श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

तेलंगाना जहाँ जैन धर्म की जड़ें मजबूती से जमीं हैं

दक्षिण भारत में जैन धर्म की उपस्थिती के बारे में प्रायः अधिकांश लोगों को समुचित जानकारी नहीं है। दक्षिण के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि सभी जगह जैन धर्म का पूर्व में बहुत अधिक विस्तार रहा है। आज भी वहाँ के जैन मंदिर और मूर्तियाँ बेमिसाल सुंदरता की छटा बिखेर रही हैं। प्रस्तुत लेख में हम तेलंगाना की ऐसी ही कुछ मूर्तियों और मंदिरों के बारे में जानकारी दे रहे हैं।

ऐतिहासिक संदर्भ तेलंगाना, जो बड़े दक्कन पठार का हिस्सा है, का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से है। यह क्षेत्र मौर्य, सातवाहन, इक्ष्वाकु और वाकाटक सहित विभिन्न राजवंशों से प्रभावित था। इन राजवंशों ने शाही संरक्षण, व्यापार और सांस्कृतिक आदानप्रदान के माध्यम से जैनधर्म और बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्राचीन तेलंगाना में जैन धर्मउत्पत्ति और प्रारंभिक प्रसार

६वीं शताब्दी ईसा पूर्व में वर्धमान महावीर द्वारा स्थापित जैन धर्म ने अहिंसा, सत्य और तप पर जोर दिया। प्रारंभिक जैन भिक्षुओं के प्रयासों और स्थानीय शासकों के संरक्षण के माध्यम से इसे तेलंगाना में प्रमुखता मिली। तेलंगाना में जैन धर्म के प्रसार का पता मौर्यकाल से लगाया जा सकता है, विशेष रूप से सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान, जिन्होंने जैन और बौद्ध शिक्षाओं को बढ़ावा दिया।

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की भूमि सदियों से जैन धर्म की पवित्र धारा से समृद्ध रही है। जैन धर्म का इतिहास यहाँ प्राचीन और गौरवपूर्ण रहा है, और यह भूमि सदियों से जैन धर्म की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनी हुई है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में जैन धर्म के कई महत्त्वपूर्ण स्थल, अभिलेख और मंदिर स्थित हैं, जो इसके गहरे प्रभाव का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। अगर हम इसके इतिहास पर नजर डालें, तो यह क्षेत्र जैन धर्म के महान साधकों, तीर्थंकरों और आचार्यों की कर्मभूमि रहा है। हालांकि, समय के साथ यहाँ जैन धर्म का पतन हुआ और अब इसकी पहचान कुछ स्थानों पर ही सीमित रह गई है। १२वीं सदी का प्रमुख ग्रंथ थर्मामृतबताता है कि १२वें तीर्थंकर वासुपूज्य के समय से ही आंध्र प्रदेश में जैन धर्म का प्रसार हो चुका था। परंपरागत रूप से कहा जाता है कि अंग देश के राजा ने अपने तीन पुत्रों के साथ आंध्र प्रदेश के वेंगी क्षेत्र में आकर जैन धर्म को स्वीकार किया और भट्टिप्रोलू नामक शहर की स्थापना की। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जैन धर्म का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व मौर्य सम्राट अशोक के समय तक जाता है, जिन्होंने जैन धर्म को बढ़ावा दिया। सातवाहन शासकों के शासनकाल में आंध्र प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा जैन धर्म के प्रभाव में था। सातवाहन राजाओं ने भी जैन धर्म का समर्थन किया और उनके सिक्कों पर जैन प्रतीकों का अंकन उनके समर्थन का प्रतीक है। सम्राट अशोक के पोते सम्मति ने आंध्र प्रदेश में जैन धर्म का प्रसार किया था, और खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में भी जैन धर्म के प्रभाव का प्रमाण मिलता है।

इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार का विशेष श्रेय दिगंबर जैन मुनियों को जाता है, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। प्राचीनकाल में जैन धर्म का गहरा प्रभाव व्यापारी वर्ग और शासकों के बीच था। कोंडापल्ली, विजयवाड़ा, और करीमनगर जैसे स्थानों पर आज भी जैन गुफाएँ और मंदिर इस धर्म के ऐतिहासिक स्थलों के प्रमाण स्वरूप मौजूद हैं, विशेष रूप से करीमनगर जिले में सातवाहन काल के सिक्के और शिलालेख जैन धर्म के समर्थन का संकेत देते हैं।

