असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख आता है ।
मोहनीय कर्म के कारण साधक दुःखी होता है ।
प्रत्याख्यान करे कि, हमें “दुःखी नहीं होना है” ।
कषाय से कर्म बंधन होता है,
अन्दर में जितनी कषाय होगी उतना ही कर्म बंधन होगा ।
धर्म की समीक्षा प्रज्ञा से होगी ।
चिन्ता को मिटाना है तो इच्छाएं छोड़नी पड़ेगी ।
इच्छाएं नहीं करोगे तो प्रगति कैसे करेंगे?
हमारा पुरुषार्थ भाव कर्ममें चलेगा, द्रव्य कर्म में नहीं चलेगा।
जीव द्रव्य कर्म के आगे कठपुतली है, जैसे नचाऐगा वैसे नाचेगा । पुरुषार्थ भावकर्म का क्षय करेगा।
ज्ञानी की सारी क्रियाएं निष्फल है। अज्ञानी की सारी क्रियाएं सफल है।
तप कर्म निर्जरा का उपाय है। तपस्या से आत्मा की शुद्धि होती है ।
इन्द्रियों का जितना संयम व्यक्ति करेगा उतनी शांति बढ़ेगी ।
धर्म का फायदा तत्काल मिलता है। कर्म का फल बाद में मिलता है।
प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है?
प्रत्याख्यान इच्छाओं का निरोध करता है ।
आसव्र — इच्छाओं का होना ही आसव्र है ।
आचार्य विनोबा भावे ने कहा है —
मनुष्य – इच्छाएं = भगवान ।
मोक्ष में इच्छाएं हैं ही नहीं ।
प्रायश्चित — पापों की विशुद्धि को प्रायश्चित कहते हैं।
अशुद्धि के भाव को निष्कासित करना प्रायश्चित है।
हमारा भाव अशुद्धि से निकलने का होना चाहिए ।
जिन शासन में प्रायश्चित्त का बहुत बड़ा महत्व है। प्रायश्चित बहुत बड़ा तप है।
धर्म की शुरुआत प्रायश्चित से होती है ।
मिथ्या दृष्टि वाला यदि प्रायश्चित करता है तो वह सम्यक दृष्टि बन जाएगा ।
पाप की शुद्धि प्रायश्चित्त से होती है । पाप विभाव है।
पाप का सम्बन्ध मानसिक है। पाप को याद करना पाप है ।
पुण्य से ही समझ आया कि पुण्य है। पुण्य के प्रति आसक्ति पाप है । पुण्य का भोग पाप है।
गलतियों को भूलने में धर्म है। विभाव को स्वभाव से अलग कर लें। अशुद्धि की विस्मृति एवं शुद्धि की स्मृति करनी है।
कर्म बंधन का कारण मिथ्यात्व है ।
आलोचना – दोषों को आत्मा से अलग देखना आलोचना है ।
यह लेख उत्तराध्ययन सूत्र के आधार पर है।
जो मैंने श्रद्धेय श्री यशवंत मुनि जी म. स. के प्रतिदिन के प्रवचन से सुनें है ।
(श्रीचन्द जैन )
भूतपूर्व राष्ट्रिय महामंत्री
अ.भा. पल्लीवाल जैन महासभा