श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

कर्म के भेद-प्रभेद

गतांक के आगे–

“नाना मिनोतीति नाम” जो जीव के चित्र-विचित्र रूप बनाता है वह “नाम-कर्म” है। इसकी तुलना चित्रकार से की है। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगों के योग से सुन्दर असुन्दर आदि अनेक चित्र निर्मित करता है, उसी तरह नाम कर्म रूपी चितेरा, जीव के भले-बुरे, सुन्दर-असुन्दर, लम्बे-नाटे, मोटे-पतले, छोटे-बड़े, सुडौल बेडौल आदि शरीरों का निर्माण करता है। जीव की विविध आकृतियों एवं शरीरों का निर्माण इसी नाम-कर्म की कृति है। विश्व की विचित्रता में नाम-कर्म रूप चितेरे की कला अभिव्यक्त होती है। इस नाम-कर्म के मुख्य बयालीस भेद हैं तथा इसके उपभेद कुल तेरानवे हो जाते हैं-

1. गति – जिस नाम-कर्म के उदय से जीव एक जन्म-स्थिति से अगली जन्म-स्थिति में जाता है, वह गति नाम-कर्म है। गतियाँ चार हैं मनुष्य, देव, नरक एवं तिर्यंच।

2. जाति – जिस नाम-कर्म के उदय से सदृशता के कारण जीवों का बोध हो, उसे जाति नाम-कर्म कहते हैं। जातियाँ पाँच हैं- एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय तथा पाँच इन्द्रिय।

3. शरीर – शरीर की रचना करने वाले कर्म को शरीर नाम-कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर।

4. अंगोपांग – जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग और उपांगों की रचना होती है, अर्थात् शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की रचना करने वाला कर्म ‘अंङ्गोपाङ्ग’ नाम-कर्म है। इसके तीन भेद हैं-औदारिक वैक्रियिक व आहारक। तीनों अपने-अपने शरीर के अनुरूप अङ्गोपाङ्गों की रचना करते हैं। तैजस और कार्मण शरीर सूक्ष्म होने के कारण अङ्गोपाङ्ग रहित होते हैं।

5. निर्माण – शरीर के अंङ्गोपाङ्गों की समुचित रूप से रचना करने वाला कर्म ‘निर्माण’ नाम-कर्म है।

6. शरीर बन्धन – शरीर का निर्माण करने वाले पदलों को परस्पर बाँधने वाला कर्म शरीर बन्धन नाम-कर्म हैं। पूर्वोक्त शरीर के अनुसार यह पाँच प्रकार का है।

7. शरीर संघात – निर्मित शरीर के परमाणुओं को परस्पर छिद्ररहित बनाकर एकीकृत करने वाले कर्म को शरीर संघात नाम-कर्म कहते हैं। इसके अभाव में शरीर तिल के लड्डू की तरह अपुष्ट रहता है। यह भी शरीरों की तरह पाँच प्रकार का होता है।

8. संस्थान – शरीर को विविध आकृतियाँ प्रदान करने वाला कर्म ‘संस्थान’ नाम-कर्म है’। इसके छह भेद हैं-

(1) समचतुरस्त्र संस्थान – सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जीव के सुन्दर, सुडौल और समानुपातिक शरीर बनाने वाले कर्म को ‘समचतुरस्त्र-संस्थान’ नाम-कर्म कहते हैं।

(2) न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान – ‘न्यग्रोध’ अर्थात् ‘वट के वृक्ष’ की तरह, नाभि से ऊपर की ओर मोटे और नीचे की ओर पतले शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को ‘न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान’ नाम-कर्म कहते हैं।

(3) स्वाति – सर्प की वामी की तरह नाभि के ऊपर पतले तथा नीचे की ओर मोटे आकार का शरीर बनाने वाला संस्थान ‘कर्म स्वाति संस्थान’ नाम-कर्म है।