प्राचीन जैन मंदिर कोलानुपक (कुलपाकजी), तेलंगाना

तेलंगाना में कई धर्म फलेफूले हैं, और जैन धर्म भी उन्ही में से एक है। यदि आप जैन विरासत के वैभव को देखना चाहते हैं, तो यहाँ महावीर मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। तेलंगाना में एलर शहर के करीब दो हजार साल पुराने मंदिर में जैन देवताओं, भगवान ऋषभनाथ, भगवान नेमिनाथ और भगवान महावीर की तीन मूर्तियाँ हैं। तेलंगाना के ही यादाद्री भुवनगिरी जिले के कोलानुपक गाँव में एक ऐतिहासिक जैन मंदिर भी स्थित है जिसे कुलपाकजी के नाम से भी जाना जाता है। कोलानुपक को अतीत में बिंबवतीपुरम, कोट्टियापाका, कोलिहाका, कोलिपाका और कोलनपाक जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता था।

कुलपाकजी मंदिर, भारत के तेलंगाना राज्य के कोलानुपक गाँव में स्थित एक प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल है। यह दक्षिण भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण जैन मंदिरों में से एक है और जैन समुदाय के लिए ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व रखता है।

कुलपाकजी मंदिर का इतिहास २,००० साल से भी अधिक पुराना है। इसका निर्माण दूसरी शताब्दी ईस्वी (सामान्य युग) के दौरान किया गया था। यह जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को समर्पित है।

यह मंदिर अपनी उत्कृष्ट वास्तुकला और जटिल पत्थर की नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। यह पारंपरिक जैन स्थापत्य शैली का अनुसरण करता है, जिसकी विशेषता बड़े पैमाने पर सजाए गए खंभे, मेहराब और जैन तीर्थंकरों और देवताओं की अलंकृत मूर्तियाँ हैं। मंदिर की वास्तुकला चालुक्य शैली को प्रतिबिंबित करती है, जिसमें जैन और हिंदू दोनों कलात्मक परंपराओं का प्रभाव है।

कुलपाकजी मंदिर की सबसे उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक भगवान आदिनाथ की ५२ इंच ऊँची भव्य मूर्ति है, जो जेड के एक टुकड़े से बनाई गई है। यहाँ भगवान महावीर की १५०० वर्ष पुरानी मूर्ति स्थापित है, जो इस धर्म की प्राचीनता को प्रमाणित करती है।

सदियों से, कुलपाकजी मंदिर की वास्तुकला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए कई नवीकरण और पुनर्स्थापन हुए हैं। मंदिर की संरचनात्मक स्थिरता सुनिश्चित करते हुए इसकी  ऐतिहासिक अखंडता को बनाए रखने का प्रयास किया गया है।

भूलेबिसरे जैन स्थल और अवशेष तेलंगाना के करीमनगर जिले के बोम्मालगुट्टा पर वीं शताब्दी का शिलालेख मिला है, जिसमें तीर्थंकरों और जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी देवी की मूर्तियों का उल्लेख है। इसके अलावा, अदोनी की गुफाएँ भी जैन मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध रही हैं। पेनकोंडा का अजितनाथ दिगंबर जैन मंदिर विजयनगर साम्राज्य की कला का एक अद्भुत उदाहरण है। रामतीर्थम, जो आंध्र प्रदेश के विजयनगरम जिले में स्थित है, एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है। यह क्षेत्र न केवल बौद्ध धर्म के लिए, बल्कि जैन धर्म के लिए भी महत्त्वपूर्ण रहा है। यहाँ की पहाड़ियों और गुफाओं में जैन मूर्तियाँ और शिलालेख पाए गए हैं, जो इस क्षेत्र में जैन धर्म के गहरे इतिहास को दर्शाते हैं। करीमनगर जिले के मल्लारम गाँव में ८५० साल पुराना जैन शिलालेख मिला है, जिसमें तेलंगाना क्षेत्र के अंतिम जैन मंदिर का उल्लेख है। शिलालेख में जैन धर्म के पतन और वीर शैवमत के उदय का वर्णन मिलता है। मोइनाबाद मंडल के एनिकेपल्ली गाँव में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और प्राचीन शिलालेख मिले हैं। पुरातत्त्वविद एन. सिवानागी रेड्डी के अनुसार, यहाँ के स्तंभों पर आदिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की मूर्तियाँ ध्यान की मुद्रा में अंकित हैं।

प्राचीन जैन शिलालेख और स्थान आंध्र प्रदेश के गुम्मडिडुरू में मिला २वीं शताब्दी ईसा पूर्व का शिलालेख तेलुगु क्षेत्र में जैन धर्म के प्रारंभिक प्रसार का प्रमाण है। तेलंगाना के बोम्मलगुट्टा में ६४५ ईस्वी का शिलालेख जिनवल्लभ द्वारा बनवाया गया था, जो तेलुगु काव्य के प्रारंभिक उदाहरणों में से एक है।

