श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

श्वास कला: स्वर विज्ञान का महत्व और जैन धर्म में स्थान

श्वास कला, जिसे स्वर विज्ञान भी कहा जाता है, मानव शरीर के श्वसन तंत्र और श्वास की प्रक्रिया का अध्ययन है। यह प्राचीन
भारतीय विज्ञान योग और आयुर्वेद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। श्वास कला न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में
मदद करती है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन को भी प्रोत्साहित करती है।

स्वर विज्ञान का परिचय

स्वर विज्ञान का आधार यह मान्यता है कि श्वास मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण क्रियाओं में से एक है। यह विज्ञान इस पर
केंद्रित है कि कैसे श्वास का सही उपयोग शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित करता है। भारतीय शास्त्रों में  “स्वर”  का अर्थ है
श्वास का प्रवाह, और यह प्रवाह तीन नाड़ियों – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना – के माध्यम से होता है।
1. इड़ा नाड़ी – यह शरीर के बाईं ओर स्थित होती है और चंद्र ऊर्जा से जुड़ी होती है।
2. पिंगला नाड़ी – यह शरीर के दाईं ओर स्थित होती है और सूर्य ऊर्जा से जुड़ी होती है।
3. सुषुम्ना नाड़ी – यह मध्य में होती है और दोनों ऊर्जाओं के संतुलन के लिए कार्य करती है।

श्वास और स्वास्थ्य
श्वास कला में सही श्वास तकनीकों का अभ्यास करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
श्वास नियंत्रण: प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से श्वास को नियंत्रित करना तनाव को कम करता है और शरीर को शांति प्रदान करता है।
रोगों की रोकथाम: सही श्वास रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ाता है और श्वसन तंत्र को मजबूत बनाता है।
मानसिक शांति: धीमी और गहरी श्वास मस्तिष्क में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाती है, जिससे ध्यान और एकाग्रता में सुधार होता है।

स्वर विज्ञान का जैन धर्म में स्थान

जैन धर्म में स्वर विज्ञान का गहरा महत्व है, क्योंकि यह आत्मा की शुद्धि, ध्यान और मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग में सहायक है।
जैन धर्म का दर्शन शरीर, मन और आत्मा के संतुलन पर आधारित है, और स्वर विज्ञान इन्हीं तीनों का गहन अध्ययन और अभ्यास है।
1. स्वर और आत्मा का संबंध:
जैन दर्शन के अनुसार, श्वास आत्मा की शक्ति और चेतना का प्रतीक है। स्वर विज्ञान यह समझने में मदद करता है कि कैसेश्वास का सही प्रवाह शरीर और आत्मा के बीच संतुलन स्थापित करता है। शुद्ध श्वास का अभ्यास आत्मा को शुद्ध करता है।अशुद्ध श्वास अशांति और बंधन का कारण बनता है।

2. ध्यान और स्वर विज्ञान:
जैन धर्म में ध्यान (ध्यान योग) और तपस्या का महत्वपूर्ण स्थान है। इन क्रियाओं में स्वर विज्ञान का उपयोग किया जाता है: ध्यान के दौरान श्वास का सही नियंत्रण ध्यान की गहराई को बढ़ाता है। प्राणायाम और नाड़ी शोधन जैसी विधियां आंतरिक शुद्धि और मानसिक स्थिरता में सहायक होती हैं।

3. त्रिविध योग और स्वर:
जैन धर्म में शरीर, वाणी और मन के त्रिविध योग का महत्व है। स्वर विज्ञान इन तीनों को संतुलित करने का साधन है। शरीरके स्वास्थ्य के लिए सही श्वास। वाणी की शुद्धि के लिए शांत स्वर। मन की शांति के लिए गहरी और नियंत्रित श्वास।

जैन ग्रंथों में स्वर विज्ञान

जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में श्वास-प्रश्वास और स्वर का उल्लेख मिलता है।
1. उत्तराध्ययन सूत्र: इस ग्रंथ में आत्मा की शुद्धि और सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए श्वास को नियंत्रित करने की महत्ता पर बल दिया गया है।
2. आचारांग सूत्र: इस ग्रंथ में ध्यान और तपस्या के दौरान श्वास के प्रवाह को संतुलित रखने की विधियों का उल्लेख है।
3. तत्त्वार्थ सूत्र: इसमें कहा गया है कि स्वर और श्वास का सही उपयोग शरीर, मन और आत्मा के संतुलन में सहायक होता है।

जैन धर्म में स्वर के अनुसार कार्य

जैन धर्म के तपस्वी और साधक स्वर के अनुसार अपने कार्यों और साधनाओं का निर्धारण करते हैं।

इड़ा स्वर (चंद्र स्वर): यह स्वर शरीर के बाईं नासिका से प्रवाहित होता है और शांत, ठंडा और स्थिर ऊर्जा का प्रतीक है। उचित कार्य:शांति, ध्यान, और आत्मचिंतन के कार्य। जप, स्वाध्याय, और आध्यात्मिक अध्ययन।

पिंगला स्वर (सूर्य स्वर): यह स्वर शरीर के दाईं नासिका से प्रवाहित होता है और गर्म, सक्रिय और उग्र ऊर्जा का प्रतीक है। उचित कार्य: तपस्या, शारीरिक परिश्रम, और धर्म प्रचार। भोजन ग्रहण और दिनचर्या के सामान्य कार्य। शारीरिक परिश्रम, खेल-कूद, व्यायाम और व्यावसायिक कार्य। यात्रा, भोजन करना, और सामाजिक गतिविधियां।

