श्री त्रिलोक चन्द जैन (अध्यक्ष)
नया बास, सकर कूंई के पीछे, अलवर (राज.)
मोबा. : 8233082920
श्री पारस चंद जैन ( महामंत्री )
77/124, अरावली मार्ग,
मानसरोवर, जयपुर-302020
मो.9829298830
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श्री भागचन्द जैन ( अर्थमंत्री )
पुराने जैन मंदिर के पास, नौगावां,
जिला अलवर – 301025 (राज.)
मोबा. : 9828910628
E-mail: bhagchandjain07@gmail.com
श्री राजेन्द्र कुमार जैन (संयोजक)
82, शक्ति नगर, गोपालपुरा बाई पास,
जयपुर – 302015
मोबाइल – 9460066534
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श्री रमेश चंद पल्लीवाल (संपादक)
8, विश्वविद्यालय पुरी, गोपालपुरा रोड,
आशा पब्लिक स्कूल के पास,
गोपालपुरा, जयपुर 302018
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श्री संजय जैन (सह – संपादक)
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जयपुर – 302015
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श्री अजय कुमार जैन (अर्थ – व्यवस्थापक)
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भगवान महावीर के जिन शासन के पंचमकाल में जैन धर्म में हमारे समुदाय / समाज के कुछ बुद्धिजीवियों के कारण कुछ भ्रांतियां और मिथ्यात्व उत्पन्न हो रहा है तथा कथित बुद्धिजीवियों द्वारा यहाँ तक कि कुछ साधुओं और मुनिराजों द्वारा जैन धर्म को हिन्दू धर्म का अंग बताये जाने के कारण जैन धर्म का ह्मस हो रहा है और जैन मतावलम्बी अपने आपको हिन्दू मानने लगे है। इसमें राजनीति का दखल भी जिम्मेदार है। जैन धर्म के शास्त्रों और सूत्रों का अध्ययन करने पर यह पता चलेगा कि जैन धर्म बहुत प्राचीन काल से अर्थात लाखों वर्षो से चला आ रहा है, जिसको अजैन महावीर स्वामी के शासन काल अर्थात 2500 वर्ष पुराना मानते है। यही नही कुछ तीर्थ स्थलों जैसे गिरनार पर्वत पर नेमीनाथ भगवान की चरण छत्री पर हिन्दूओं द्वारा कब्जा भी कर लिया गया है और उस स्थली को दत्तात्रेय का स्थान बताया जाता है
खैर यह विषय बहुत व्यापक है तथा जिन बुद्धिजीवियों के दिमाग में जैन धर्म के इतर कुछ बस गया है, उसको हम नही मिटा सकते, लेकिन जैन धर्म, हिन्दू धर्म से बिल्कुल भिन्न है यह निम्न लिखित न्यायालयी निर्णय से स्वयं सिद्ध हो जाता है ।
जैसा कि प्रथम अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, कुटुम्ब न्यायालय, इन्दौर, मध्यप्रदेश ने शिखा विरूद्व नितेश सेठी विवाह विच्छेद मामले में हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अन्तर्गत आपसी सहमति से दायर बाद का निपटारा करते हुए, हिन्दू धर्म और जैन धर्म के बुनियादी अंतर को प्रतिपादित कर मूल आवेदन एवं दस्तावेज वापस करते हुए बाद का निस्तारण कर दिया गया। जैन धर्म और जैन धर्मावलंवियों के लिये यह फैसला अत्यधिक विचारणीय होने के नाते श्री पल्लीवाल जैन पत्रिका (डिजिटल) अपने पाठकों के अवलोकनार्थ एवं अध्ययन हेतु जैसा है वैसा ही प्रस्तुत कर रही है, पल्लीवाल जैन समाज के सुधि पाठको को जैन धर्म जैन दर्शन एवं जैन परंपराओं को समझने में यह निर्णय प्रभावकारी साबित होगा ।
यह प्रकरण आवेदकगण द्वारा धारा 13-बी हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह विच्छेद के अनुतोष हेतु प्रस्तुत किया गया है और स्वयं को जैन धर्म का अनुयायी होना उल्लेखित किया गया है।
यह कि इस संबंध में अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय, केन्द्र सरकार द्वारा जारी राजपत्र अधिसूचना दिनाक 27.01.2014 के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 खण्ड ग की शक्तियों का प्रयोग करते हुए उक्त अधिनियमों के प्रयोजनों के लिये जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है।
अतः उक्त अधिसूचना के आधार पर इस प्रकरण में निम्नलिखित बिन्दु पर तर्क सुने गये है –
“क्या किसी अल्पसंख्यक समुदाय के अनुयायी को बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से संबंधित व्यक्तिगत विधि, जो इस प्रकरण में हिन्दू विवाह अधिनियम से संबंधित है, के अंतर्गत अनुतोष प्रदान किया जा सकता है”?
