श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

टोने-टोटके : विकृत मन की परछाँहियाँ

जब कभी मैं जादू-टोने, मंत्र-तंत्र के बारे में विभिन्न लोगों से बात करता हूँ, तब हमेशा विभिन्न मत सुनने को मिलते हैं। एक ओर कुछ लोग इनका माहात्म्य कहते नहीं थकते, दूसरी ओर सुधारवादी इसे मात्र ढोंग, अंधविश्वास कह कर इनकी उपेक्षा और उपहास करते हैं। एक ओर हमारे बहुत से साधु भी इस क्षेत्र में बहुत उलझ गये हैं तथा आम जनता को इनके माध्यम से लाभ पहुँचाने का श्रम करते हैं, दूसरी ओर कुछ चिन्तक तथा विचारक इन सब का विरोध करते हैं। आजकल तो झाड़-फूँक, टोना-टोटका तथा मंत्र-तत्रों की बहुत-सी दुकानें भी खुल गयी हैं तथा इन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयत्न भी किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में आम जनता भ्रमित है; अतः वस्तु-स्थिति का पता लगाने के लिए हमें दोनों पक्षों पर खुल कर विचार करना चाहिये।

बहुत-से लोग सुबह से शाम तक विभिन्न टोनों-टोटकों तथा मंत्र-तंत्र आदि के चक्कर में पड़े रहते हैं। प्रातः उठते ही हथेलियाँ चूमते हैं। घर से बाहर निकलने से पहले रुद्राक्ष की माला तथा मूंगे की अंगूठी पहिनते हैं। शकुन-अपशकुन तथा दिशा शूल का विचार करते हैं। प्रतिदिन क़िस्म क़िस्म के मत्रों का जाप करते हैं, हवन करते हैं; तावीज पहनते हैं। इस सब की पीठ पर एक कारण नज़र आता है – पैसा। किसी भी तरह घर में अधिक-से-अधिक पैसा (धन) आना चाहिये।

टोने-टोटकों का उपयोग बीमारियों को दूर करने के लिए भी किया जाता है। झाड़-फूंक करना, और नीम आदि गले में बांधना बहुत सामान्य क्रियाएँ हैं। बच्चों की नजर उतारने की घटनाएँ भी सामान्य हैं। ऐसी आम धारणा है कि यदि किसी बच्चे पर किसी की कुदृष्टि पड़ जाए तो बच्चा बीमार पड़ जाता है और कुछ टोटकों से वह ठीक हो जाता है।

विभिन्न कार्यों की सिद्धि-के-लिए विभिन्न मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। पुत्र प्राप्ति, धन प्राप्ति, यश-प्राप्ति, वशीकरण इत्यादि न जाने कितने कार्यों के लिए मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। कुछ लोग दूसरों का अहित करने के लिए भी मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। मूठ फेंकने की कई कहानियाँ मैंने सुनी हैं। कई लोगों ऐसा दावा करते हैं कि उन्होंने मूठ को उड़ते हुए भी देखा है।

इधर कुछ लोग झाड़-फूंक, रुद्राक्ष, मूंगे तथा तंत्र-मंत्र के वैज्ञानिक आधार खोजने का प्रयत्न भी कर रहे हैं। उनकी मान्यता है कि झाड़-फूंक करने पर रोगी के शरीर के हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे रोगी स्वस्थ होने लगता है। रुद्राक्ष तथा मूंगे का प्रकाशीय प्रभाव होता है। इन्हें पहिनने से उन प्रकाश-किरण तथा तरंगों का इनके द्वारा अवशोषण हो जाता है, जो मानव शरीर के लिए हानिकारक हैं। मत्रों के संबंध में कहा जाता है कि उनके उच्चारण से एक विशेष प्रकार का वायुमण्डल / वातावरण तैयार हो जाता है, जो कर्म-वर्गणाओं पर भी प्रभाव डालता है। परमाणु में बहुत शक्ति है। अतः यदि मन्त्रों को विशेष ध्वनियों / बीजाक्षरों का सही-सही उच्चारण किया जाए तो निश्चित रूप से वातावरण को बदला जा सकता है।

यदि उपर्युक्त बातों को सही मानें तो ये निष्कर्ष सामने आते हैं-

(1) टोना, टोटका, रुद्राक्ष, मूंगा आदि स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं।

(2) मन्त्रों में शक्ति होती है तथा वे मानव जीवन में परिवर्तन लाने में समर्थ हैं।

(3) शकुन-अपशकुन कार्य सिद्ध होने या न होने की पूर्व सूचना देते हैं।

अब हम दूसरे पक्ष की ओर ध्यान देते हैं। मन्त्रों की क्षमता के बारे में कविवर दौलतरामजी कहते हैं: ‘मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावें कोई।’ कई अन्य विद्वानों ने भी मंत्र-तंत्र आदि को विशेष महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि उनका मानना है कि जो कर्म हमने बाँधे हैं, उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा। एक कवि लिखते हैं: ‘कर्म लिखी सोई होय, मिटत नहि मैटे तै’।