सुषुम्ना स्वर: जब दोनों नासिकाएं समान रूप से सक्रिय हों, तो यह स्वर आध्यात्मिक उन्नति और संतुलन का प्रतीक है।
उचित कार्य: विशेष साधना, धर्म चर्चा, और आत्मा के गहन अध्ययन। संयम और तप का उच्चतम स्तर। स्वर विज्ञान और जैन
तपस्या, ध्यान, पूजा-पाठ, प्राणायाम, और गहन साधना।

जैन तपस्या में स्वर विज्ञान का महत्वपूर्ण उपयोग होता है।

1. अनशन और कायोत्सर्ग: स्वर विज्ञान का प्रयोग अनशन और तपस्या के दौरान ऊर्जा का संरक्षण करने में किया जाता है।
2. संयम और ध्यान: स्वर के माध्यम से संयमित श्वास ध्यान की अवधि और गुणवत्ता को बढ़ाता है।

स्वर असंतुलन और जैन समाधान

जैन धर्म के अनुसार, जब स्वर असंतुलित होता है, तो मन अशांत हो सकता है और ध्यान बाधित हो सकता है। इसके
समाधान के लिए:
1. ध्यान और प्राणायाम: श्वास को संतुलित करने के लिए नाड़ी शोधन और गहरी श्वास।
2. मौन तप: वाणी और स्वर को संयमित करके मानसिक स्थिरता प्राप्त करना।
3. समीकर्ण ध्यान: आत्मा और शरीर के संतुलन के लिए विशेष ध्यान की विधियां।

जैन धर्म और स्वर विज्ञान का गहरा संबंध ध्यान, तपस्या, और आत्मा की शुद्धि में है। श्वास की सही समझ और अभ्यास न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, बल्कि आत्मा को बंधनों से मुक्त करने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। जैन धर्म का स्वर विज्ञान यह सिखाता है कि श्वास को नियंत्रित करके जीवन के हर पहलू में संतुलन और सफलता प्राप्त की जा सकती है।

स्वर विज्ञान का योग में उपयोग

योग में श्वास कला का विशेष महत्व है। प्राणायाम, जिसमें श्वास को विशेष रूप से नियंत्रित किया जाता है, योग का एक प्रमुख हिस्सा है। कुछ प्रमुख प्राणायाम हैं:
1. नाड़ी शोधन प्राणायाम: नाड़ियों को शुद्ध करता है और मन को शांत करता है।
2. भस्त्रिका प्राणायाम: ऊर्जा बढ़ाने और फेफड़ों की क्षमता बढ़ाने में मदद करता है।
3. कपालभाति: शरीर से विषाक्त पदार्थों को निकालता है और मस्तिष्क को सक्रिय करता है।

आधुनिक विज्ञान और स्वर विज्ञान

आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है कि सही श्वास तकनीकें न केवल तनाव और अवसाद को कम करती हैं, बल्कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती हैं। कई शोधों में यह पाया गया है कि नियमित प्राणायाम और श्वास अभ्यास हृदय स्वास्थ्य, उच्च रक्तचाप और फेफड़ों की बीमारियों में लाभदायक होते हैं।

श्वास कला या स्वर विज्ञान केवल एक साधारण श्वास प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की एक कला है। यह हमारे शरीर, मन और आत्मा को संतुलन में लाने का मार्ग प्रदान करता है। नियमित अभ्यास और सही ज्ञान के माध्यम से इसे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाया जा सकता है।

“श्वास को समझें, जीवन को गहराई से जिएं।”

स्वर की पहचान की सरल विधियां और स्वर के अनुसार कार्य करने का समय

स्वर विज्ञान में यह माना गया है कि श्वास का प्रवाह (स्वर) हमारी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अवस्था पर गहरा प्रभाव डालता है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के सक्रिय होने के अनुसार कार्यों को करने का उचित समय चुना जा सकता है।

स्वर की पहचान की सरल विधियां

1. स्वास का निरीक्षण: अपनी हथेली को नाक के नीचे रखें और ध्यान दें कि किस नासिका से श्वास अधिक तीव्रता से बाहरआ रही है। यदि बाएं नासिका से श्वास का प्रवाह अधिक है, तो इड़ा नाड़ी सक्रिय है। यदि दाएं नासिका से श्वास का प्रवाह अधिक है, तो पिंगला नाड़ी सक्रिय है। दोनों नासिकाओं से समान रूप से श्वास का प्रवाह हो, तो सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है।
2. प्रत्येक दो घंटे पर परिवर्तन: सामान्यत: स्वर हर दो घंटे में बदलते हैं। यदि यह परिवर्तन नहीं हो रहा है, तो शरीर मेंअसंतुलन हो सकता है।
3. नींद के बाद निरीक्षण: सुबह उठते ही यह देखें कि कौन सी नासिका सक्रिय है। यह स्वाभाविक रूप से उस समय के लिए आपकी ऊर्जा प्रवृत्ति को दर्शाता है।

स्वर असंतुलन को ठीक करने की विधि

1. नासिकाओं को बदलने के लिए लेटने की स्थिति बदलें।

दाएं स्वर को सक्रिय करने के लिए बाईं करवट लें।
बाएं स्वर को सक्रिय करने के लिए दाईं करवट लें।

2. गहरी और धीमी श्वास लें।
3. प्राणायाम का अभ्यास करें, जैसे नाड़ी शोधन प्राणायाम।

स्वर विज्ञान का अभ्यास जीवन को संतुलित और समृद्ध बना सकता है। स्वर की पहचान और उसके अनुसार कार्य करना न
केवल हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुधारता है, बल्कि सफलता की संभावना भी बढ़ाता है।

एम.पी. जैन
सेवा सेवानिवृत्ति निदेशक सांख्यिकी

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