उक्त बिन्दु पर तर्क के समय संबंधित अधिवक्ता की ओर से इस आशय का तर्क प्रस्तुत किया गया है कि धारा 2 उपधारा 1 खंड “ख” के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसे किसी भी व्यक्ति को लागू होता है जो धर्मतः जैन, बौद्ध या सिक्ख हो और धारा 2 उपधारा 3 के अनुसार हिन्दू विवाह अधिनियम के किसी भी भाग में आये हुए ‘हिन्दू” पद का ऐसा अर्थ लगाया जाएगा मानो उसके अतर्गत ऐसा व्यक्ति आता हो जो यद्यपि धर्म से हिन्दू नहीं है तथापि ऐसा व्यक्ति है जिसे यह अधिनियम इस धारा में अन्तर्विष्ट उपबंधों के आधार पर लागू होता है और उक्त प्रावधानों के कारण जैन धर्म के पक्षकार को भी हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत अनुतोष पाने का अधिकार है।
यह सही है कि उक्त प्रावधानों में जैन धर्म के अनुयायियों को भी हिन्दू के रूप में परिभाषित किया गया है, किंतु जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट इतिहास है और मूलत जैन धर्म एव हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों में कई भिन्नताएँ है
यह कि हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार ब्रम्हाण्ड की रचना ब्रम्हा द्वारा की गई थी. जबकि जैन धर्म के अनुसार यह मान्यता नहीं है कि ब्रम्हाण्ड की रचना ब्रम्हा द्वारा की गई थी, बल्कि जैन धर्म के अनुसार ब्रम्हाण्ड की रचना कभी नहीं हुई थी, क्योंकि ब्रम्हाण्ड शाश्वत है।
हिन्दू धर्म के अनुसार आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग माना गया है और यह माना जाता है कि जीवन का अन्त होने पर आत्मा का पुनः परमात्मा में विलय हो जाता है. जबकि जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वयं परमआत्मा होती है।
यह कि, हिन्दू धर्म में कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, जबकि जैन धर्म में तीर्थकरों की पूजा की जाती है।
यह कि हिन्दू धर्म में विभिन्न जातियों और वर्गों का समावेश है, जबकि जैन धर्म में जाति और वर्ग के आंधार पर कोई विभाजन नहीं है।
यह कि, हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद ओर स्मृति जैसे ग्रंथों को पवित्र माना जाता है, किंतु जैन धर्म द्वारा वेद एवं हिन्दू धर्म के अन्य ग्रंथों को स्वीकार नहीं किया जाता है और जैन धर्म के पास “आगम” और “सूत्र” जैसे अपने पृथक पवित्र ग्रंथ हैं।
इसके अतिरिक्त जहाँ तक दोनों धर्मों में विवाह की अवधारणा का प्रश्न है, तो जैन धर्म में विवाह का मुख्य उद्देश्य स्वयं के धर्म से संबंधित मानव जाति की निरतरता बनाये रखना है और जैन धर्म की इस अवधारणा में कोई धार्मिक उद्देश्य शामिल नहीं माना जाता है, जबकि हिन्दू धर्म में विवाह की अवधारणा के अनुसार विवाह को एक पवित्र धार्मिक संस्कार माना जाता है, जैसा कि न्यायदृष्टांत डॉली रानी विरुद्ध मनीष कुमार चंचल 2024 आई.एन.एस.सी. 355 निर्णय दिनांक 19.04.2024 में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित किया गया है।
इसके अतिरिक्त जहाँ तक जैन धर्म के अनुयायियों को दिये गये अल्पसंख्यक समुदाय के स्तर का प्रश्न है, तो इस संबंध में भी जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने की मांग एक शताब्दी से भी अधिक पुरानी रही है और जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा मार्च-अप्रैल 1947 में ही संविधान सभा के सामने जैन धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता की मांग की गई थी और उक्त प्रकृति की मांग लगातार निरंतर रहने के अरधार पर ही वर्ष 2014 में केन्द्र सरकार द्वारा जैन धर्म को अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता प्रदान की गई है और जैन धर्म के अनुयायियों को बहुसंख्यक हिन्दू धर्म के अनुयायियों से एक पृथक मान्यता प्रदान की गई है।