हिन्दी के महान् साहित्यकार तथा विचारक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से सभी लोग भली-भांति परिचित हैं। उन्होंने ‘भारत- दुर्दशा’ नामक नाटक लिखा है, जिसमें उन्होंने बताया है कि भारत की दुर्दशा के मुख्य कारण यहाँ व्याप्त आलस्य, रोग, तथा अंधकार हैं; यहाँ ‘अंधकार’ से उनका तात्पर्य जादू-टोना, मंत्र-तंत्र आदि से ही है। भारतवासी अंधविश्वासी हो कर इन सबके चक्कर में बुरी तरह फँसे रहते हैं तथा उन्हें सत्यता का भान तक नहीं हो पाता है। भारत दुर्दशा का एक मुख्य कारण यही है। बहुत से अन्य विद्वानों ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं।

एक दिलचस्प बात और यह है कि जो लोग शकुन-अपशकुन, जादू-टोना या मंत्र तंत्र में विश्वास नहीं करते वे कहीं अधिक सुख-शान्ति से जीवन बिताते हैं। भारत में कई जातियां है जो विवाह शादी जैसे अवसरों पर भी किसी तिथि, या दिन का विचार नहीं करती हैं तथा सुखमय जीवन बिताती हैं। दिशाशूल तो आजकल विल्कुल व्यर्थ की बात लगती है। हर रोज हर दिशा में रेल गाड़ियां / बसें चलती हैं तथा लाखों यात्री सफर करते है। क्या इन पर दिशाशूल कोई असर नहीं डालता है?

यहाँ हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-

(1) मंत्र आदि किसी की मृत्यु टालने में सहायक नहीं हैं।

(2) जैसे कर्म बाँधे हैं, वैसा ही उनका फल भोगना होगा।

(3) जो लोग जादू-टोने तथा मंत्र-तंत्र में विश्वास रखते हैं, वे अंधविश्वासी हैं, अंधकार में हैं, सत्य से कोसों दूर है।

(4) जो लोग टोने-टोटके, शकुन-अपशकुन या मंत्र-तंत्र को नहीं मानते हैं, वे भी निष्कण्टक रहते हैं। सामान्यतया उन्हें स्वस्थ ही पाया जाता है।

जैन दृष्टि

जादू, टोना, टोटका तथा मंत्र-तंत्र के समर्थन तथा विरोध दोनों पक्षों पर विचार करने के बाद कोई भी असमंजस में पड़ सकता है; अतः इसके स्पष्टीकरण के लिए हमें इन सब बातों को जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में भी देखना चाहिये।

जैन साहित्य में कई मंत्र तथा स्तोत्र मिलते हैं। ‘णमोकार मंत्र’ को महामंत्र माना गया है। और भी कई मंत्र तथा स्तोत्र हैं। इन सबमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार, भगवान् आदिनाथ या/ तथा अन्य तीर्थंकरों का गुणानुवाद है। यदि सच्चे मन से इनका पाठ किया जाए तो ये मोक्षमार्ग में सहायक सिद्ध होते हैं। सामान्यतः लोग इन्हें लौकिक सुख की प्राप्ति के लिए ही काम में लाते हैं। इस मत्रों के कई यंत्र भी बनाये गये हैं। मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से इनका चिंतन-मनन उचित है, लेकिन लौकिक सुख की प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग गलत है। इससे अशुभ कर्म का बंध होता है। जो दवा रोगी को ठीक करने के काम आती है, गलत प्रयोग से वही दवा स्वस्थ मनुष्य के लिए जहर का काम करती है।

जैसे गेहूँ की खेती करने वाले को भूसा अपने से ही मिल जाता है, वैसे ही मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से कोई भी कार्य किया जाए उसमें लौकिक सुख स्वयमेव मिल जाते हैं। कोई भी व्यक्ति भूसा पाने के उद्देश्य से खेती नहीं करता, जो ऐसा करता है उसे मूर्ख माना जायेगा। इसी प्रकार जो भी व्यक्ति लौकिक सुख पाने के उद्देश्य से मंत्र-पाठ आदि करता है, वह मूर्ख है तथा पाप का बंध करता है। वैसे भी जैन धर्म में लौकिक सुख पाने के लिए किसी कार्य-विशेष को करने का कोई प्रावधान नहीं है। इस प्रकार का कुछ साहित्य यदि मिल भी जाए तो उसे जैन का अविभाज्य अंग नहीं मानना चाहिये।