तेलंगाना के विकाराबाद जिले में १००० साल पुरानी जैन मूर्तियां खोजी गईतेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के पास एक गाँव में १००० साल पुरानी जैन मूर्तियाँ खोजी गईं।

हैदराबाद के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् और प्लीच इंडिया फाउंडेशन की सीईओ एमानी शिवनगी रेड्डी ने विकाराबाद जिले के पुदुर मंडल के कंकल गाँव में प्राचीन मूर्तियों के खजाने की पहचान की है। बादामी चालुक्य, राष्ट्रकूट, कल्याणी चालुक्य और काकतीय राजवंशों की ये मूर्तियाँ इस क्षेत्र की समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं।

हाल ही में कंकल की यात्रा के दौरान रेड्डी ने गणेशालयम, शिव मंदिर और गाँव के विभिन्न स्थानों पर बिखरी ५० से अधिक अनूठी मूर्तियों को खोजा। खोज की गई मूर्तियों में से कुछ इस प्रकार हैं

८वीं शताब्दी के बादामी चालुक्य काल की गणेश और नंदी मूर्तियाँ, नवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट काल की पार्श्वनाथ, महावीर, यक्ष और यक्षिणी की जैन मूर्तियाँ, ११वीं शताब्दी के कल्याणी चालुक्य काल के नाग देवता, काकतीय काल की सप्तमातृका मूर्तियाँ और नायक पत्थर

राष्ट्रकूट काल में जैन धर्म का उत्कर्ष हुआ, विशेषकर अमोघवर्ष जैसे शासकों के संरक्षण में। राष्ट्रकूटों के सामंत, खासकर वेमुलावाडा के चालुक्यों ने जैन धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूर्वी चालुक्यों के राजा अम्मा द्वितीय ने भी जैन मंदिरों का निर्माण कर धर्म को प्रोत्साहित किया। इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार दाडिगा और माधव द्वारा स्थापित गंगा साम्राज्य जैन धर्म के उत्कर्ष का प्रतीक था।

चालुक्य राजा पुलकेसी के शासनकाल तक कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में जैन धर्म का वर्चस्व बना रहा। सोमदेवसूरी जैसे जैन आचार्यों ने तेलंगाना क्षेत्र में जैन धर्म का विस्तार किया। विजयवाड़ा और पूर्वी चालुक्य राजाओं ने भी जैन धर्म को समर्थन दिया। हालांकि जैन धर्म का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव धीरेधीरे कम होता गया, लेकिन इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर आज भी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कई हिस्सों में जीवित है। जैन धर्म की शिक्षाएँ, विशेष रूप से अहिंसा और सत्य, इस क्षेत्र की संस्कृति में गहराई से समाहित हो गई हैं।

कुंदकुंद आचार्य कुंदकुंदाचार्य का संबंध आंध्र प्रदेश के कृष्णा क्षेत्र से था और उनका नाम प्राचीन ग्रंथों में पद्मनंदीके रूप में दर्ज है। कुंदकुंद आचार्य, जो कि प्रथम सदी के महान जैन विद्वान थे। वह जैन धर्म के प्रसार के लिए जाने जाते हैं, जैन ग्रंथों में उनका उल्लेख व्यापक रूप से मिलता है और उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं। कुंदकुंदाचार्य, जिन्हें कई इतिहासकारों द्वारा तिरुवल्लुवर के नाम से भी जाना जाता है, इनकी जन्मस्थली आंध्र प्रदेश के कोनाकोंडला गाँव में स्थित है। कोनाकोंडला गाँव आंध्र प्रदेश और कर्नाटक की सीमा पर स्थित है। यह स्थान आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में स्थित है, और इसका धार्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व बहुत अधिक है। यह स्थान जैन समुदाय के लिए अत्यंत पवित्र है, जो लगभग १०० हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। दुर्भाग्यवश, इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल पर अतिक्रमण हो चुका है, और गैरजैन धार्मिक गतिविधियों ने यहाँ अपनी जगह बना ली है। गाँव में तीर्थंकरों और जंबूद्वीप चक्र पर गैरजैन धर्म के लोगों ने कब्जा कर लिया है। इसके अलावा, इस क्षेत्र में पत्थर खनन भी हो रहा है, जिससे इस धार्मिक धरोहर को गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है। जंबूद्वीप चक्र जैन धर्म की खगोलीय धारणाओं का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह स्थान कुंदकुंदाचार्य से जुड़ा है, जो जैन धर्म के प्रमुख आचार्यों में से एक थे। इस स्थान की ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता को कई अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने भी पहचाना था।

