श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

परीषह जय

गतांक से आगे-

अंगीकृत धर्म-मार्ग में स्थिर रहने के लिए तथा कर्म-बन्ध के विनाश के लिए समस्त प्रतिकूल विचारों और परिस्थितियों का समतापूर्वक सहन करते चलना परीषह जय कहा गया है-

मार्गाच्यवन-निर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः।’

‘परीषह’ यह शब्द ‘परि’ और ‘षह’ इन दो शब्दों के सम्मेल से बना है। ‘परि’ अर्थात् ‘सब ओर से’ ‘षह’ का अर्थ होता है ‘सहन’, यानी आन्तरिक संवेदनाओं से तथा बाह्य संयोगों-वियोगों से उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों तथा दुःखों को समतापूर्वक सहन करना ही परीषह जय है। दिगम्बर साधु इसका पालन करते हैं। चूँकि वे प्रकृति में रहते हैं तथा सभी प्रकार के साधन व सुविधाओं से दूर रहते हैं, ऐसी स्थिति में समता भाव को नष्ट करने वाली अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और वे ही स्थितियाँ उनके समत्व की परीक्षा के विशेष क्षण होते हैं। यद्यपि ऐसी परिस्थितियाँ अनगिनत हो सकती हैं, किन्तु मुख्य रूप से उन्हें बाईस में विभाजित किया गया है। और सन्मार्ग से च्युत न होने के लिए तत्सम्बन्धी क्लेशों पर विजय पाने का उपदेश दिया गया है। वे हैं क्रमशः क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस मच्छर, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तुण-स्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन। इन्हें इस प्रकार परिभाषित किया गया है-

1-2 क्षुधा-तृषा – जैन साधु अपने पास कुछ भी परिग्रह नहीं रखते, न ही अपना भोजन अपने हाथ से बनाते हैं। भिक्षावृत्ति से ही भोजन ग्रहण करते हैं, वह भी दिन में एक ही बार। समय-समय पर उपवास आदि तप भी धारण करते हैं। ऐसी स्थिति में भूख और प्यास लगना स्वाभाविक है। फिर भी, कितनी ही तीव्र भूख या प्यास लगने पर स्वीकृत मर्यादा (विधि) विरुद्ध आहार मिलने पर उसे ग्रहण नहीं करना, क्षुधा और प्यास रूपी अग्नि को धैर्य रूपी जल से शान्त करना ‘क्षुधा-तृषा परीषह-जय’ है।

3-4 शीत-उष्ण – कड़कड़ाती ठण्ड हो या जेठ की तपतपाती धूप, दोनों परिस्थितियों में वस्त्रादिकों को स्वीकार न कर, समता भावपूर्वक सर्दी-गर्मी सहन करना ‘शीत-उष्ण परीषह जय’ है।

5. डाँस-मच्छर – मक्खी, पिस्सू आदि जन्तुओं कृत बाधाओं को समतापूर्वक सहन करना, उनसे विचलित होकर प्रतिकार की इच्छा न करना ‘डाँस-मच्छर परीषह-जय’ है।

6. नाग्न्य सद्यः – प्रसूत बालक की तरह नग्न रूप धारण करना ‘नाग्न्य परीषह-जय’ है। दिगम्बरत्व को धारण करने वाले साधु के मन में किसी भी प्रकार का विकार न आना तथा लज्जा आदि के वश उसे छिपाने का भाव न करना, ‘नाग्न्य परीषह-जय’ है।

7. अरति – ‘अरति’ का अर्थ ‘संयम के प्रति अनुत्साह’ है। अनेक विपरीत कारणों के होने पर भी संयम के प्रति अत्यन्त अनुराग बना रहना ‘अरति परीषह-जय’ है।

8. स्त्री – नव-युवतियों के हाव-भाव, विलास आदि द्वारा बाधा पहुँचाए जाने पर भी मन में विकार उत्पन्न नहीं होने देना, उनके रूप को देखने अथवा उनके आलिंगन की भावना न होना ‘स्त्री परीषह-जय’ है।

9. चर्या – नंगे पैरों से सतत विहार करते रहने पर, मार्ग में पड़ने वाले कंकर-पत्थरों से पैर छिल जाने पर भी खेद-खिन्न न होना ‘चर्या परीषह-जय’ है।

10. निषद्या – जिस आसन में बैठे हैं उस आसन से विचलित न होता ‘निषद्या परीषह जय’ है।

11. शय्या – स्वाध्याय, ध्यान आदि के श्रमजन्य थकावट दूर करने के लिए, रात्रि में ऊँची-नीची, कठोर भूमि अथवा लकड़ों के पाटे आदि पर एक करवट से शयन करना ‘शय्या परीषह-जय’ है।

12. आक्रोश : मार्ग में चलते हुए साधु को अन्य अज्ञानियों द्वारा गाली-गलौच आदि से अपमानित करने पर भी शान्त रहना, उन पर क्रोध न करना ‘आक्रोश परीषह-जय’ है।

13. वध – जैसे चन्दन को जलाने पर भी वह सुगन्ध देता है, वैसे ही अपने साथ मार-पीट करने वालों पर भी क्रोध न करना, अपितु उनका हित सोचना ‘वध परीषह-जय’ है।