बहुत से लोग कार्य-सिद्धि के लिए पशुबलि, नरबलि तक देते हैं। यह साक्षात् हिंसा है तथा जीवन को नरक बनाने वाली हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से जादू-टोना, तंत्र-मंत्र आदि का प्रयोग करता है तो वह अधम है तथा आर्त-रौद्र परिणामी है। आजकल सामान्यतया लोग धन प्राप्ति के उद्देश्य से ही तंत्र-मंत्र का उपयोग करते हैं। जैन धर्म में इनके लिए कोई स्थान नहीं है। परिग्रह पांच पापों में से एक है; अतः उसके लिए किया गया कोई भी उद्यम पाप-बंध का कारण है।

जैन साहित्य में कहीं भी जादू-टोनों या टोटकों का उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने टोनों-टोटकों या झाड़-फूंक का जीवन में कोई स्थान नहीं माना है। कुछ लोग विभिन्न कार्यों की सिद्धि के लिए देवी-देवताओं का आह्वान तथा स्तुति-गान करते हैं, लेकिन यह भी मिथ्या कृत्य है तथा जैनधर्म की अन्तरात्मा से इसका कोई सरोकार नहीं है।

जैनधर्म के अनुसार किसी भी कार्य की सिद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अनुकूलता होने पर ही होती है। यहाँ भावों की मुख्यता है। भावों को व्यक्ति के विचारों से, उसके विश्वास से जोड़ा जा सकता है। व्यक्ति के मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है/ पड़ सकता है, यह सामान्य अवधारणा है। किसी रोगी का अच्छे डॉक्टर द्वारा अच्छे से अच्छा उपचार कराया जाए, लेकिन यदि उसे उस डॉक्टर पर श्रद्धा या विश्वास नहीं है तो देखा गया है कि रोगी पर उसकी दवा कम असर करती है। दूसरी ओर यदि किसी रोगी को किसी डॉक्टर विशेष पर विश्वास है तो डॉक्टर के नब्ज पकड़ने ही वह अपने को कुछ हल्का महसूस करने लगता है। किसी व्यक्ति की कार्य-सिद्धि भले ही अन्य कारणों से हुई हो, लेकिन यदि वह झाड़-फूंक, टोने-टोटके, या जन्तर-मन्तर के उपचार में विश्वास रखता है तो वह यही मानेगा कि उसकी कार्य-सिद्धि इन्हीं कारणों से हुई है।

महाकवि तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में लिखा है ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’। वास्तविकता यही है। झाड़-फूंक, नीम, रुद्राक्ष, तथा मूंगा आदि प्राकृतिक उपचार हो सकते हैं, लेकिन हमारी समझ में किसी को भी टोने-टोटके तथा मंत्र-तंत्र के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये, इससे व्यक्ति के विचार संकुचित हो जाते हैं और उसका पुरुषार्थ घट जाता है।

प्रेत-बाधा

जहाँ देश एक ओर इक्कीसवीं सदी में गगनयान मिशन एवं डिजिटल रूप से सशक्त होने की और अग्रसर है, वहाँ दूसरी ओर अनेक भारतवासी आज भी प्रेत-बाधा के चक्कर पड़े हुए हैं। विज्ञान के इस युग में प्रेत-बाधा का जिक्र हास्यास्पद लगता है; लेकिन चूंकि आज भी बहुत सारे जैन इस प्रेत-बाधा जैसे अंधविश्वास के शिकार हैं, अतः इस मुद्दे पर विचार करना प्रासंगिक लगता है।

मुझे कुछ अतिशय तीर्थ क्षेत्रों पर जाने के कई अवसर मिले हैं। मैं यहाँ मुख्यतः दो अतिशय क्षेत्रों की ही बात करूंगा। ये क्षेत्र जयपुर के निकट पद्मपुरा तथा अलवर के निकट तिजारा। इन क्षेत्रों में ऐसी कई औरतों को देखा जा सकता है, जिनके सिर के बाल बिखरे रहते हैं तथा जो भगवान् की अतिशय-युक्त प्रतिमा के आगे बैठ कर बहुत तेजी से सिर हिलाती रहती हैं। पूछने पर पता चला कि इनके सिर पर (तीर्थंकर) भगवान् की सवारी आती है। यह जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि सिद्धशिला में विराजमान हमारे भगवान् अपने भक्तों के सिर पर ‘सवारी’ ले कर क्यों आते हैं? मेरे विचार में धर्म का यह अतिविकृत रूप है। सही मायनों में ऐसे लोग जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की जड़ें काटने में लगे हुए हैं। हमने अतिशय क्षेत्रों को तमाशा-घर (नाटक-घर) बना दिया है। लोगों का विश्वास है कि जिन लोगों को प्रेत-बाधा होती है यदि वे इन अतिशय क्षेत्रों में आयें तो ‘भगवान् की सवारी’ के सिर पर आने से प्रेत बाधा दूर हो जाती है। हमें यहाँ यह तो विचार करना ही चाहिये कि आखिर ये ‘प्रेत’ क्या हैं तथा ये लोगों को तंग क्यों करते हैं?

