ओम अर्हम नम:
भगवान ने तीर्थ चतुष्टय की स्थापना कर दूसरो को जगाने का अभियान शुरु कर दिया । उनकी साधना के दो प्रमुख स्तम्भ थे अंहिंसा और समता
अंहिंसा की साधना का अर्थ है –मन की ग्रंथियों को खोल डालना । यही है मुक्ति,, यही है स्वतन्त्रता । जिसका मन ग्रन्थियों से मुक्त नहीं है, वह किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा शासित हो या न हो, परतंत्र ही है ।
हमारा समाज राज्य द्वारा शासित है। मनुष्य का क्रोध उपशांत नहीं है, इसलिए वह दूसरों को अपना शत्रु बना लेता है । उसका मन शांत नहीं है, इसलिए वह अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा मानता है । उसकी माया उपशांत नहीं है इसलिए वह दूसरों के साथ प्रवंचनापूर्ण व्यवहार करता है । उसका लोभ उपशांत नहीं है इसलिए वह स्वार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों के स्वार्थ का विघटन करता है ।
जिस समाज में शत्रुता, ऊंच नींच की मनोवृत्ति, प्रवंचनापूर्ण व्यवहार व दूसरों के स्वार्थों का विघटन चलता है, वह स्वयंशासित नहीं हो सकता ।
जनतन्त्र शासन-तन्त्र में अंहिंसा का प्रयोग है । विस्तार आत्मानुशासन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दिशा में होता है । अगर जनतंत्र के नागरिक अंहिंसा निष्ट नहीं होते है तो उनका अस्तित्व कभी विश्वसनीय नहीं होता ।
अहिंसा का अर्थ है – अपने भीतर छुपी हुई पूर्णता में विश्वास और अपने ही जैसे दूसरे व्यक्तियों के भीतर छिपी हुई पूर्णता में विश्वास ।
हिंसा निरन्तर अपूर्णता की खोज में चलती है । राग और द्वेष की चिता में जलने वाला कोई भी आदमी पूर्ण नहीं होता । पर उस चिता को उपशांत करने वाला मुमुक्षू पूर्णता की दिशा में प्रस्थान कर देता है । महावीर ने ऐसे मुमुक्षुओं के लिए ही संघ का संघठन किया ।
इस व्यवस्था का आधार था भगवान का अंहिंसा, समता और सापेक्षता का दृष्टिकोण। इसीलिए भगवान आत्मानुशासन से मुक्त अनुशासन को कभी मूल्य नहीं दिया ।
यदि पात्र के बिना प्रकाश, छिलके के बिना फल और भाषा के बिना ज्ञान होता तो धर्म सम्प्रदाय से मुक्त हो जाता । पर दुनिया में ऐसा नहीं होता । धर्म दीप की लौ है तो सम्प्रदाय उसका पात्र । धर्म फल का सार है तो सम्प्रदाय उसका छिलका, धर्म चैतन्य है तो सम्प्रदाय उसको व्यक्त करने वाली भाषा । सम्प्रदाय जब आवरण बनकर धर्म पर छा जाता है तब पात्र छिलके और भाषा का मूल्य लौ, सार और ज्ञान से अधिक हो जाता है । क्रमश:
श्रमण महावीर (आचार्य महाप्रज्ञ) से चुनी हुई।
🙏🙏विनीत 🙏🏽🙏🏽
हरीश जैन “बक्शी”