अतः ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि जैन धर्म के अनुयायियों को भी अपनी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं तथा परंपराओं का स्वतंत्र रूप से पालन करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है और ऐसी स्थिति में हजारो वर्ष पुराने जैन धर्म के अनुयायियों को विपरीत विचारधारा वाले हिन्दू धर्म की विधियों का पालन करने के लिये विवश किया जाना निश्चित रूप से जैन धर्म के अनुयायियों को प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार से वंचित करने के समतुल्य है।
यह कि, तर्क के समय इस आशय का भी तर्क किया गया है कि जैन धर्म के अनुयायी द्वारा भी विवाह के समय हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 7 में उल्लेखित सप्तपदी संस्कार का पालन किया जाता है और इस कारण ऐसी अनुयायी को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत भी अनुतोष पाने का अधिकार है.।
इस संबंध में दसवीं शताब्दी में आचार्य श्री वर्धमान सूरीश्वरजी महाराज द्वारा रचित ग्रंथ “आचार्य दिनकर ग्रंथ” का उल्लेख किया जाना आवश्यक है, जिसके चौदहवें खण्ड में जैन मान्यताओं के अनुसार विवाह के लिये किये जाने वाले सम्पूर्ण अनुष्ठानों का उल्लेख किया गया है, जिसके अनुसार जैन विवाह विधि में स्थापना विधि, आत्मरक्षा, मंत्रस्नान, क्षेत्रपाल पूजा, मनघोड़ बंधन, अरहत पूजन, सिद्ध पूजन, गांधार पूजन, शास्त्र पूजन, चौबीस यक्ष यक्षिणी पूजन, दस दिगपाल पूजन, सोलह विद्यादेवी पूजन, बार राशि पूजन, नवग्रह पूजन, सत्यविश नक्षत्र पूजन, चोरण प्रतिष्ठा, विधि प्रतिष्ठा, हस्तमिलाप, प्रदक्षिणा (चार बार), वरमाला, अभिसिंचन, सात प्रतिज्ञा, आरती एवं क्षमायाचना किये जाने का उल्लेख किया गया है जिससे स्पष्ट है कि जैन धर्म में उल्लेखित विवाह विधि हिन्दू धर्म में उल्लेखित विवाह विधि से भिन्न है।
इसके अतिरिक्त न्यायदृष्टात बाल पाटिल एवं अन्य विरुद्ध भारत संघ एवं अन्य ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 3172 में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि संविधान रचना के समय जैनियों को अल्पसंख्यक के रूप में नहीं रखा गया था और उन्हें विस्तृत हिन्दू समुदाय का भाग माना गया था और संविधान पश्चात बनाये गये हिन्दू अधिनियमों में हिन्दू की परिभाषा में जैन को भी शामिल किया गया था. किंतु इसी न्यायदृष्टांत में यह भी उल्लेखित किया गया है कि हिन्दू धर्म भारत का सामान्य धर्म एवं सामान्य आस्था है. जबकि जैन धर्म एक विशेष दर्शन वाला धर्म है।
यह कि, न्यायदृष्टांत प्रबंध समिति कन्या जूनियर विरुद्ध सचिव, यू.पी. बेसिक शिक्षा परिषद उत्तरप्रदेश ए.आई. आर. 2006 सुप्रीम कोर्ट 2974 में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा उल्लेखित किया गया है कि संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से जैनों को एक पृथक धर्म के रूप में मान्यता दिया था और मध्यप्रदेश शासन द्वारा भी दिनांक 29.05.2001 की अधिसूचना द्वारा मध्यप्रदेश राज्य में जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया जा चुका है।
इसी न्यायदृष्टांत में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ० एस. राधाकृष्णन द्वारा लिखित प्रसिद्ध पुस्तक “भारतीय दर्शन खण्ड-1” का उल्लेख करते हुए यह उल्लेखित किया गया है कि “भागवत पुराण इस मत का समर्थन करता है कि जैन धर्म के संस्थापक ऋषभ देव थे और इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भी लोग पहले तीर्थकर ऋषभ देव की पूजा करते थे और यजुर्वेद में भी तीन तीर्थकरों, ऋषभ, अजीतनाथ और अरिष्टनेमी के नाम उल्लेखित हैं।