कुछ लोगों का मानना है कि घर के बुजुर्ग लोग मृत्युपरान्त, या वे लोग जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, प्रेत-योनि में जन्म लेते हैं। यह मिथ्या धारणा है। क्या हमारे पुरखों ने इतने पाप किये हैं कि उन्हें इस योनि में जन्म लेना पड़ा है? आखिर ये अपने ही लोगों को क्यों सताते हैं?

जैन धर्मानुसार चार गतियों में से एक देवगति है। देवों के चार प्रकार हैं- कल्पवासी, भवनवासी, ज्योतिष तथा व्यन्तर। व्यन्तर देव अति निम्नकोटि के सामान्यतः खाली-पुराने भवनों, जंगलों तथा निर्जन-विजन स्थानों में रहते हैं। ये वैक्रियक ऋद्धि के धारक होते हैं तथा सामान्यतया इन्हें देखा नहीं जा सकता है। इसके बावजूद भी ये हीन, संहनन के धारी होते हैं तथा मनुष्यों से डरते भी हैं। इन्हें ही भूत-प्रेत आदि नामों से जाना जाता है।

व्यन्तर योनि में जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वभव में दुष्ट प्रवृत्ति का रहा होता है। तमाम खोटे कार्य इसने किये होते हैं, अतः इस योनि में आने के बाद भी उसकी प्रवृत्ति विकृत ही बनी रहती है। अतः मौका पाते ही ये सामान्य जन को हानि भी पहुंचाते हैं। लेकिन, भूत-प्रेतों के जैसे किस्से सुनते हैं तथा प्रेत-बाधा दूर करने जो करिश्मे सुनते हैं, वे सब गलत हैं। सामान्यतः ये व्यंतर-जन किसी से कुछ भी नहीं कहते है, चुपचाप अपनी जिन्दगी बसर करते हैं।

भूत-प्रेतों के बारे में एक बात मशहूर है कि ये सबको नहीं सताते हैं, बल्कि उन्हें सताते हैं जिन्हें अधिक डर लगता है, या जिनके दिल कमजोर होते हैं। ये भी लोगों को पहले से ही भाँप लेते हैं कि वे उन पर हावी हो सकते हैं या नहीं। अन्य, शब्दों में, जो लोग इनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं, या अधिक सोचते हैं, या इनकी शक्ति को मानव-शक्ति की तुलना में अधिक मानते हैं, उन्हें ही ये सताते हैं। दूसरी ओर, जो लोग इनके अस्तित्व को नहीं मानते, उनके बारे में आज तक यह नहीं सुना गया है कि किसी भूत ने उन्हें सताया है।

जिस तरह कुत्ता, बिल्ली, गाय, मनुष्य आदि योनियाँ हैं; उसी तरह भूत, प्रेत, या व्यन्तर योनियाँ भी हैं। यदि हम किसी कुत्ते, गाय, या मनुष्य को नित्य प्रति भोजन करायें, उसे उचित सम्मान दें तो वह प्रतिदिन हमारे घर आयेगा; और यदि हम किसी व्यक्ति को बहुत विद्वान्, अपने से अधिक शक्ति वाला या भगवान् का अवतार मानें तो निश्चित रूप से वह हम पर पूरी तरह हावी हो जाएगा तथा हमें अपने इशारों पर नचाने लगेगा। और यदि हम उस व्यक्ति को बुरा-भला कहें, उसे अपशब्द कहें, या मारें या यों कहें कि उसे कोई ‘लिफ्ट’ न दें तो वह व्यक्ति दुबारा हमारे घर कभी नहीं आयेगा। यही स्थिति भूत, प्रेत या व्यन्तरों की है। जो व्यक्ति उनसे डरता है, उनकी शक्ति को अपनी शक्ति से ज्यादा आँकता है, या फिर उन्हें भगवान् का ही एक रूप मान कर उन्हें पूजता है, तो वह प्रेत बार-बार उस व्यक्ति के घर आने की इच्छा रखता है; लेकिन दूसरी ओर जो प्रेत-की-शक्ति को अपनी शक्ति से कम मानता है तथा उसे कोई लिफ्ट नहीं देता है, उसके पास ये प्रेत भी नहीं आते हैं। वस्तुतः प्रेत मनुष्यों से डरते हैं, हीन संहनन वाले होते हैं, तथा मनुष्यों से इनकी शक्ति बहुत कम होती है। ये सज्जन तथा धर्मात्मा पुरुषों के निकट आने में संकोच करते हैं; अतः किसी को भी इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है।

डॉ अनिल कुमार जैन
बापूनगर, जयपुर

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