श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

समाज और धर्म

समावेशी भाव-समाज में होता है धर्म में नहीं । समाज को विकृत किया जा सकता है धर्म को नहीं। सामाजिक गतिविधियां धार्मिक गतिविधियों से भिन्न होती है । समाज धर्म को मानता है, धर्म किसी समाज को नहीं । धार्मिक शिक्षा एवं सामाजिक शिक्षा में मौलिक अन्तर है धर्म में दीक्षित व्यक्ति मुक्ती के मार्ग पर प्रस्तुत होता है, और सामाजिक शिक्षा समाज को उन्नति के पथ पर अग्रसर करते हुए जीवन यापन के साधनों का दोहन करते हुए अपने परिवार, राज्य एवं राष्ट्र को सुरक्षित करने का मार्ग है।
सामाजिक प्राणी समाज में रहकर विभिन्न प्रकार के आचरणों द्वारा सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कार्यो को गति प्रदान करता है। समाज कैसे सुदृढ हो और अपने समाज का प्रत्येक व्यक्ति कैसे अपने आप को सुरक्षित महसूस करे, इसके लिए ही सामाजिक शिक्षा का प्रसार होना अति आवश्यक है। जिन महानुभावों ने विभिन्न प्रकार के ग्रंथो एवं पुस्तकों का अध्ययन किया है अर्थात शिक्षा जगत में ज्ञान की प्राप्ति की है, उनकी जिम्मेदारी है कि बड़े-बड़े उद्योगों एवं व्यापार आदि की स्थापना करावे और उन संस्थानों मे अपने समाज के व्यक्तियों के लिये उनकी योग्तानुसार रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये ।
वस्तुत: आज क्या हो रहा है? इसे समझाने की आवश्यकता है। हमें धर्मान्ध बनाया जा रहा है ताकि हम तर्क न कर सके। धर्म में तर्क का स्थान नहीं है, केवल आस्था को ही मान्यता दी गयी है। अतः हमारे समाज को अपने धर्म के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए न्याय संगत तरीके से सामाजिक संरचना को उन्नत करने के लिए शिक्षा परक व रोजगार परक कार्य करने की महति आवश्यकता है।

रमेश चंद पल्लीवाल
सम्पादक

This Post Has 2 Comments

  1. राजेन्द्र प्रसाद जैन, अध्यक्ष जयपुर शाखा

    सामाजिकता एवं धार्मिकता के अंतर को बहुत ही सरल तरीके से बताया गया है। बिल्कुल सही है कि धर्म कभी विकृत नहीं हो सकता है, किंतु मनुष्य और फिर समाज विकृत हो सकता है तथा पतन की ओर जा सकता है।

  2. नरेश चंद जैन

    बहुत अच्छा संदेश

Leave a Reply