जैनधर्म में णमोकार मंत्र का बहुत महत्व है। प्रत्येक जैन, चाहे वह किसी भी आम्नाय का मानने वाला हो, इस मंत्र पर बहुत श्रद्धा रखता है। आचार्यों एवं विद्वानों का मत है कि इस मंत्र का किसी भी अवस्था में, किसी भी समय स्मरण करने से सारे विघ्नों का नाश होता है, अतः इसका सदा स्मरण करते रहना चाहिये।
णमोकार मंत्र में पांच पद है, जिनमें क्रमशः अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार किया गया है। हम यहाँ मंत्र के अन्तिम पद की चर्चा करेंगे। इसमें लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार किया गया है। यदि इसका शुद्ध शब्दार्थ लिया जाए तो लोक के समस्त साधु, चाहे वे जैन हों या जैनेतर, इस पद में सन्निहित हो जाते हैं। इसी संदर्भ में ‘आर्य समाज’ के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में जैनों की आलोचना करते हुए लिखा है कि जैन लोग बोलते तो हैं कि लोक के ‘समस्त साधुओं को नमस्कार’ लेकिन अर्थ लेते हैं- लोक के ‘समस्त जैन साधुओं’ को नमस्कार।
लेकिन आज स्थिति और अधिक खराब प्रतीत होती है। जैनों ने इस अन्तिम पद का अर्थ यदि यह भी लिया होता कि ‘लोक के समन्त जैन साधुओं को नमस्कार’, तो जैनों का विश्व में कुछ और ही स्थान होता। आज जैन समाज विभिन्न आम्नायों तथा सम्प्रदायों में विभक्त है; इसीलिए जैन इस अन्तिम पद का अर्थ मात्र यह ही नहीं लेते कि ‘लोक के समस्त जैन साधुओं को नमस्कार’, बल्कि वे और भी दो कदम आगे हैं। यदि कोई व्यक्ति दिगम्बर है तो वह इस पद का अर्थ निकालता है- ‘लोक के समस्त दिगम्बर जैन साधुओं को नमस्कार’। श्वेताम्बर इसका अर्थ लेता है- ‘लोक के समस्त श्वेताम्बर जैन साधुओं को नमस्कार’। इनमें भी विभिन्न भेद हैं, जैसे-तेरापंथी, बीस पेथी आदि। यदि कोई तेरापंथी स्थानकवासी है तो वह इसका अर्थ लेता है- ‘लोक के समस्त तेरापंथी स्थानकवासी जैन साधुओं को नमस्कार’। इसके अतिरिक्त साधुओं में जातीय एवं क्षेत्रीय आधार पर भी बहुत सारे भेद हैं। जिस जाति और क्षेत्र का श्रावक है, वह उस जाति एवं क्षेत्र के साधुओं पर ही अधिक श्रद्धा रखता है तथा उन्ही को नमस्कार करता है, अन्य को नहीं।
यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि णमोकार मंत्र के अन्तिम पद का जो सीधा-सादा अर्थ होना चाहिये था, आज उसे बहुत विकृत कर दिया गया है। कई बार देखा गया है कि दिगम्बर जैन श्वेताम्बर साधुओं को तथा श्वेताम्बर जैन दिगम्बर साधुओं को नमस्कार नहीं करते हैं, बल्कि उल्टे निंदा करते हैं। ऐसी स्थिति में जैनेतर साधुओं को नमस्कार करने की बात तो बहुत दूर की है। आखिर इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है?
इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कट्टरपंथी जैन श्रावक तो हैं ही, लेकिन उनसे अधिक जिम्मेदार विभिन्न आम्नायों के कट्टरपंथी जैन साधु हैं। कई बार देखा गया है कि यदि जैनों को दो अलग-अलग आम्नायों के साधु रास्ते में बिहार करते समय आमने-सामने पड़ भी जाएँ तो वे एक-दूसरे से कुशल-क्षेम भी नहीं पूछते हैं। आपस में बात करना तो दूर रहा, मन में स्पर्धा / ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है। ये साधु आपस में एक-दूसरे को नजर उठा कर देखने में ही पाप बन्ध होने का भय अनुभव करते हैं। कई बार देखा गया है कि इन्हीं साधुओं के कहने पर श्वेताम्बर साधुओं को दिगम्बर धर्मशालाओं में तथा दिगम्बर साधुओं को श्वेताम्बर धर्मशालाओं में नहीं ठहरने दिया जाता है।
आज के भौतिकवादी युग में मांसाहार का प्रचार दिनोंदिन बढ़ रहा है। शाकाहारियों की संख्या में दिन-प्रतिदिन कमी आती जा रही है। धर्म के प्रति लोगों को अश्रद्धा होती जा रही है। ऐसी स्थिति में यदि जैन आपस में वैमनस्य रखेंगे तो आने वाली पीढ़ी जैनधर्म से विमुख होती चली जाएगी। वह तो यही निष्कर्ष निकालेगी कि जब जैनधर्म में छोटी-छोटी बातों को ले कर इतना विवाद है, तब इसमें अवश्य कहीं कोई खोट होगी और इस तरह उसकी जैनधर्म के प्रति आस्था लगभग समाप्त हो जाएगी। आज के इस विकासवादी युग में यदि हम समय रहते अपने बेबुनियाद एवं संकुचित विचारों से ऊपर नहीं उठ पाये तो निश्चित रूप से अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए विरासत में जैनधर्म के प्रति मात्र अश्रद्धा ही दे पायेंगे; अतः स्थिति बद से बदतर हो इससे पूर्व प्रत्येक जैन का कर्तव्य है कि वह इस मुद्दे पर भलीभांति विचार करे तथा आगे आने वाली जैन पीढ़ी को समाज का एक संगठनात्मक रूप प्रदान करे।
आज प्रत्येक कार्य में राजनीति का बहुत अधिक हस्तक्षेप रहता है। यदि आप संगठित हो कर एक मंच से कोई एक आवाज उठा रहे हैं, तो थोड़ी उम्मीद है कि शायद कोई आपकी आवाज सुन ले, वरना छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे लोगों को घास कौन डालेगा? इसी कारण आज णमोकार मंत्र के अन्तिम पद की तर्कपूर्ण एवं उचित व्याख्या की अत्यन्त आवश्यकता है। अब हम यहाँ देखेंगे कि प्राचीन काल में णमोकार मंत्र के अन्तिम पद को किस रूप में लिया जाता था।
णमोकार मंत्र की प्राचीनता के संबंध में लोगों का मानना है कि यह मंत्र अनादि है क्योंकि अरिहन्त सिद्ध तथा साधु अनादि काल से होते चले आ रहे हैं। वैसे इसका प्राचीनतम उल्लेख श्रीधरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त तथा भूतवली कृत ‘षट्ङ्खण्डागम’ में मंगलाचरण के रूप में मिलता है। (ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के राजा खारबेल के उदयगिरी के एक शिलालेख में णमोकार मंत्र के पहले दो पद ही मिलते हैं, यह इस मंत्र का प्राचीनतम शिलालेखीय प्रमाण है।) ‘भगवती आराधना’ की टीका में इसे गणधरकृत कहा है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि णमोकार मंत्र बहुत प्राचीन है तथा जैनों के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दो सम्प्रदायों में विभक्त हो जाने के पश्चात् भी अनवरत रूप से इसे मान्यता दी जाती रही है। इसके मूल पाठ में भी अन्तर नहीं आया है। इस मंत्र के अन्तिम पद में ‘साहू’ से पूर्व ‘सव्व’ शब्द का प्रयोग पहले भी होता था, आज भी होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन जैनाचार्य (श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों) उदार विचारधारा वाले थे। श्वेताम्बर तथा दिगम्बर भेद होने के बाद भी उनके मन में कभी वैमनस्य नहीं आया बल्कि सौहार्द का वातावरण बना रहा। इसी कारण णमोकार मंत्र में भी कोई अन्तर नहीं आया तथा दोनों सम्प्रदाय के आचायों के अनुसार पांचवें पद का अर्थ मात्र ‘लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार’ ही था।
अब प्रश्न यह है कि साधु किसे कहें? दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार साधु वह है जो अट्टाईस मूल गुणों को धारण करे। ये अट्टाईस मूल गुण हैं- पांच महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रिय-जय, छह आवश्यक तथा सात विशेष। जो इन गुणों का धारण नहीं करते वे साधु नहीं हैं, अतः इन साधुओं को ही नमस्कार करना चाहिये। इसी प्रकार श्वेताम्बरों की अपनी अलग परिभाषा है; लेकिन श्वेताम्बर-दिगम्बर-भेद से पूर्व तो साधु की एक ही परिभाषा रही होगी, तव णमोकार मंत्र के अन्तिम पद में ‘सव्व’ शब्द के प्रयोग का क्या कारण है? इसके उत्तर में कुछ विद्वानों का मत है कि साधु पांच प्रकार के होते हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ एवं स्रातक। अतः अन्तिम पद में जो यह कहा गया है कि सब साधुओं को नमस्कार, वह इन पाँच प्रकार के साधुओं के लिए कहा गया है; लेकिन यह युक्ति तर्क-संगत नहीं लगती; क्योंकि ये पांचों साधु भी 28 मूलगुणों के धारक होते हैं, और जब साधु की एक परिभाषा नियत कर दी गयी तब उसमें और भेद देखने का कोई प्रयोजन नहीं है। जिस प्रकार अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य तथा उपाध्याय की परिभाषाएँ निश्चित हैं तथा उन्हें नमस्कार करने के लिए णमोकार मंत्र के प्रथम चार पदों में ‘सब्ब’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसी प्रकार जब साधु की परिभाषा भी निश्चित कर दी गयी है कि उमे अदाईस मूल गुणों का धारक होता चाहिये, तब पांचवें पद में ‘सव्व’ शब्द का का प्रयोजन है ? उपरोक्त पाँचों प्रकार के साथ अदाईस मूल गुणधारी होते ही हैं. अत. प्रश्न जहाँ-का-तहाँ बना रहता है। कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता।
जैनधर्म अनेकान्त-मूलक है। इस धर्म में विश्व के सभी दर्शन / धर्म किसी-न-किसी अपेक्षा से समाहित हो जाते हैं। जिस प्रकार जैनधर्म में यह व्यापकता है. उगी प्रकार ‘णमोकार मंत्र’ के अन्तिम पद में भी वही ‘व्यापकता’ सत्रिहित है। इतने गुणधारी साधु हो सकता है, या उतने गुणधारी हो सकता है आदि बातें तो विभिन् आनायों द्वारा बाद में बनायी गयी प्रतीत होती हैं। हमें तो इस रूप में सोचना चाहिये कि जैनधर्म में व्यक्ति-पूजा का कोई महत्व नहीं है, बल्कि व्यक्ति में मौजूद उसके गुणों से ही मतलब है। यदि कोई व्यक्ति मुनियों के गुण किसी एक अंश में भी रखता है तो उसके वे गुण नमस्कार करने योग्य हैं। उन अंशतः गुणों के कारण ही वह व्यक्ति भी नमस्कार करने योग्य है। णमोकार मंत्र के अन्तिम पद में ‘सब्बा शब्द का प्रयोग भी इसी कारण किया गया है।