(4) कुब्जक – कुबड़ा शरीर बनाने वाले कर्म को ‘कुब्जक संस्थान’ नाम-कर्म कहते हैं।

(5) वामन संस्थान – बौना शरीर बनाने वाला कर्म ‘वामन-संस्थान’ नाम-कर्म है।

(6) हुण्डक – अनिर्दिष्ट आकार को हुण्डक कहते हैं। ऐसे अनिर्दिष्ट आकार का विचित्र शरीर बनाने वाले कर्म को ‘हुण्डक संस्थान’ नाम-कर्म कहते हैं।
9. संहनन – अस्थि बन्धनों में विशिष्टता को उत्पन्न करने वाले कर्म को ‘संहनन नाम कर्म’ कहते हैं। वेष्टन, त्वचा, अस्थि और कीलों के बन्धन की अपेक्षा इसके छह भेद हैं -1. वज्र-वृषभ नाराच संहनन 2. वज्र-नाराच संहनन 3. नाराच संहनन 4. अर्द्ध-नाराच संहनन 5. कीलक संहनन 6. असंप्राप्ता संपाटिका संहनन।’

10. वर्ण – शरीर को वर्ण (रंग) प्रदान करने वाले कर्म को ‘वर्ण नाम-कर्म’ कहते हैं। यह कृष्ण, नील, रक्त, पीत एवं श्वेत रूप पाँच प्रकार के होते हैं।

11. गंध – शरीर को सुगन्ध एवं दुर्गन्ध प्रदान करने वाले कर्म को ‘गन्ध-नाम-कर्म’ कहते हैं।

12. रस – तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर और कसैला रस अर्थात् स्वाद उत्पन्न करने वाले कर्म को ‘रस नाम-कर्म’ कहते हैं।

13. स्पर्श – हल्का, भारी, कठोर, मृदु, शीत, उष्ण तथा स्निग्ध, रुक्ष आदि स्पर्श के भेदों से शरीर को प्रतिनियत स्पर्श उत्पन्न करानेवाला कर्म ‘स्पर्श नाम-कर्म’ कहलाता है।

14. आनुपूर्व्य – देह-त्याग के बाद नूतन शरीर धारण करने के लिए होने वाली गति को ‘विग्रहगति’ कहते हैं। विग्रहगति में पूर्व शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को ‘आनुपूर्व्य नाम-कर्म’ कहते हैं। गतियों के आधार पर यह चार प्रकार का है।

15. अगुरुलघु – जो कर्म शरीर को न तो लौह पिण्ड की तरह भारी, न ही रुई की पिण्ड की तरह हल्का होने दे, वह ‘अगुरुलघु नाम-कर्म’ है। इस कर्म से शरीर का आयतन बना रहता है। इसके अभाव में जीव स्वेच्छा से उठ-बैठ भी नहीं सकता।

16. उपघात – इस कर्म के उदय से जीव विकृत बने हुए अपने ही अवयवों से कष्ट पाता है। जैसे प्रतिजिह्वा और चोरदन्त आदि।’

17. परघात – दूसरों को घात करने के योग्य तीक्ष्ण नख, सींग, दाढ़ आदि अवयवों को उत्पन्न करने वाले कर्म को ‘परघात नाम-कर्म कहते हैं।

18. उच्छ्‌वास – इस कुर्म की सहायता से श्वासोच्छ्‌वास संचालित होता है।
 19. आतप – जिस कर्म के उदय से अनुष्ण शरीर में उष्ण प्रकाश निकलता है। यह कर्म सूर्य और सूर्यकान्त मणियों में रहने वाले एकेन्द्रियों को होता है। उनका शरीर शीतल होता है तथा ताप उष्ण।

20. उद्योत – चन्द्रकान्त मणि और जुगनू आदि की तरह शरीर में शीतल प्रकाश उत्पन्न करने वाला कर्म ‘उद्योत नाम-कर्म’ है।

21. विहायोगति – इस कर्म के उदय से जीव की अच्छी या बुरी चाल होती है। यह प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार की है। हाथी, हंस आदि की प्रशस्त चाल को प्रशस्त विहायोगति तथा ऊंट, गधा आदि की अप्रशस्त चाल को ‘अप्रशस्त विहायोगति’ कहते हैं। यहाँ गति का अर्थ ‘गमन’ या ‘चाल’ है।

22. प्रत्येक शरीर – जिस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, वह ‘प्रत्येक शरीर नाम-कर्म’ है। अर्थात् जिस कर्म के उदय से भिन्न-भित्र शरीर प्राप्त होता है, वह ‘प्रत्येक शरीर नाम-कर्म’ है।

23. साधारण – जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर प्राप्त हो वह ‘साधारण नाम-कर्म’ है।

