प्रिय साधकजनों,
आज हम जैन धर्म के 9 तत्वों में से एक अत्यंत प्रिय तत्व पर चर्चा करेंगे – पुण्य तत्व।
नाम सुनते ही मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ती है – पुण्य यानी सुख, पुण्य यानी पूजा, दान, उपवास, जप-तप…!
परंतु आज हम जानेंगे – पुण्य वास्तव में क्या है?
क्या वह केवल अच्छे कार्यों का नाम है?
क्या वह केवल भविष्य के सुख की गारंटी है?
नहीं, पुण्य केवल कर्मों का जोड़ नहीं, यह आत्मा की सुगंध है, यह शुभ भावों की वर्षा है।
1. पुण्य क्या है? – शुभ भावों का आकर्षक कर्म
पुण्य का अर्थ है –
जब आत्मा में शुभ भाव आते हैं, करुणा, संयम, सेवा, परोपकार, त्याग, नम्रता के साथ किया गया हर कार्य –
उसी क्षण आत्मा पुण्य कर्म को बाँध लेती है।
पर ध्यान दें – पुण्य भी कर्म ही है, बंधन ही है।
लेकिन यह सुनहरा बंधन है – जैसे फूलों की डोरी, जो आत्मा को दुःख नहीं, सुख देती है।
2. पुण्य का बीजारोपण – कहाँ होता है पुण्य का अंकुर?
एक प्रसंग:
एक वृद्ध साधु ने एक बालक से कहा – “बेटा, पुण्य कैसे कमाया जाए?”
बालक ने मासूमियत से कहा – “किसी मंदिर में पैसे डाल दूँ?”
साधु बोले – “बिल्कुल! पर यदि वह पैसे श्रद्धा से डाले, तो पुण्य है।
अगर दिखावे से डाले, तो केवल खनक है – पुण्य नहीं।”
तो पुण्य का जन्म बाह्य कर्म से नहीं,
शुभ भावना से होता है।
3. पुण्य के प्रकार – पुण्य के सोने जैसे स्वरूप
जैन शास्त्र पुण्य को कई रूपों में बताते हैं:
1. दान पुण्य – किसी की जरूरत में काम आना।
अन्नदान, विद्यादान, अभयदान – ये पुण्य के रत्न हैं।
पर यदि दान में अहंकार जुड़ गया, तो वह पुण्य नहीं – पाखंड बन जाता है।
2. शील पुण्य – अपने आचरण से पुण्य।
सत्य बोलना, किसी को पीड़ा न देना, अपने व्रतों का पालन – यह पुण्य का मौन संगीत है।
3. तप पुण्य – आत्मा की साधना से पुण्य।
उपवास, एकासन, त्याग, साधु सेवा – यह पुण्य को आत्मा में निखारता है।
4. भक्ति पुण्य – सच्चे भावों से पूजा।
भगवान की भक्ति – पर केवल अगर वह दिखावे से नहीं, हृदय से हो।
4. पुण्य का फल – सुखद भविष्य का बीज
जब आत्मा पुण्य बांधती है, तो उसे सुखद अनुभव होते हैं –
अच्छा शरीर,
सुंदरता,
सम्मान,
धन,
अच्छे संस्कार,
सत्संग,
धर्म में रुचि,
और सबसे बड़ी बात – मोक्ष की पात्रता।
पर ध्यान रहे – पुण्य सुख देता है, पर मोक्ष नहीं देता।
मोक्ष के लिए पुण्य का उपयोग करके संवर और निर्जरा करनी होगी।
5. पुण्य की पहचान – चुपचाप किया गया पुण्य ही असली
भगवान महावीर के समकालीन एक व्यापारी था – बहुत पुण्यात्मा।
हर रोज 100 गरीबों को भोजन कराता था, पर कभी प्रचार नहीं करता।
एक बार किसी ने पूछा – “आप इतना पुण्य करते हो, पर कहीं दिखता नहीं!”
उसने हँसकर कहा – “पुण्य को दिखाओगे, तो वह दिखावा बन जाएगा।
जैसे दीपक हवा से छिपाया जाता है, पुण्य को भी प्रचार से छिपाना चाहिए।”
6. पुण्य का दुरुपयोग – सुख में मत उलझ जाना
अब एक सावधानी…
पुण्य से सुख मिलता है, और सुख से प्रमाद आता है।
और प्रमाद से बंधते हैं पाप।
बंदर के हाथ में तलवार हो, तो खतरा ही है…
वैसे ही पुण्य से मिली सुविधा – यदि विवेक से न चलाई जाए, तो पतन कर सकती है।
7. पुण्य की परम दिशा – पुण्य से परमार्थ
पुण्य कोई बैंक-बैलेंस नहीं कि बस जमा करते जाओ।
यह धर्म की साधना का साधन है – इसे उपयोग करो ध्यान, स्वाध्याय, व्रत, परमार्थ में।
पुण्य को पूँजी बनाकर आत्मा को ऋणी न बनाओ,
उसे साधना बनाकर निर्जरा की राह पर बढ़ो।
प्रेमभरे साथियों,
पुण्य वह दीपक है, जो जीवन की अंधेरी गली में भी प्रकाश देता है।
पर वह दीपक तब तक ही उपयोगी है, जब तक आत्मा जागृत है।
इसलिए – पुण्य करो, पर पुण्य में न उलझो।
शुभ भाव रखो, पर उससे मोह मत जोड़ो।
क्योंकि अंतिम लक्ष्य – मुक्ति है, मोक्ष है, और वहां पुण्य भी साथ नहीं जाएगा
वह केवल उस द्वार तक पहुंचाएगा।
क्रमश…
पारस मल जैन
जोधपुर