श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

महावीर का पुनर्जन्म

ओम अर्हम नम:

इस जगत मे कुछ भी ऐसा नहीं है जो “मौलिक” हो । यहां हर चीज बार बार अलग अलग नाम से, अलग अलग रूपो में अलग अलग स्थान पर पुनः पुनः अवतरित होती रहती हैं । इसीलिए हमने इतिहास नहीं पुराण लिखे । जिसकी पुनरावृति होती रहे जो बार बार पुनः घटित होता रहे । हमारे यहां ऐसा नहीं ” कि एक बार ईसा मसीह हो गये ” तो ईसा के पूर्व और ईसा के बाद । ऐसा हमारी पुरातन सभ्यता मे नहीं है । हमारे चौबीस तीर्थंकर पहले भी हुए हैं और आगे भी होंगे । अलग अलग कालखंड मे अलग अलग महापुरुष हुए हैं जिन्होंने धर्म को समय के अनुकूल परिभाषित किया । महावीर से पहले तेईस तीर्थंकर हो चुके थे लेकिन उन्होंने किसी का नाम भी नहीं लिया । महावीर का मौलिक सूत्र है तुम्हारा उत्तरदायित्व आत्यंतिक है । न कोई भाग्य न कोई भगवान– तुम ही जिम्मेदार हो । सार-सूत्र महावीर का यह है कि तुम अपनी बागडोर अपने हाथ में ले लो । दुख है तो तुम कारण हो । अगर राह में कांटे है तो वे तुमने ही बोये हैं । महावीर का धर्म सांत्वना रहित है । इसीलिए महावीर के विचार में प्रार्थना की कोई जगह नहीं है । विचार काफी है । विचार का ही सम्यक रूप ध्यान बन जाता है । ध्यान का सम्यक रूप समाधि बन जाता है । समाधि मतलब समाधान। तुम जीवन को ठीक से देख लो वही मुक्ति है । अब सूत्र:
जाणिज्जह चिन्तिज्जह, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं ।
न य विसएसु, विरज्जइ, अहो सुबद्धो कवडगंठी ।।
जीव जन्म जरा और मरण से होने वाले दुख को जानता है । उसका विचार भी करता है : किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता है । अहो माया की गांठ कितनी सुदृढ है ।

जन्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतवो ।।
जन्म दुख है, बुढापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है। संसार दुख ही है जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं । आश्चर्य है सब दुख है फिर भी लोग पकडे हैं ।
आश्चर्य करते है क्योंकि वे उसी जगह से गुजरे जहां से तुम गुजर रहे हो । उन्होंने वही दुख भोगे जो तुम भोग रहे हो । उन्होंने वही पीड़ाये जानी जो तुम जान रहे हो । यही कारण है कि जैन तीर्थंकरों की भाषा मनुष्य के हृदय के बहुत करीब है क्योंकि वो उसी राह से गुजरे हैं जहां से मनुष्य गुजर रहा है ।
इसलिए महावीर का मार्ग संघर्ष का मार्ग है जहां शरणागति और प्रार्थना का कोई अवकाश नहीं है । यह अभय और अहिंसा का मार्ग है, भयभीत अहिंसक नहीं हो सकता और दूसरा भक्ति का मार्ग है । यह प्रार्थना और समर्पण का मार्ग है । दोनों ही मार्ग है तुम जिस पर चल सको ?

फूल, गुल, शम्मोकरम सारे ही थे
पर हमे उनमें तुम्ही भाये बहुत ।
जब देखिये कुछ और ही आलम है तुम्हारा
हर बार अजब रंग है हर बार अलग रूप ।।
( आचार्य महाप्रज्ञ और ओशो को समर्पित )

हरीश मधु बक्शी
हरसाना

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