14. याचना – आहारादि के न मिलने पर भले ही प्राण चले जायें, लेकिन किसी से याचना करना तो दूर, मन में दीनता भी न आना’ याचना परीषह-जय’ है।

15. अलाभ – आहारादि का लाभ न होने पर भी, उसमें लाभ की तरह सन्तुष्ट रहना ‘ अलाभ परीषह-जय’ है।

16. रोग – यदि शरीर किसी रोग, व्याधि व पीड़ा से घिर जाये, तो उस रोग को शान्तिपूर्वक सहना ‘रोग परीषह-जय’ है।

17. तृण-स्पर्श: चलते, उठते, बैठते तथा सोते समय जो कुछ तृण, कंकड़, काँटा आदि चुभने की पीड़ा हो, उसे साम्य भाव से सहन करना ‘तृण स्पर्श परीषह-जय’ है।

18. मल-  शरीर में पसीना आदि से मल लग जाने पर भी उस ओर दृष्टि न देकर उन्हें हटाने की इच्छा न करना ‘मल परीपह-जय’ है।

19. सत्कार-पुरस्कार सम्मान एवं अपमान में समभाव रखना और आदर-सत्कार न होने पर खेद-खिन्न न होना ‘सत्कार पुरस्कार परीषह-जय’ है।

20. प्रज्ञा- अपने पाण्डित्य का अहंकार न होना ‘प्रज्ञा परीषह-जय’ है।

21. अज्ञान – ज्ञान न होने पर लोगों के तिरस्कार युक्त वचनों को सुनकर भी अपने अन्दर हीन भावना न लाना ‘अज्ञान परीषह-जय’ है।

22. अदर्शन – श्रद्धान से च्युत होने के कारण उपस्थित होने पर भी मुनि मार्ग से च्युत न होना ‘अदर्शन परीषह-जय’ है।

ये बाईस परीषह जैन मुनियों की विशेष साधनाएँ हैं। इनके द्वारा वह अपने को पूर्ण इन्द्रिय-विजयी और योगी बनाकर संवर का पात्र बनाते हैं। परीषहों को जीतने से चरित्र में दृढ़ निष्ठा होती है और कर्मों का आस्रव रुककर संवर होता है।
चारित्र

संवर का सातवाँ साधन चारित्र है। जिसके द्वारा हित की प्राप्ति और अहित का निवारण होता है, उसे चारित्र कहते हैं।’ एक परिभाषा के अनुसार, आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर होने का प्रयत्न करना चारित्र है। विशुद्धि की तरतमता की अपेक्षा, चारित्र पाँच प्रकार का कहा गया है- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय और यथाख्यात।’

1. सामायिक – साम्यभाव में स्थित रहने के लिए समस्त पाप-प्रवृत्तियों का त्याग करना ‘सामायिक चारित्र’ है।’

2. छेदोपस्थापना – गृहीत चारित्र में दोष लगने पर, उनका परिहार कर, मूल रूप में स्थापित होना ‘छेदोपस्थापना चारित्र’ है।’

3. परिहार-विशुद्धि चरित्र की जिस विशुद्धि से हिंसा का पूर्ण रूप से

परिहार हो जाता है उसे ‘परिहार विशुद्धि चरित्र’ कहते हैं। इस चारित्र के प्रकट होने पर शरीर में इतना हल्कापन आ जाता है कि चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि सभी क्रियाओं के बाद भी किसी जीव का घात नहीं होता। ‘परिहार’ का अर्थ होता है ‘हिंसादिक पापों से निवृत्ति’।’ इस विशुद्धि के बल से हिंसा का पूर्ण रूप से परिहार हो जाता है; अतः परिहार विशुद्धि इसकी यह सार्थक संज्ञा है। इस चारित्र का धनी साधु जल से अलिप्त कमल के पत्रों की तरह पापों से अलिप्त रहता है। यह किसी विशिष्ट साधना सम्पन्न तपस्वी को ही प्राप्त होता है।

4. सूक्ष्म-साम्पराय – जिस साधक की समस्त कषायें नष्ट हो चुकी हैं, मात्र एक लोभ कषाय अति सूक्ष्म रूप में शेष रह गयी है तथा जो उसे भी क्षीण करने में तत्पर है, उसके चारित्र को ‘सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र’ कहते हैं।’

5. यथाख्यात – समस्त मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर प्रकट, आत्मा के शान्त स्वरूप में रमण करने रूप चारित्र ‘यथाख्यात चारित्र’ है।’ इसको वीतराग चारित्र या अथाख्यात चारित्र भी कहते हैं।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सामायिक के अतिरिक्त शेष चारों चारित्र सामायिक रूप में ही हैं, परन्तु आचार गुणों की विशेषता होने के कारण उन चार को अलग कहा गया है।

इस प्रकार व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र रूप संवर के बासठ भेद कहे गये हैं। वे मुख्य रूप से साधु-जीवन को लक्ष्य करके कहे गये हैं। इसका अर्थ यह है कि संवर की सिद्धि के लिए साधु-धर्म अपेक्षित है। गृहस्थ जन भी इनका यथाशक्ति पालन करके आंशिक संवर के अधिकारी बन सकते हैं।

मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज

 

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