प्रायः प्रत्येक भारतीय दर्शन में प्राणी मात्र की सेवा को प्रमुख स्थान दिया गया है. प्रत्येक प्राणी की रक्षा करने को परम धर्म कहा गया है. कोई इसे परोपकार और दान के रूप में इसे प्रस्तुत करता है तो कोई दरिद्र नारायण की सेवा करने को ही साक्षात् भगवान की सेवा बतलाता है. सभी में भाव सेवा का ही झलकता है. प्रसिद्ध संत कवि नरसी मेहता का एक भजन है जो गाँधी जी को बहुत प्रिय था, उसमें वे कहते हैं – “वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाने रे, पर दुःखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न आणे रे.” रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास दूसरों की भलाई को सबसे अच्छा धर्म बतलाते हैं, वे लिखते हैं – ‘परहित सरस धरम नह भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई’. जैनाचार्यों ने श्रावकों के छह आवश्यक कर्म बताये हैं जिन्हें उनको प्रतिदिन करना चाहिए. उनमें से एक है दान. इसमें बताया गया है कि जो भूखा है उसे भोजन दें, जो निराश्रित है उसे आश्रय दें, जो बीमार है उसे औषधि उपलब्ध कराएँ, और जिसे शिक्षा की आवश्यकता है उसे शिक्षा उपलब्ध कराएँ.
दान और सेवा में थोड़ा अंतर है. दान में अभिमान आ सकता है, लेकिन सेवा में कर्तव्य परिलक्षित होता है. इसीलिए जैनाचार्यों ने एक बात और कही कि प्रत्येक प्राणी एक दूसरे पर उपकार करता है, इसलिए किसी को यह अभिमान नहीं होना चाहिए कि वह ही किसी का उपकार कर सकता है. यदि हम ठीक से विचार करें तो पाएंगे कि हम स्वयं दूसरों के उपकार के बिना अपना जीवन यापन नहीं कर सकते हैं.
कोई सोचता होगा की आज की तारीख में बिना पैसे के क्या हो सकता है, जिसके पास धन है वह ही किसी का उपकार कर सकता है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. यदि किसी के मन में परोपकार या सेवा की भावना है तो वह किसी भी प्रकार कर सकता है. कोई धन से सेवा कर सकता है तो कोई तन से. यदि आप संपन्न हैं तो दूसरे जरूरतमंद लोगों की आर्थिक मदद अवश्य करिए. लेकिन यदि आप संपन्न नहीं हैं तब भी आप सेवा तो कर ही सकते हैं. सेवा कई प्रकार से की जा सकती है, बस मन में सेवा की भावना होनी चाहिए. उसके लिए अपने आसपास के क्षेत्र में ही अच्छे से नजर दौड़ाने की जरुरत है.
मैं अपने जीवन का एक प्रसंग यहाँ बताना चाहूँगा. एक घटना 1960 के दशक की है. आगरा में ‘सरोजनी नायडू मेडिकल कॉलेज अस्पताल’ आगरा क्षेत्र का सबसे बड़ा अस्पताल है. यहाँ आसपास के हजारों मरीज प्रतिदिन आते हैं. हमारे मोहल्ले के निम्न मध्यम वर्गीय लगभग 70-72 वर्ष के एक बुजुर्ग श्री सूरजभान जैन ‘प्रेम’ रहते थे. फ़िल्मी गानों की तर्ज पर भजन बनाना उनका शौक था. उनके हम-उम्र के 6-7 लोगों का एक ग्रुप था जिसका नाम था ‘नागरिक सहायता समिति’. उनका एक मात्र कार्य था कि सुबह से ही अस्पताल में पहुँच जाते थे. वहाँ पर उन्होंने एक तखत (दीवान) लगा रखा था और अपने ग्रुप का एक बैनर टांग रखा था. अस्पताल बहुत बड़ा था, आसपास के गाँवों से अनेक लोग आते थे. उन्हें समझ में नहीं आता था कि कहाँ से परचा बनवाना है, किस डाक्टर के पास जाना है, कहाँ से दवाई लेनी हैं. वे लोग भारी भीड़ में इधर-उधर भटकते रहते थे. समिति के लोग ऐसे लोगों की पूरी मदद करते थे. उस समिति का प्रत्येक सदस्य एक साथ दस-दस ऐसे मरीज व्यक्तियों की मदद करता था. उन्हें बताते थे कि उन्हें किस डॉक्टर की लाइन में बैठना है, उनका कौन सा नंबर है. जब मरीज डॉक्टर को दिखाकर बाहर आता था तो उनको बताते थे कि दवाई कहाँ से मिलेगी, आदि. जब तक उस मरीज का काम पूरा नहीं हो जाता था, तब तक वे उनके आगे-पीछे ही धूमते रहते थे. यह सब कार्य निस्वार्थ भाव से करते थे. ये लोग 11 बजे तक वहाँ रहते थे. उसके बाद मरीजों की भीड़ कम होने पर ही वे अपने-अपने घर आते थे. इससे उन गरीब अशिक्षित ग्रामीणों को बहुत मदद मिलती थी. यह उस समय की बात है जब बहुत से ग्रामीण लोग अशिक्षित और नासमझ थे. आज शायद ऐसी स्थिति नहीं है. हमें इस घटना से मात्र यह ही सीख लेनी चाहिए कि यदि मन में सेवाभाव है तो सेवा कैसे भी करी जा सकती है.
डॉ. अनिल कुमार जैन, जयपुर
-D 197, मोती मार्ग, बापू नगर, जयपुर