साठ के दशक के अंतिम वर्षों में समाज के कुछ महानुभावों ने यह महसूस किया कि अपनी समाज का एक संगठन होना चाहिए जिसमें हम आपसी भाईचारे को बढ़ाएं तथा एक दूसरे के सुख दुःख में सहयोही बनें. सन् 1969 में पल्लीवाल जैन महासभा की स्थापना हुई. डॉ. किशनचंद जी सीकर को अध्यक्ष तथा डॉ. क्रांतिकुमार जी जयपुर को महामंत्री बनाया गया. इनके साथ ही श्री प्रकाशचंद जी नागौर, श्री ब्रिजेंद्रकुमार जी आगरा सहित अन्य कई महानुभावों को भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई. (मुझे अन्य महानुभावों के नाम स्मरण नहीं हो पा रहे हैं, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.) इसी दौरान महासभा की एक पत्रिका के प्रकाशन की बात भी आई, उसके लिए मास्टर श्री रामसिंह जी आगरा को जिम्मेदारी दी गई. दिल्ली के श्री जैनीलाल जी ने एक महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथों में लिया. उस समय टेलीफ़ोन आदि की सुविधा तो नहीं थी. प्रायः लोग पोस्टकार्ड का प्रयोग करते थे. श्री जैनीलाल जी ने “विवाह सूचना केंद्र” स्थापित किया. वे विवाह योग्य युवक-युवितियों की सूचना एकत्रित करते तथा पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजते.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति बहुत ही उत्साहित था, चाहें उसे कोई जिम्मेदारी दी गई हो या नहीं.. पहले लोगों को जिम्मेदारी दी जाती थी, चुनाव नहीं होता था. समाज के सभी लोगों को संस्था को मजबूती से खड़ी करने का एक जूनून था. महासभा के पदाधिकारी अपनी छुट्टियाँ ख़राब करके पल्लीवाल समाज के बीच के दौरा करते ही रहते थे तथा वहां के लोगों को महासभा का सदस्य बनाते थे. उन्होंने जो कार्य किये वे मील का पत्थर साबित हुए. उनके समय में ‘विधवा अनाथ फण्ड’ के लिए धन जुटाना, महासभा का विधान तैयार करना, महासभा की शाखाएं स्थापित करना आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये गए.
उनके बाद में जब भी नई कार्यकारिणी का गठन हुआ, तब भी योग्य व्यक्तियों को जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, चुनाब नहीं होते थे. शाखाओं की भी यही स्थिति थी. शाखाओं में भी चुनाव नहीं होते थे, योग्य व्यक्तिओं पर यह दबाब बनाया जाता था कि जिम्मेदारी लें. यदि राष्ट्रीय या शाखा के नए पदाधिकारियों के चयन की बात आती और यदि दो योग्य व्यक्ति निकल कर आते तो समाज के लोग ही मिल बैठ कर एक नाम वापस करा देते थे. फिर धीरे-धीरे चुनाव का दौर शुरू हुआ, वोट पड़ने लगे. स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि गुटबाजी शुरू हो गई. चुनाब प्रचार होने लगे. ये गुट अपने वोट अधिक करने के लिए अपने परिचितों को चुनाव से पहले सदस्य बनाने लगे. शुरुआत में जो सदस्य बनता था वह ही सदस्यता शुल्क देता था और वह ही अपना किराया देकर अधिवेशन में वोट डालने जाता था. लेकिन बाद में जो प्रत्याशी बनना चाहता था वह ही सदस्यता शुल्क देकर नए सदस्य बनवाने लगा, अपने पैसे खर्च करके उन्हें अधिवेशन ले जाने की व्यवस्था करने लगा, मानों की यह कोई investment हो जिससे बाद में कमाई देगा. जब कि सभी को मालुम है कि महासभा का पदाधिकारी बनने में समाज की मात्र सेवा ही करनी होती है, कोई कमाई बगैरह होती भी नहीं है. हाँ, यह आत्ममुग्धता तो हो ही सकती है कि वह समाज का नेता है.
उस समय भी प्रायः मात्र दो power center हो जाया करते थे, लेकिन अब अनेक power-center बन गए हैं. उनका काम एक को पटकना, दुसरे को गिराना आदि कार्य ही रह गए हैं. अलग-अलग power centers अब राजनैतिक पार्टियों की तरह से गठबंधन भी कर लेते हैं. उनका उद्देश्य समाज सेवा का कम और कोरी नेतागीरी करना अधिक है. उन्हें समाज और संगठन के लिए काम करने की कोई भावना नहीं है. वे यह भूल जाते हैं कि हम सब हैं तो एक ही समाज के. सब अपने नजदीक के या दूर के रिश्तेदार हैं. बहुत से power-centers दिखाते तो यह हैं कि वे बिल्कुल निष्पक्ष हैं, लेकिन परदे के पीछे रहकर तमाशा देखने में उन्हें आनंद आता है. आज स्थिति यह है कि किसी भी अयोग्य व्यक्ति को जिता दो, काम तो सब परदे के पीछे से होता रहेगा. उन्होंने यह पता लगाने का प्रयत्न भी नहीं किया होगा कि देश में महासभा की कितनी शाखाएं हैं, महासभा का विधान जानना तो दूर की बात है. इन power-centers ने समाज की एकता को तार तार कर दिया है. समाज में इस तरह की गंद देखने के बाद कोई भी योग्य व्यक्ति समाज का काम करने के लिए आगे नहीं आना चाहेगा.
क्या समाज के नेता आत्म-निरीक्षण करेंगे, क्या वे समाज हित में मिलजुल कर कार्य करेंगे? समाज में आज भी कई प्रकार की समस्याएं हैं, क्या वे उन्हें address करेंगे? हमरा सभी से निवेदन है कि समाज हित में अवश्य सोचे कि हमने अपने सुन्दर संगठन को आज कहाँ से कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है. आपसी झगडे गुटबाजी, वोटबाजी समाप्त करें. Power-center समाप्त करें. जब अपनी समाज में एकता होगी, संगठन मजबूत होगा तभी अन्य समाजों में हमारी अहमियत और अधिक होगी.
डॉ. अनिल कुमार जैन
जयपुर
बहुत ही सटीक वर्णन किया है मैं लेखक को धन्यवाद देना चाहूंगा