श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

पाँच सौ दिगम्बर मुनियों की कथा

भारत के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकाट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दण्डक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था । सुव्रता रूपवती और विदुषी थी । राजमंत्री का नाम बालक था । वह जैनधर्म से बहुत द्वेष रखता था । एक दिन इस शहर में पाँच सौ मुनियों का संघ आया । बालक मंत्री को अपने ज्ञान पर बहुत अभिमान था । वह शास्त्रार्थ करने को मुनिसंघ के आचार्य के पास जा रहा था । रास्ते में उसे एक खण्डक नाम के मुनि मिल गये । सो उन्हीं से चर्चा करते-करते झगड़ा करने लग गया और बहस करने लगा । तब मुनि ने इसकी युक्तियों का अच्छी तरह से खण्डन स्याद्वाद शैली से किया जिससे बालक मंत्री उस शैली का जवाब नहीं दे पाया । तब उसे लज्जित होकर घर लौटना पड़ा । इस अपमान की आग उसके ह्रदय में बहुत धधकी । उसने इसका बदला लेने की ठानी । इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भाँड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा । यह भाँड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हँसी-मजाक करने लगा । इधर उसने यह सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा, “महाराज ! आप इन लोगों की इतनी भक्ति करते हैं, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है ? जरा आँखे खोलकर देखिए कि सामने क्या हो रहा है ? उस भाँड की लीला देखकर राजा बहुत क्रोधित हुआ और क्रोध में अंधे होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने भी मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हैं उन सबको घानी में पेल दो ।” पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था । सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का विलम्ब न करते हुए तुरन्त ही मुनियों के घानी में पेले जाने की व्यवस्था में जुट गया । बालक मंत्री ने मुनियों को घानी में डलवाकर अपना बदला पूरा कर लिया ।
सच है – जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते । चाहे फिर उस पाप के फल से जन्म-जन्म के दुःख क्यों न भोगना पड़े । मुनिसंघ पर बहुत घोर उपसर्ग हुआ । परन्तु उन्होंने उसे सहज रूप में लिया और शुक्लध्यान पूर्वक अपने कर्मों का अभाव कर मोक्ष में पहुँच गये ।

शिक्षा – वास्तव में आत्मा का मुख्य शत्रु मोह-राग-द्वेष है जिसमें वशीभूत होकर जीव बहुत पाप करता है जिसके फलस्वरूप संसार के दुःखों को भोगता है । अतः आत्मा का सच्चा सुख आत्मा की आराधना में है।

साभार – आराधना कथा कोश ।
लेखक – ब्र. श्री नेमिदत्त जी ।

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