श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

सत्ता की भूख

सदियों से चली आ रही विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं में शासन करने की ललक सत्ताधारियों के अंतर्मन में ऐसे प्रस्फुटित होती रही है, जैसे वर्षा के मौसम में कुकरमुत्ते उत्पन्न हो जाते हैं। यहां भूख को परिभाषित करना भी प्रासंगिक होगा। वैसे तो भूख विभिन्न प्रकार की होती है, लेकिन मुख्यतः इसे निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. सामान्य पेट की भूख: जिसे सामान्यतः भोज्य पदार्थों की प्राप्ति से शांत कर लिया जाता है, और इसके लिए जीव निरंतर प्रयासरत रहता है।

2. धन-संपदा की भूख:इस भूख का जन्म पेट की भूख के शमन होने पर स्वतः ही हो जाता है। धन-संपत्ति का अर्जन जीव अपने बुद्धि, कौशल, और श्रम आदि के उपयोग से कर सकता है। उचित साधनों से अर्जित की गई संपत्ति मात्रा में कम हो सकती है, लेकिन यही वास्तविक संपत्ति है, जिससे जीव अपने आप को खुशहाल महसूस कर सकता है। लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब जीव यह सोचता है कि दुनिया की समस्त संपत्ति का उपयोग केवल वही करे और अन्य से अधिक धन-संपदा केवल उसके पास हो। इसके चलते ही जीव सही-गलत का विचार त्याग कर किसी भी मार्ग से इसे संग्रह करने में लग जाता है, जो नैतिक नहीं कहा जा सकता। यही वह बिंदु है, जहां से जीव के अंदर एक विशेष प्रवृत्ति का उदय होता है कि वह इस संसार में सब जीवों पर शासन करने के लिए अवतरित हुआ है।

3. सामाजिक सत्ता की भूख: यही व्यवस्था आज के प्रजातांत्रिक युग में समाज में व्याप्त हो रही है। समाज के जीव, जब उन्हें भर पेट भोजन और धन-संपदा का अम्बार मिल जाता है, तो उपरोक्त वर्णित स्थितियों का निर्माण होने लगता है।

इस व्यवस्था का निरूपण निम्न प्रकार से किया जा सकता है। आज हमारे समाज में, समाज को दिशा-निर्देश प्रदान करने के लिए या समाज का विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करने के लिए, समाज के व्यक्तियों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की संस्था के रूप में सरकार (कार्यकारिणी) है, जिसका मुख्य कार्य संस्था के विधानानुसार समाज को चहुंमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर करना है। मगर वास्तविकता यह है कि उपरोक्त प्रकार से प्राप्त सत्ता की भूख इतनी अधिक प्रज्वलित हो उठती है कि व्यक्ति स्वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगता है, और यह सोचता है कि उसके द्वारा लिए गए निर्णयों को ही सभी को पूर्ण रूप से स्वीकार करना चाहिए। जबकि होना यह चाहिए कि कार्यकारिणी,जिसे समाज ने मतदान द्वारा निर्वाचित किया है, सामूहिक रूप से समाज के हित में किए जाने वाले कार्यों का प्रतिपादन करे और अपने अहम को दरकिनार कर समाज को विघटित होने से रोके। लेकिन सत्ता की भूख ऐसा करने से रोकती है, इसीलिए इसे सामाजिक सत्ता की भूख का नाम दिया गया है।

इस लेख का आशय मात्र इतना है कि सामाजिक व्यवस्थाओं में समाज द्वारा निर्वाचित कार्यकारिणी का सबको सम्मान करना चाहिए, और कार्यकारिणी के समस्त पदाधिकारियों को अपने उत्तरदायित्वों का, अपने स्वयं के अहम को त्याग कर, समाजहित में बखूबी निर्वहन करना चाहिए, जिससे सामाजिक सौहार्द और भाईचारा बना रहे और यही समय की पुकार है।

रमेश चन्द पल्लीवाल
(सम्पादक)
जयपुर

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