श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

प्रवचनामृत

यह अत्यंत गूढ़, सुंदर और जागरूकता उत्पन्न करने वाला प्रवचन संग्रह है :-

– तुलना की दृष्टि

🔷 1. दुख का मुख्य कारण

मनुष्य दुखी है, क्योंकि उसकी नजर अपने ऊपर कम और दूसरों पर अधिक है।
🔸 व्याख्या: जब हम बार-बार दूसरों की तुलना में अपने जीवन को तौलते हैं, तब हमारी आत्म-शांति भंग होती है। सुख आत्मानुभूति से आता है, न कि तुलना से।

🔷 2. ईर्ष्या का परिणाम

ईर्ष्यालु व्यक्ति का – सुख, पुण्य, सद्गुण और सद्बुद्धि – नष्ट हो जाते हैं।
🔸 व्याख्या: ईर्ष्या आत्मा की पवित्रता को नष्ट करती है। यह हमारे भीतर के श्रेष्ठ तत्वों को जला देती है।

🔷 3. वाणी का प्रभाव
बादल ठहरता है और बिजली जलती है, उसी प्रकार हमारी वाणी भी किसी के दिल को जलाने वाली नहीं, ठहराने वाली होनी चाहिए।
🔸 व्याख्या: हमारी वाणी से प्रेम, करुणा और शांति प्रकट होनी चाहिए; न कि चुभन या आघात।

🔷 4. असर vs आड़-असर

प्रभावशाली बोलिए, लेकिन नकारात्मक असर देने वाला नहीं।
🔸 व्याख्या: ऐसा वाक्य न बोले जिससे किसी का मन विषाक्त हो जाए, बल्कि ऐसा कहें जो मार्गदर्शक बने।

🔷 5. परिग्रह और पूर्वग्रह का पाप

संपत्ति का संग्रह मनुष्य को कंजूस बना देता है, जबकि मानसिक पूर्वग्रह उसे कठोर बना देता है।
🔸 व्याख्या: बाहरी वस्तुओं का मोह और आंतरिक विचारों का पक्षपात – दोनों आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं।

🔷 6. दुख का कारण – योग या वियोग?

हमारा अनुभव कहता है कि किसी से वियोग दुखद होता है, परंतु त्रिकालज्ञ तीर्थंकरों का वचन है – “संयोग ही दुख का कारण है।”
🔸 व्याख्या: जो मिला है, उससे मोह होता है और यही बंधन का कारण है। संयोग की अपेक्षा वियोग में मुक्ति अधिक संभव है।

🔷 7. विचारों की शक्ति और साधना

खराब विचार साधना को समाप्त कर देते हैं, और व्यर्थ विचार आत्मिक ऊर्जा को समाप्त कर देते हैं।
🔸 व्याख्या: विचार यदि विषैले या व्यर्थ हैं, तो वे आत्मा की साधना को कमजोर कर देते हैं।

🔷 8. संयमित जीवन का अमृत

वियोग में स्थिरता अमृत है, लेकिन संयोग में उत्पन्न अभिमान और सुख– ये ज़हर हैं।
🔸 व्याख्या: जो संयम और निर्विकल्पता में आनंद ले सकता है, वही मुक्ति के योग्य बनता है।

🔷 9. इच्छाओं का भार

जीवन स्वयं में बहुत हलका है; इसका भार केवल हमारी इच्छाएँ ही बनाती हैं।
🔸 व्याख्या: हम जितनी इच्छाएँ करते हैं, उतना ही बोझ बढ़ता जाता है। त्याग से जीवन हलका और आनंदित होता है।

🔷 10. धर्म में विकल्प नहीं चलता

संसार में तो मजबूरीवश सबकुछ स्वीकारना पड़ता है, तो फिर धर्म में विकल्प मांगना उचित कैसे?
🔸 व्याख्या: धर्म में शुद्ध और सीधी साधना होनी चाहिए। उसमें अपनी सुविधा के अनुसार परिवर्तन नहीं।

🔷 11. जिनवाणी श्रवण का बल

मंदिर में घंटा बजाने वाले हम, अपने जीवन में संस्कारों की ध्वनि बजाएँ – यही जिनवाणी की शक्ति है।
🔸 व्याख्या: केवल मंदिर में पूजा करने से नहीं, बल्कि जीवन में गुणों को लाकर ही सच्ची साधना होती है।

🔷 12. सच्चा दान

50,000 का दान करने वाला यदि ज़रूरतमंद को ₹5 भी न दे, तो वह धर्म नहीं, दिखावा है।
🔸 व्याख्या: धर्म की परख सहायता में है, केवल बड़ी राशियों के प्रचार में नहीं।

🔷 13. संघ की महिमा

संघ छोड़कर अकेले साधना करने वाला भविष्य में संघ और शासन से वंचित हो सकता है।
🔸 व्याख्या: संघ की छत्रछाया आत्मा को सच्चा मार्ग दिखाती है। उससे अलग होकर भटकाव ही मिलेगा।

🔷 14. उपेक्षा से मोक्ष

संसारिक वस्तुओं का तिरस्कार हो जाए, तो मोक्ष शीघ्र मिलता है।
🔸 व्याख्या: जब तक हमें वस्तुओं का आकर्षण रहेगा, तब तक आत्मा बंधी रहेगी। विरक्ति से ही मुक्ति का मार्ग खुलेगा।

🔷 15. ज्ञान और श्रद्धा का सामंजस्य

केवल ज्ञान और क्रिया से मोक्ष नहीं मिलता; उसमें श्रद्धा और सम्मान जुड़ना अनिवार्य है।
🔸 व्याख्या: ज्ञान में आस्था और कार्य में भावनात्मक निष्ठा हो, तभी उसका फल मिलता है।

🔷 16. फावशे, चालशे, भावशे!