24. त्रस – जिस कर्म के उदय से द्वि-इन्द्रियादि जीवों में जन्म हो उसे ‘जस नाम-कर्म’ कहते हैं।

25. स्थावर – पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘स्थावर नाम कर्म’ है।

26. बादर – स्थूल शरीर उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘बादर नाम-कर्म’ है।

27. सूक्ष्म – सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को बाधित एवं दूसरों से बाधित न होने वाले शरीर को उत्पन्न करने वाला कर्म ‘सूक्ष्म नाम-कर्म’ है। इस कर्म का उदय मात्र एकेन्द्रिय जीवों को होता है।

28. पर्याप्ति – जिस कर्म के उदय से जीव स्व-योग्य आहारादिक पर्याप्तियों को पूर्ण कर सके वह ‘पर्याप्ति नाम-कर्म’ हैं।

29. अपर्याप्ति – जिस कर्म के उदय से जीव स्व-योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर सके, उसे ‘अपर्याप्ति नाम-कर्म’ कहते हैं।

30. स्थिर – शरीर के अस्थि, माँस, मज्जा आदि धातु, उपधातुओं को यथास्थान स्थिर रखने वाले कर्म को ‘स्थिर नाम-कर्म’ कहते हैं।

31. अस्थिर – शरीर के धातु तथा उपधातुओं को अस्थिर रखने वाला कर्म ‘अस्थिर नाम-कर्म’ है।

32. शुभ – शरीर के अवयवों को सुन्दर बनाने वाला कर्म ‘शुभ नाम-कर्म’ है।

33. अशुभ – ‘अशुभ नाम-कर्म’ असुन्दर शरीर प्राप्त कराता है।

34. सुभग – सौभाग्य को उत्पन्न करने वाला कर्म ‘सुभग नाम-कर्म’ है। अथवा जिस कर्म के उदय से सबको प्रीति कराने वाला शरीर प्राप्त होता है। उसे ‘सुभग नाम-कर्म’ कहते हैं।

35. दुर्भग – गुण-युक्त होने पर भी दुर्भग नाम-कर्म अन्य प्राणियों में अप्रीति उत्पन्न कराने वाला शरीर प्रदान करता है।

36. सुस्वर – कर्णप्रिय स्वर उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘सुस्वर नाम-कर्म’ है।

37. दुःस्वर – ‘दुःस्वर नाम कर्म’ के उदय से कर्ण-कटु, कर्कश स्वर प्राप्त होता है।

38. आदेय – इस कर्म के उदय से जीव बहुमान्य एवं आदरणीय होता है।’ प्रभायुक्त शरीर भी ‘आदेय’ नाम-कर्म की देन है।’

39. अनादेय – ‘अनादेय’ कर्म के उदय से अच्छा कार्य करने पर भी गौरव प्राप्त नहीं होता। यह निष्प्रभ शरीर का कारण भी है।’

40. यशः – कीर्ति – जिस कर्म के उदय से लोक में यश, कीर्ति, ख्याति और प्रतिष्ठा मिलती है वह ‘यशः कीर्ति नाम कर्म’ है।’

41. अयशः कीर्ति- इस कर्म के उदय से अपयश मिलता है।

42. तीर्थंकर : ‘तीर्थंकर’ नाम-कर्म त्रिलोक पूज्य एवं धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक बनाता है।

इस प्रकार नाम कर्म के मूल बयालीस भेद तथा उत्तर भेदों को मिलने पर कुल 93 (तेरानवे) भेद हो जाते हैं। इनमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं।’

नाम-कर्म के बन्ध का कारण

मन-वचन-काय की कुटिलता अर्थात सोचना कुछ बोलना कुछ और करन कुछ, इसी प्रकार अन्यों से कूटिल प्रवृत्ति कराना, मिथ्या दर्शन, चुगलखोरी, चिन की अस्थिरता, परवञ्चन की प्रवृत्ति, झूठे माप-तौल आदि रखने से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है।’

इसके विपरीत मन-वचन-काय की सरलता, चुगलखोरी का त्याग, सम्यकृ दर्शन, चित्त की स्थिरता आदि शुभ नाम-कर्म के बन्ध का कारण होता है। तीर्थंकर प्रकृति नाम-कर्म की शुभतम प्रकृति है, इसका बन्ध भी शुभतम परिणामों से होता है। तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के सोलह कारण बताये गये हैं।

