शाम के समय सेठजी सामायिक करने के लिए एक आसन पर बैठ गये । सामायिक का समय निश्चित करने के लिए सामने जलते हुए दीपक को देखकर यह प्रतिज्ञा करली कि, “जब तक इस दीपक में तेल पूरा नहीं हो जायेगा, तब तक मैं सामायिक करूँगा ।”
इस प्रकार प्रतिज्ञा लेकर सेठजी की सामायिक प्रारम्भ हो गई, किन्तु थोड़ा समय व्यतीत होने पर सेठजी को पानी की प्यास सताने लगी । दीपक में थोड़ा सा तेल देखकर विचारने लगे कि, “चलो ! शीघ्र ही दीपक का यह तेल पूरा हो जायेगा और मैं सामायिक पूरी करके, पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लूँगा ।”
किन्तु यह क्या हुआ ? दीपक तो तेल से फिर भर गया, यह कैसे हुआ ? हुआ यह कि जब सेठानी ने देखा कि आज सेठजी का मन सामायिक में अच्छा लग रहा है, तो कहीं दीपक बुझ न जाये और सामायिक में कहीं कुछ बाधा न आ जाये, यह सोचकर सेठानी ने दीपक में तेल पूरा भर दिया ।
पानी का तीव्र विकल्प आने पर सेठजी की दृष्टि जैसे ही उस दीपक पर गई तो वह चकित रह गये । विचारने लगे कि, “यह कैसे हुआ ? अवश्य ही सेठानी ने मेरी सामायिक निर्विघ्न होने के लिए इस दीपक में तेल भर दिया, किन्तु मेरी तो प्रतिज्ञा है, मैं तो उसका पालन करूँगा ।”
धीरे-धीरे सेठजी सामायिक के बदले पानी-पानी की रट लगाने लगे । उनकी प्यास तेजी से बढ़ने लगी और इधर सेठानी ने दीपक में तेल फिर से डाल दिया और अन्त में यह हुआ कि सेठजी के प्यास के कारण प्राण पखेरू उड़ गये और पानी-पानी की वासना के फलस्वरूप और सामायिक की जगह पानी का ध्यान कर मायाचारी के कारण वह मरकर उसी समय उनकी बावड़ी में मेंढक बन गये ।
अरे ! यह क्या हो गया ? एक कठोर सामायिक करने वाले सेठजी मरकर मेंढक हो गये । क्या सामायिक करने वाले तिर्यंच गति में जाते हैं ? मेंढक बनते हैं – अज्ञान दशा में लौकिक संसारी जीवों के ऐसे प्रश्न होते हैं, किन्तु भाई ! सच्ची सामायिक क्या है ? सामायिक का स्वरूप क्या है ? इसको जाने बिना मात्र एक आसन पर आँख बंद करके स्थिर होकर कुछ समय बैठ जाना मात्र इस बाह्य शरीर की क्रिया का नाम सामायिक नहीं है । हाँ ! यह बात अवश्य है कि जिनकी अंतरंग में सच्ची सामायिक होती है, उनकी बाह्य में शरीर की अवस्था भी चंचल नहीं होती किन्तु सभी इन्द्रिय स्थिर स्वोन्मुखी होती हैं ।
शुद्धात्मा में स्थिर होना, शुद्धात्मा के सन्मुख होना, शुद्धात्मा की महिमा, आराधना, उपासना और भावना होना यह सच्ची सामायिक है ।
परिणाम शून्य क्रिया कोई कार्यकारी नहीं है । परिणामों से ही बंध है और परिणामों से ही मोक्ष है । अतः परिणामों की सम्हाल में गाफिल मत हो प्राणी ।
‘परिणाम सुधारने का उपाय करो और परिणाम बिगड़ने का भय रखो ।’
सेठजी को सामायिक के कारण तिर्यंच गति नहीं मिली, किन्तु परिणामों में पानी-पानी के संकल्प-विकल्प रूप आर्तध्यान और मायाचारी होने से मेंढक की पर्याय प्राप्त हुई ।
हमें सामायिक का निषेध नहीं करना किन्तु संकल्प-विकल्प रहित, शरीरादि परद्रव्यों से राग-द्वेष त्याग कर, निज शुद्धात्मा की प्रबल भावना पूर्वक उसमें लीन होकर, अपूर्व सुख शान्ति का वेदन करके, पूर्ण तृप्त होना – यह सच्ची सामायिक और सामायिक का सच्चा फल है । बाहर में अशरीरी सिद्ध दशा रूप मोक्ष गति और अंतरंग में अतीन्द्रिय आनंद के झरने बहना और पूर्ण संतृप्ति, संतुष्टि होना ही परम सामायिक का फल है ।
अतः ऐसी सच्ची सामायिक ही सभी जीवों को करने का अभ्यास करना चाहिए । मात्र बाह्य क्रिया या संकल्प-विकल्प रूप परिणाम या शुभ भाव रूप परिणाम में, कभी भी, किंचित मात्र भी संतुष्ट नहीं होना चाहिए ।
शास्त्र के शब्दों में कहें तो संवर से, सम्यग्दर्शन से, स्वानुभूति से सामायिक सच्ची होती है और जब तक ऐसी दशा नहीं होती तब तक ध्येय, ज्ञेय, श्रद्धेय रूप निज शुद्धात्म तत्त्व की भावना भाना, महिमा करना, निरन्तर मंगल आराधना करना ।
पुस्तक का नाम – ज्ञान का चमत्कार ।
लेखक – वाणीभूषण पं ज्ञानचन्द जी जैन, विदिशा ।