श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

मंगल संवाद के अभाव में परिवारों में सांगठनिक अभाव

शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है ||
प्रेम जो केवल समर्पण भाव को ही जानता है
और उसमें ही स्वयं की धन्यता बस मनाता है
दिव्य ऐसे प्रेम में ईश्वर स्वयं साकार है ||1

व्यक्ति परिवार की इकाई है। जब समान विचारों, समान रीति रिवाज, सांस्कृतिक रूप से भी समान हो, लोगो का गण बनता है तो उसे समाज कहते है। जब ऐसे अनेक समाजों का लक्ष्य एक ही हो तो उस विराट इकाई को राष्ट्र कहते है।
लेकिन आज काम , क्रोध, लोभ मोह, मद व अधीरता इन षड रिपुओं ने परिवाररूपी दीवार में हेयर लाइन फैक्चर( दरार) नजर आने लगा है। हमारा मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में तिल तिल जल रहा है।
परिवार को केवल सहोदर भाई बहिनों से अभिप्राय लगाना संकुचितता होगा। परिवार एक शक्ति का पर्याय है
परिवार एक दूसरे को समझने और सहयोग करने की अभिव्यक्ति है।
परिवार के एक सदस्य का सुख दुख हम सबका सुख और दुख है ये समझने का भाव है।
परिवार प्रेम और समर्पण की स्वस्फूर्त अभिव्यक्ति है।

“जब हमने वसुधैव कुटुम्बकम के वैचारिक अधिष्ठान को आत्मसात किया है तो फिर हमारी दृष्टि और विचार करने की परिधि भी विराट और वृहद होनी चाहिए।”

आज हम हम प्रेम की सामाजिक रैसिपी से वंचित हो रहे है।
समूह से अकेले बन रहे है,
अनेक से एक हो रहे,
गुण से गुणहीन हो रहे है। प्रेम की उपस्थिति सर्वत्र दिखाई नही देती है। जंहा(परिवार) व्यक्ति को अडिग होना चाहिए वो वही से डिग गया है।
परिवार की परिभाषा लुप्त हो गयी। मंगल संवाद बंद होगया।
अब आप किसी बच्चे से जो विद्यालय महाविद्यालय में अध्ययन कर रहा है उससे आप पूछेंगे तो वो आपको अपने परिवार में मम्मी पापा बहिन और स्वयं को बताएगा। दादा दादी, ताई ताऊजी, चाचा चाची ये उसकी दृष्टि में नही है। इसका दोषी वो अबोध बालक नही इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार है।
क्योकि हमने उसे ये अहसास अनुभव कभी करवाया ही नही और ना बताया की हमारे परिवार में और भी रक्त रिश्ते भी आते है।
आज विचार करे तो, ऐसे परिवार बहुत कम शेष है जो अखंड है, संगठित है, संयुक्त है।
एक समय था जब परिवार के सबसे बड़े व्यक्ति की आवाज को सब सदस्य सम्मान से मानते है।

इस अकेलेपन की वजह से कई नकारात्मक पक्षीय कुप्रभाव स्वयं मुखिया में तो परिलक्षित होते ही है साथ मे उसकी बच्चों में भी दिखते है।
हमारा धैर्य शायद अब जवाब दे चुका है इसकी अभिव्यक्ति हमारे विचार कौशल में दिखती है। हम सहोदर रिश्तो की समीक्षा करने से परहेज नही करते है। रक्तरिश्तों के प्रति विराट दृष्टि का अभाव दिखाई देता है। बड्डपन शब्द का अर्थ अनर्थ कर दिया है।
जरा रुक कर सोचना होगा कि आखिर हमारी मंजिल क्या है?
कहा जाना है हमे?
क्यो अकेलापन खा रहा है हमे?
फ़ोन बुक में हजार नम्बर लेकिन जब बात करने की सोचते है फिर वापिस रुक जाते है।
आखिर क्यों?
भारी मन (छोटे मन)से किया काम कभी अच्छा परिणाम नही देता है।
लघु (ओछी)सोच परिवार के संगठन को खत्म कर रही है।
यदि परिवारो के खंड खण्ड के मूल में जाएंगे तो कारण बहुत छोटे नही अपितु हास्यास्पद है जैसे…..मुझसे शादी में पूछा नही, मुझे टोका नही, मुझे विदा कम दिलवाई, मुझे कम दिया, मेरे साथ पक्षपात हुआ, मुझे तरीके से आमंत्रित नही किया आदि आदि।
यदि परिवारों में प्रेम की स्निग्धता को बचाये रखना है तो रिश्तों की समीक्षा करना बंद करे और बड्डपन को बनॉए रखे।
अनुज अपनो से बड़ो से सलाह मशविरा करे उनका सम्मान कभी कम नही होने दे।

प्रेम जो केवल समर्पण
भाव को ही जानता है।
और इसमे ही स्वयं की
धन्यता बस मानता है।।
प्रेम और प्यार के अंतर को समझना पड़ेगा।
प्रेम में निस्वार्थता है, समर्पण है, आंनद है। समीक्षा को कोई स्थान नही है। प्रेम में निरंतरता रहती है। जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते है उसी तरह अपनो से आत्मीयता रखे।

कलियुगी काली छाया को प्रभायुक्त(प्रकाशित) करना है तो प्रेम को विकसित करना होगा, प्रेम मय स्वभाव का निर्माण करना होगा।
हमारा परिवार बड़ा रहा। लेकिन मुझे याद नही की कभी कोई भाई नाराज हुआ हो। मंगल कार्य मे किसी को मनाने की आवश्यकता पड़ी हो। इतना अटूट प्रेम जिसकी बुनियाद इसी से पता चलती है कि आज भी जो चाचा चाची है उनका वात्सल्य इतना है जैसा आज से दशकों पूर्व था।
बस इसे बचालो ये चुनौती है हमारे समक्ष।
अपने बच्चों को हराभरा परिवार दो। मंगल संवाद की परंपरा डाले।

सादर।।
पवन कुमार जैन
परवेणी

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