आ भी गयी तो उससे क्या हानि है? क्या वर्ण संकर होने पर व्यक्ति अधार्मिक हो जाता है? कोई कहता है कि रक्त का सम्मिश्रण हो जाता है। पहली बात तो यह है कि ऐसी दलील देने वालों के साथ कभी कोई दुर्घटना हो जाए और उन्हें खून चढ़ाने की आवश्यकता हो, तब क्या वे यह देखेंगे कि खून देने वाला उनकी जाति का है या नहीं, या वे अपनी जान बचाने का प्रयल करेंगे? और मानो यदि रक्त का सम्मिश्रण हो भी गया तो उससे क्या हानि है? रक्त सम्मिश्रण से माना विचारों में परिवर्तन भी आ जाता है; लेकिन यदि रक्त देने वाले तथा लेने वाले एक ही विचार के व्यक्ति हैं, तब कौन-सा अन्तर आयेगा? इसी प्रकार यदि स्त्री तथा पुरुष दो अलग-अलग जातियों के हैं, लेकिन उनका खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा धर्म एक है, तब उनके विचारों में कौन-सा परिवर्तन आयेगा?
जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, विवाह का जैनधर्म से कोई संबंध नहीं है। यह धार्मिक कृत्य नहीं है, सामाजिक कृत्य है। अंतर्जातीय विवाह करने में कोई बुराई भी सिद्ध नहीं होती है; अतः इसका विरोध उचित नहीं है।
हाँ एक बात अवश्य है कि स्वजाति में विवाह करने के कुछ विशेष लाभ होते हैं, जैसे कि आमतौर पर अधिकतर लोग अपनी जाति के सभी लोगों को भली-भांति जानते हैं। लड़के तथा लड़की के परिवार वाले भी एक-दूसरे से भली भांति परिचित होते हैं; अतः वे सन्तुष्ट हो सकते हैं कि उनके बेटे-बेटियों का जीवन सुखमय व्यतीत होगा। अपनी जाति में विवाह करने पर परस्पर प्रेम अधिक बढ़ता है। एक जैसे आचार-विचार तथा धर्म होने के कारण लड़का लड़की अपनी-अपनी ससुराल में जल्दी से घुल-मिल जाते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी अन्य जाति के व्यक्ति के बारे में हमें कुछ ज्ञात नहीं हो सकता है, या वहाँ अधिक प्रेम नहीं हो सकता है। अवश्य हो सकता है। यदि दो अलग- अलग जाति के लोगों में घनिष्ठ मित्रता है, तो उन्हें एक-दूसरे के बारे में कुछ मालुम न हो ऐसा असंभव ही है। अपरिचित के साथ रिश्ता करना तो कैसे भी उचित नहीं है। यदि कोई अपनी ही जाति का है; लेकिन उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते हैं तब भी वहाँ संबंध बिल्कुल नहीं करना चाहिये, और यदि कोई दूसरी जाति का है; लेकिन यदि हम उसके पूरे खानदान तथा रिश्तेदारों से भली भांति परिचित हैं, तो वहाँ रिश्ता करना अनुचित नहीं है। विवाह के अवसर पर लड़के तथा लड़की का स्वयं का स्वभाव तथा उनका खानदान ही देखना चाहिये। उनकी जाति देखने का कोई औचित्य नहीं है।
पुनर्विवाह
आज के युग में अंतर्जातीय विवाह का मुद्दा इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना पुनर्विवाह का है। सामान्यतः लड़कों का पुनर्विवाह तो हो जाता है तथा उसे सभी लोग मान्यता भी दे देते हैं; लेकिन लड़की के पुनर्विवाह को अभी तक पूरी मान्यता नहीं मिल पायी है। इस संदर्भ में रुढ़िवादी विवाह का वही सूत्र अलापते हैं कि कन्या के दान को विवाह कहते हैं। एक बार कन्या का विवाह हो जाए तो वह कन्या नहीं रहती, वह विवाहिता हो जाती है। विवाहिता का दान नहीं किया जाता; अतः उसका पुनर्विवाह नहीं हो सकता। यह कैसी विडम्बना है कि पत्नी के मरने पर पुरुष तो दूसरा विवाह कर सकता है; लेकिन पति के मरने पर स्त्री दुवारा विवाह नहीं कर सकती? यह पुरुष प्रधान समाज का अपने हित में बनाया हुआ नियम है। यह उन लोगों का बनाया नियम है जो स्त्री को मात्र भोग-की-वस्तु समझते हैं; इससे अधिक कुछ नहीं। जिस कार्य को स्त्री करे वह पाप और जिस कार्य को पुरुष करे वह पाप नहीं; कैसी विडम्बना है यह?
आज समाज में कई ऐसी युवतियाँ हैं, जिन्हें शादी के कुछ दिनों बाद उनके पतियों ने छोड़ दिया तथा दूसरी शादी कर ली। तब क्या ये युवतियाँ जिन्दगीभर तड़पता हुआ जीवन बिताती रहें? जिनके साथ ऐसी घटना होती है: उन्हीं को इस दुःख का अहसास होता है। यूँ तो बातें बनाने को कुछ भी कहते रहिये।
कुछ दशक पूर्व के महान क्रान्तिकारी विचारक ब्र. शीतलप्रसाद जी ने स्त्री-के पुनर्विवाह को उचित ठहराया था। उसका प्रचार भी किया; लेकिन रूढ़िवादियों के सामने वे अपने इस विचार को ऊँचा न उठा सके। उनकी कड़ी आलोचना भी हुई, लेकिन उनके विचार कितने सही थे, इसका अहसास आने वाली पीढ़ी अवश्य करेगी।
स्त्री-के-पुनर्विवाह में जो लोग फिर से जैनधर्म को बीच में लायेंगे उनसे फिर वहीं कहना है कि विवाह का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यदि कोई ब्रह्मचर्य व्रत का आजीवन पालन करता है, तो इससे उत्तम और क्या बात हो सकती है? लेकिन यह बात अवश्य है कि पाप या पुण्य का बन्धन स्त्री तथा पुरुष को समान रूप से होता है, दोनों को अलंग-अलग नहीं। किसी जमाने में एक पुरुष कई-कई पत्रियाँ रखता था; लेकिन यह सब पुरुष को स्त्री के मुक़ाबले ऊँचा दिखाना मात्र था। पुराने जमाने में करते होंगे पुरुष कई-कई शादियाँ; लेकिन न तो आज कोई कई शादियाँ ही करता है और न कोई एक साथ कई पत्नियाँ रखना उचित ही ठहराता है।
एक बात अवश्य है कि आज के युग में लड़की के लिए एक बार ही उचित वर ढूंढ पाना कठिन होता है, तब बार-बार आसानी से वर कहाँ मिलेगा? दूसरे अभी समाज इतनी उदार विचार-धारा का भी नहीं हुआ है। कोई भी कुँवारा लड़का विधवा स्त्री से , या किसी तलाक-शुदा / परित्यक्ता से विवाह करना पसन्द नहीं करता और यदि कोई ऐसा करता है तो हमें विरोध के बजाय उसका स्वागत करना चाहिये।
डॉ.अनिल कुमार जैन
बापू नगर जयपुर