इसी न्यायदृष्टांत में पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक “भारत एक खोज” का उल्लेख करते हुए यह उल्लेखित किया गया है कि “जैन धर्म निश्चित रूप से हिन्दू धर्म या वैदिक धर्म नहीं है और कोई भी जैन आस्था से हिन्दू नहीं है”।
न्यायदृष्टांत गेटप्पा विरुद्ध एरम्मा एवं अन्य ए.आई. आर. 1927 मद्रास 228 में यह निर्धारित किया गया है कि जैन धर्म उन वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार करता है जो हिन्दू धर्म का आधार है और विभिन्न अनुष्ठानों की प्रभावकारिता को नकारता है जिन्हें हिन्दू आवश्यक मानते हैं।
न्यायदृष्टांत हीराचंद गांगजी विरुद्ध रोजी सोजपाल ए.आई.आर 1939 बॉम्बे 377 में यह निर्धारित किया गया है कि यह सोचना गलत है कि जैन मूलतः हिन्दू थे और बाद में जैन धर्म में परिवर्तित हो गये।
न्यायदृष्टांत संपत्ति कर आयुक्त पश्चिम बंगाल विरुद्ध श्रीमती चंपा कुमारी सिंघी एवं अन्य में माननीय खंडपीठ द्वारा यह टिप्पणी की गई है कि यह मानने के लिये बहुत साहस की आवश्यकता होगी कि हिन्दू धर्म से असहमत जैन, हिन्दू हैं।
यह कि, न्यायदृष्टांत आर्यसमाज एजूकेशन ट्रस्ट दिल्ली एवं अन्य विरुद्ध शिक्षा निदेशक दिल्ली ए.आई.आर. 1976 दिल्ली 207 में यह माना गया है कि न केवल संविधान, बल्कि हिन्दू संहिता ने भी जैनों को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता दिया है और जैन धर्म वेदों और हिन्दू धर्म की रूढ़िवादी परंपराओं को नकारता है और जैन धर्म प्रारंभ से ही हिन्दू धर्म का प्रतिद्वंद्वी रहा है।
अतः यह तथ्य तो स्पष्ट रूप से प्रमाणित है कि जैन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो. हिन्दू धर्म की बुनियादी वैदिक परंपराओं और मान्यताओं का विरोध करता है और वैदिक परम्परा पर आधारित नहीं है, जबकि हिन्दू धर्म पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा पर आधारित है।
अतः उपरोक्त संपूर्ण विश्लेषण से यह तथ्य निश्चित रूप से प्रमाणित है किं जैन धर्म निर्विवाद रूप से हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है और जैन धर्म के अनुयायियों की लगभग 100 वर्ष पुरानी मांग स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार द्वारा भारत के राजपत्र में दिनांक 27.01.2014 को प्रकाशित अधिसूचना से यह तथ्य भी प्रमाणित है कि केन्द्र सरकार द्वारा जैन समुदाय अर्थात जैन धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है।
अतः ऐसी स्थिति में हिन्दू धर्म की मूलभूत वैदिक परंपराओं को सिरे से नकारने वाले और पूर्व उल्लेखित वर्ष 2014 की राजपत्र अधिसूचना के पश्चात स्वयं को बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से पृथक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के किसी अनुयायी को उनके धर्म से विपरीत मान्यताओं वाले धर्म से संबंधित व्यक्तिगत विधि का लाभ दिया जाना उचित प्रतीत नहीं होता है।
यह कि तर्क के समय आवेदकगण के अधिवक्ता द्वारा न्यायदृष्टांत प्रवीण कुमार जैन विरुद्ध अंजु जैन एस.एल.पी. (सिविल) कमांक 21710/2024 निर्णय दिनांक 10.12.2024 एवं न्यायदृष्टांत अलका जैन विरुद्ध नवीन जैन अंतरण याचिका (दांडिक) कमांक 34/21 आदेश दिनांक 16.05.2023 प्रस्तुत किये गये हैं, किंतु उक्त दोनों न्यायदृष्टांतों में जैन धर्म के अनुयायियों को वर्ष 2014 में अल्पसंख्यक समुदाय को घोषित किये जाने का बिन्दु विचारणीय नहीं होने के कारण उक्त न्यायदृष्टांतों से आवेदकगण को कोई समर्थन प्राप्त नहीं हुआ है।
इसके अतिरिक्त आवेदकगण की ओर से प्रस्तुत एक अन्य न्यायदृष्टांत अनिल कुमार जैन विरुद्ध माया जैन ए. आई.आर. 2020 एस.सी. 229 में भी उपरोक्त अधिसूचना का बिन्दु विचारणीय नहीं होने से इस न्यायदृष्टांत से भी आवेदकगण को कोई समर्थन प्राप्त नहीं हुआ है।