जिसके जीवन में यह तीन शब्द आते हैं – “चलता है, पसंद है, जमता है” – वह मोक्ष से दूर हो जाता है।
🔸 व्याख्या: लापरवाही, रूचिपूर्वक अज्ञान, और भावनात्मक मोह – ये मोक्ष में बाधक हैं।

🔷 17. जिनवाणी से करोड़पति बनें!

धन बिना गृहस्थ की स्थिति दयनीय होती है; वैसे ही जिनवाणी बिना साधक की दशा भी दयनीय होती है।
🔸 व्याख्या: भौतिक धन से सुख नहीं, आत्मिक ज्ञान से शांति प्राप्त होती है – और वही सच्चा धन है।

🔷 18. परिग्रह और दुराग्रह

वस्तुओं का परिग्रह ध्यान को दूषित करेगा, और विचारों का दुराग्रह भावनाओं को दूषित करेगा।
🔸 व्याख्या: बाह्य संग्रह और भीतरी कट्टरता – दोनों ही साधक के शत्रु हैं।

🔷 19. बहानों की प्रवृत्ति

जो बहाने खोजते हैं, उन्हें कभी मार्ग नहीं मिलता; जो मार्ग खोजते हैं, उन्हें बहाने नहीं रोकते।
🔸 व्याख्या: निर्णय और संकल्प से ही साधना आगे बढ़ती है, आलस्य से नहीं।

🔷 20. आनंद का मंथन

आनंद एक अमृत है, पर उसे दुख की मथानी से ही प्राप्त किया जा सकता है।
🔸 व्याख्या: स्थायी आनंद दुखों की कसौटी से गुजर कर ही मिलता है।

🔷 21. पतन और उत्थान

गिरावट के लिए संकल्प नहीं चाहिए, लेकिन उत्थान के लिए संकल्प अनिवार्य है।
🔸 व्याख्या: नैतिकता और साधना का मार्ग सहज नहीं, संकल्प और संघर्ष से ही संभव है।

🔷 22. रंग–ढंग की भूमिका

शरीर का रंग–ढंग प्रकृति से तय होता है, पर जीवन का स्वरूप स्वयं तय करना होता है।
🔸 व्याख्या: हमारी परिस्थितियाँ नियत हो सकती हैं, लेकिन उनका उत्तर कैसे दें – यह हमारा अधिकार है।

🔷 23. प्रसन्नता – सच्चा उपहार

चित्त की प्रसन्नता सच्चे गुरु का अनुपम उपहार है, जो धन से भी नहीं मिलता।
🔸 व्याख्या: सच्ची खुशी न बाहर में है, न वस्तुओं में – वह केवल सद्गुरु की वाणी और स्वाध्याय से ही मिलती है।

🔷 24. पापकर्म और सत्व

पाप से बचने के लिए अधिक सत्व चाहिए, और धर्म की आराधना के लिए अधिक उत्साह।
🔸 व्याख्या: आत्मबल और प्रेरणा – दोनों धर्म साधना के लिए अनिवार्य ऊर्जा हैं।

🔷 25. साधक और सन्मार्ग

अगर रोगी डॉक्टर की नहीं माने तो मृत्यु निश्चित है; वैसे ही साधक अगर सद्गुरु की बात न माने तो दुर्गति निश्चित है।
🔸 व्याख्या: आत्मा की चिकित्सा के लिए सद्गुरु का अनुसरण आवश्यक है।

🔷 26. प्रेम और प्रहार

मनुष्य दो प्रकार के हैं – “नहर” की तरह बहाने वाले और “नहर” की तरह प्रहार करने वाले।
🔸 व्याख्या: हम दूसरों को सशक्त बनाने वाले हैं या दुर्बल – इसका निर्धारण हमारे व्यवहार से होता है।

🔷 27. क्रोध और प्रेम की रुचि

जिसे दूसरों की बातें प्रिय लगें – वह क्रोध है; जिसे अपनी आत्म-सुधार में रस आए – वह प्रेम है।
🔸 व्याख्या: आलोचना की जगह आत्मविश्लेषण धर्म का सच्चा मार्ग है।

🔷 28. जिनवाणी का प्रकाश

प्रकाश के बिना अंधकार में यात्रा नहीं हो सकती, वैसे ही जिनवाणी के बिना आध्यात्मिक मार्ग तय नहीं हो सकता।
🔸 व्याख्या: जिनवाणी आत्मा के अंधकार को दूर करने वाली प्रकाश-पुंज है – जो जीवन को दिशा देती है।

📚 निष्कर्ष: यह अमृत प्रवचन संग्रह केवल एक प्रवचन नहीं, एक संपूर्ण आत्मिक जागरण का शास्त्र है।
यह आत्मनिरीक्षण, वाणी की मर्यादा, विचारों की निर्मलता, और साधना के मार्ग की उत्कृष्ट दिशा देता है।

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