बहुत से साधु ऐसे हैं, जो ‘जैन’ नहीं हैं, लेकिन उनके आचार-विचार जैन साधुओं जैसे हैं। तो क्या उनके वे गुण वन्दनीय नहीं हैं? यहाँ मैं एक कहानी उद्धृत करूंगा। एक बार एक सुनार राजमुकुट का बहुमूल्य हीरा साफ कर रहा था। इतने में एक कलन्दर साधु भोजन करने के लिए वहाँ आ गया। सुनार ने उस साधु को ऊँचे आसन पर बिठाया और स्वयं उस हीरे को वहीं छोड़ साधु के भोजन का प्रबन्ध करने घर के अन्दर चला गया। वहाँ एक शुतुरमुर्ग पहले से ही घूम रहा था। वह इस हरि को निगल गया। भोजन का प्रबन्ध करके जब वह सुनार वापिस आया तब उसके तो होश उड़ गये। उसने साधु से पूछा ‘क्या यहाँ कोई व्यक्ति आया था ?’ साधु ने कहा- ‘नहीं’। फिर उसने पूछा कि ‘वह हीरा कहाँ है?’ इस पर वह साधु मौन बना रहा। सुनार के बार-बार पूछने पर भी साधु कुछ नहीं बोला। तब सुनार को विश्वास हो चला कि वह हीरा इसी साधु ने चुराया है। सुनार को क्रोध आ गया तथा वह साधु को डण्डे से पीटने लगा। डण्डे से मारने पर भी वह साधु चुप बना रहा। पीटते-पीटते डण्डा सुनार के हाथ से छूट गया तथा वह शुतुरमुर्ग की गर्दन पर जा लगा। इससे वह हीरा शुतुरमुर्ग के गले से बाहर आ निकला। यह देख सुनार के आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उसने साधु से क्षमा मांगी तथा कहने लगा- ‘यदि आप मुझे पहले ही यह बता देते कि हीरा शुतुरमुर्ग ने निगल लिया है, तो मुझसे यह अनर्थ न होता। आपने मुझे यह बात क्यों नहीं बतायी।’ इस पर साधु बोला- ‘यदि मैं तुम्हें यह बता देता कि हीरा शुतुरमुर्ग ने निगल लिया है तो तुम तुरन्त उस हीरे को पाने के लिए शुतुरमुर्ग को मार डालते तथा उस हिंसा का दोष मुझे लगता’ ।
यहाँ प्रश्न यह है कि ऐसे महान् विचार वाला वह कलन्दर साधु क्या साधु नहीं है? क्या उसे नमस्कार करना अनुचित होगा? आज भी देश-विदेश में अनेक ऐसी विभूतियां हैं जो साधु-जीवन बिता रही हैं, दूसरों का दुःख दूर करने में लगी हुई हैं तथा प्राणिमात्र की रक्षा चाहती हैं। क्या ‘लोक के समस्त साधुओं’ में ऐसे व्यक्तियों की गिनती करना अनुचित होगा?
वस्तुतः जैनों ने साधु की परिभाषा को जटिल, सीमित और क्लिष्ट बना लिया है तथा अपने-अपने आम्नाय / सम्प्रदाय के हिसाब से उसकी व्याख्या कर ली है। इसी कारण यह व्यापक ‘णमोकार महामंत्र’ मात्र कुछ व्यक्तियों का मंत्र बन कर रह गया है। यदि हमारे विद्वान् इस मंत्र के पांचवें पद की पुनः तर्क-संगत तथा स्पष्ट व्याख्या करने की हिम्मत करें तो यह णमोकार महामंत्र मात्र जैनों तक ही सीमित न रह कर विश्वव्यापी हो जाएगा तथा जैनधर्म की इस व्यापकता को देख कर अन्य / जैनेतर लोगों की रुझान भी जैनधर्म की ओर आपोआप होने लगेगी।
‘मेरी भावना’ में पे. जुगल किशोर मुख्तार जी ने लिखा है –
विषय की आशा नहीं जिनके साम्य भाव धन रखते हैं।
निज-पर-के-हित-साधन में जो निशि-दिन तत्पर रहते हैं।।
स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं।
ऐसे ज्ञानी साधु जगत् के दुःख समूह को हरते हैं ॥
यानी जिनके विषय-भोगों की इच्छा नहीं है, जो समता-भाव धारण किये हुए हैं, जो अपने तथा दूसरों के कल्याण के लिए प्रयत्नशील हैं, जो स्वार्थ-त्याग का निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, ऐसे साधु संसार के दुःखों को हर लेते हैं। क्या साधु की यह परिभाषा अ-पर्याप्त है? इतना होने पर भी किसी व्यक्ति के साधु होने अथवा न होने के लिए क्या उसमें स्वेताम्बर, दिगम्बर जैन या जैनेतर का भेद ढूंढना आवश्यक है?
डॉ. अनिल कुमार जैन
जयपुर