इस न्यायालय के समक्ष इस आशय का भी तर्क किया गया है कि चूँकि जैन धर्म के पास अभी स्वयं की कोई अधिनियमित व्यक्तिगत विधि नहीं है और यदि जैन धर्म के किसी अनुयायी को हिन्दू विधि के अनुतोष से वंचित किया जाता है तो उसके पास अपने वैवाहिक विवाद संबंधी वैधानिक अधिकारों की स्थापना के लिये कोई न्यायिक मंच शेष नहीं रह जायेगा, अतः स्वयं की व्यक्तिगत विधि के अभाव के कारण उसे वैवाहिक विवादों के संबंध में हिन्दू विधि का लाभ दिया जाना चाहिये, किंतु उक्त न्यायिक मंच संबंधी अभाव निराधार है, क्योंकि न्यायदृष्टांत मोहम्मद शाह विरुद्ध श्रीमती चांदनी बेगम प्रथम अपील क्रमांक 1199/2022 निर्णय दिनांक 07.01.2025 में माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय, खंडपीठ ग्वालियर द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7. जो सभी धर्मों एवं समुदार्यो के अनुयायियों के लिये प्रभावशील है, के अनुसार विवाह के पक्षकारों को अपने किसी वैवाहिक विवाद के संबंध में कुटुंब न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है क्योंकि किसी भी व्यक्ति को विधिक उपचारविहीन नहीं रखा जा सकता है।
अतः स्पष्ट है कि उक्त न्यायसिद्धान्त के आलोक में हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का विरोध करने वाले और बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से स्वयं को स्वेच्छा से अलग कर अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के किसी पक्षकार द्वारा अपने हजारों वर्ष पूर्व से सुस्थापित वैभवशाली एवं गौरव से परिपूर्ण जैन धर्म में व्यक्तिगत विधि से संबंधित विवादों के संबंध में प्रचलित एवं सुस्थापित धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं का अभिवचन करते हुए निश्चित रूप से ऐसे विवाद के संबंध में कुटुब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 के अंतर्गत कुटुंब न्यायालय के समक्ष प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है और इस कारण हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का विरोध करने के पश्चात भी किसी जैन धर्म के अनुयायी को अपने धर्म की मूलभूत मान्यताओं के विपरीत मान्यताओं वाले हिन्दू धर्म से संबंधित व्यक्तिगत विधि का अनुसरण करने की कोई वैधानिक बाध्यता शेष नहीं रहती है।
अतः उपरोक्त संपूर्ण विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष दिया जाता है कि “हिन्दू धर्म की मूलभूत वैदिक मान्यताओं को अस्वीकार करने वाले एवं स्वयं को बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से अलग करके अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित कर चुके जैन धर्म के अनुयायियों को पूर्व उल्लेखित राजपत्र अधिसूचना दिनांक 27.01.2014 के पश्चात हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत अनुतोष प्राप्त करने का कोई अधिकार शेष नहीं रहा है, किंतु जैन धर्म का कोई भी अनुयायी अपने जैन धर्म की हजारों वर्ष पुरानी सुस्थापित धार्मिक एवं सामाजिकं परंपराओं का अभिवचन करते हुए कुटुंब न्यायालय अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत अपने किसी वैवाहिक विवाद को निराकरण हेतु कुटुंब न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के लिये पूर्णतः स्वतंत्र है ।
अत उपरोक्त निष्कर्ष के आधार पर आवेदकगण द्वारा प्रस्तुत मूल आवेदन एवं ‘दस्तावेज वापस कर शेष प्रकरण नियमानुसार अभिलेखागार प्रेषित किया जाये।
धीरेन्द्र सिंह
प्रथम अति० प्रधान न्यायाधीश कुटुम्ब न्यायालय,
इन्दौर (म०प्र०)