काकतीय साम्राज्य और जैन धर्म का पतन

काकतीय वंश के प्रारंभिक शासकों ने भी जैन धर्म को संरक्षण दिया। वारंगल क्षेत्र में जैन मंदिरों और स्थापत्य कला के अद्भुत उदाहरण मिलते हैं। हालांकि, काकतीय राजा गणपति देव के शासनकाल में जैन धर्म के खिलाफ अभियान चलाए गए, जिससे जैन धर्म का प्रभाव कम हुआ। १२वीं और १३वीं सदी के दौरान, गणपतिदेव के शासनकाल में जैन अनुयायियों पर कठोर अत्याचार किए गए। महबूबनगर जिले के पुदुर में मिले शिलालेखों से पता चलता है कि इस समय धार्मिक असहिष्णुता का कहर जैन धर्म पर टूटा, जिससे इसका पतन हो गया। मल्लिकार्जुन पंडिताराध्य, जो जैन धर्म के खिलाफ अभियान चला रहे थे, ने जैन धर्म के पतन को और तेज किया। इसके अलावा, चोल शासक राजेंद्र प्रथम ने आंध्र प्रदेश में जैन मंदिरों को ध्वस्त कर जैन धर्म और उसकी संस्कृति को भारी क्षति पहुँचाई। जैन धर्म के पतन के कई कारण थे, जैसे बौद्ध धर्म का उदय, शैव और वैष्णव परंपराओं का पुनरुत्थान और मुस्लिम आक्रमण। शैव और वीरशैव आंदोलनों ने जैन धर्म पर गहरा प्रभाव डाला, जिससे कई जैन मंदिरों का रूपांतरण हिंदू मंदिरों में हो गया। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जैन धर्म का इतिहास भले ही एक समय के बाद पतन की ओर चला गया हो, परंतु इसकी धरोहर और प्रभाव आज भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

आंध्र प्रदेश में जैन धर्म : धरोहर, प्रभाव और पुनर्स्थापना की उम्मीद

जैन धर्म की शिक्षाओं, विशेष रूप से अहिंसा और सत्य का आंध्र प्रदेश के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में गहरा प्रभाव पड़ा है। आंध्र प्रदेश की संस्कृति और समाज को जैन धर्म ने कई स्तरों पर प्रभावित किया। हालांकि समय के साथ हिंदू धर्म और शैव परंपराओं के बढ़ते प्रभाव के कारण जैन धर्म की उपस्थिति कमजोर हो गई , लेकिन विरासत और अनुयायी अब भी इस प्राचीन धर्म की स्मृति को संजोए हुए हैं।

आंध्र प्रदेश में कई ऐसे स्थान हैं, जिनका नाम पडुसे शुरू होता है, जो कभी जैन धर्म के प्रमुख केंद्र थे। आंध्र प्रदेश के कई गाँवों में जैनबावुलुनामक कुएँ आज भी जैन धर्म की समृद्ध विरासत की झलक दिखाते हैं। हालांकि समय के साथ इन स्थानों ने अपनी पहचान खो दी, लेकिन यह उम्मीद बनी हुई है कि आंध्र प्रदेश की भूमि पर जैन धर्म एक बार फिर अपने पुराने गौरव को प्राप्त कर सकता है।

यह समय है कि जैन समुदाय इस संकट को गंभीरता से ले और अपनी धरोहर की रक्षा के लिए जागरुकता फैलाए। जैन धर्म के अनुयायियों को एकजुट होकर इस महत्त्वपूर्ण स्थल को बचाने के प्रयास करने होंगे। जैन धर्म की इस अनमोल धरोहर को संरक्षित करना हमारी जिम्मेदारी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल की महत्ता को समझ सकें।

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जैन धर्म का इतिहास गहरा और विविधतापूर्ण है। विभिन्न राजवंशों के संरक्षण और समर्थन से जैन धर्म का यहाँ व्यापक प्रसार हुआ, लेकिन समय के साथ धार्मिक असहिष्णुता और अन्य धर्मों के आगमन के कारण जैन धर्म कमजोर होता गया। फिर भी, यहाँ के जैन स्थल आज भी उस समय की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए हैं।

कुलपाकजी मंदिर भारत के दक्कन क्षेत्र में समृद्ध जैन विरासत और इतिहास के प्रमाण के रूप में खड़ा है। इसे भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित विरासत स्थल के रूप में भी मान्यता दी गई है। कुल मिलाकर, कुलपाकजी मंदिर केवल एक पूजास्थल है, बल्कि एक वास्तुशिल्प चमत्कार और दक्षिण भारत में जैन संस्कृति और अध्यात्मिकता के संरक्षण का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र भी है। अपने ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व की वजह से प्राचीन जैन मंदिर कोलानुपक (कुलपाकजी) भगवान महावीर स्वामी की विशाल मूर्ति में रुचि रखने वाले आगंतुकों और भक्तों को आकर्षित करता रहता है।

प्रोफेसर(डा.) लक्ष्मी चन्द्र जैन

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