सम्यक् दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, शील और व्रतों का निर्दोष परिपालन, निरन्तर ज्ञान-साधना, मोक्ष की ओर प्रवृत्ति, संसार से सतत भीति, शक्ति के अनुसार तप और त्याग, भले प्रकार की समाधि, साधुजनों की सेवा/सत्कार, पूज्य आचार्य, बहुश्रुत व शास्त्र के प्रति भक्ति, आवश्यक धर्म कार्यों का निस्तर पालन, धार्मिक प्रोत्साहन व धर्मा जनों के प्रति वात्सल्य यह सब तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण है।

गोत्र-कर्म

लोक-व्यवहार सम्बन्धी आचरण को गोत्र माना गया है। जिस कुल में लोक पूज्य आचरण की परम्परा है, उसे ‘उच्च गोत्र’ कहते हैं तथा जिसमें लोकनिन्दित आचरण की परम्परा है, उसे ‘नीच गोत्र’ नाम दिया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म ‘गोत्र-कर्म’ कहलाता है।

इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गयी है। जैसे-कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही ऐसे होते हैं, जिन्हें लोग कलश बनाकर चन्दन, अक्षत आदि मङ्गल द्रव्यों से अलंकृत करते हैं और कितने ही ऐसे होते हैं जिनमें मदिरा आदि निन्द्य पदार्थ रखे जाते हैं. इसलिए निम्न माने जाते हैं। इसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से जीव कुलीन/पूज्य और अपूज्य/अकुलीन घरों में उत्पन्न होता है।’ गोत्र कर्म दो प्रकार का होता है गोत्र।

1. उच्च गोत्र तथा 2. नीच गोत्र

कर्म के बन्ध का कारण

परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, दूसरे के सद्भूत-विद्यमान गुणों का आच्छादन तथा अपने असद्भूत-अविद्यमान गुणों को प्रकट करना यह सब नीच गोत्र के बन्ध के कारण हैं। इसके विपरीत अपनी निन्दा, दूसरों की प्रशंसा, अपने गुणों का आच्छादन, पर के गुणों का उ‌द्भावन, गुणाधिकों के प्रति विनम्रता तथा ज्ञानादि गुणों में श्रेष्ठ रहते हुए भी, उसका अभिमान न करना, ये सब उच्च गोत्र के बन्ध का कारण है।

अन्तराय-कर्म

जो कर्म विघ्न डालता है, उसे अन्तराय-कर्म कहते हैं। इस कर्म के कारण आत्मशक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है। अनुकूल साधनों और आन्तरिक इच्छा के होने पर भी जीव इस कर्म के कारण अपनी मनोभावना को पूर्ण नहीं कर पाता।

इस कर्म को भण्डारी से उपमित किया है। जिस प्रकार किसी दीन-दुःखी को देखकर दया से द्रवीभूत राजा दान देने का आदेश करता है, फिर भी भण्डारी बीच में अवरोधक बन जाता है। वैसे ही यह अन्तराय-कर्म जीव को दान-लाभादिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न करता है। इसके पाँच भेद हैं’-

(1) जिस कर्म के उदय से दान देने की अनुकूल सामग्री और पात्र की उपस्थिति में भी दान देने की भावना न हो, वह ‘दानान्तराय कर्म’ है।

(2) जिस कर्म के उदय से बुद्धिपूर्वक श्रम करने पर भी लाभ होने में बाधा हो वह ‘लाभान्तराय कर्म’ है।

(3) जिसके उदय से प्राप्त भोग्य वस्तु का भोग न किया जा सके, वह ‘भोगान्तराय कर्म’ है।

(4) जिसके उदय से प्राप्त उपभोग्य वस्तु का उपभोग न किया जा सके, वह ‘उपभोगान्तराय कर्म’ है।
(5) जिसके उदय से सामर्थ्य होते हुए भी कार्यों के प्रति उत्साह न हो, उसे ‘वीर्यान्तराय कर्म’ कहते हैं।

अन्तराय कर्म के बन्ध के कारण – दान आदि में बाधा उपस्थित करने से, जिन पूजा का निषेध करने से पापों में रत रहने से, मोक्ष-मार्ग में दोष बताकर विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।’

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