ओम अर्हम नम:
भगवान महावीर तीर्थंकर थे । जो व्यक्ति सत्य का साक्षात और प्रतिपादन दोनो करता है, वह तीर्थंकर होता है । साधना काल में भगवान अकेले थे । अंतर और बाहर दोनो से । अब वे 4400 शिष्यों से घिरे बैठे हैं पर अंतर में अब भी अकेले हैं । उनके मन में प्राणियों के कल्याण की सहज भावना स्फूर्त हो रही है ।
भगवान ने परिषद के सम्मुख धर्म की व्याखा की । उसके दो अंग थे अंहिंसा और समता । भगवान ने कहा विषमता से हिंसा और हिंसा से व्यक्ति के चरित्र का पतन होता है । व्यक्ति-व्यक्ति के चरित्र पतन से सामाजिक चरित्र का पतन होता है । इस पतन को रोकने के लिए अंहिंसा और उसकी प्रतिष्ठा के लिए समता आवश्यक है ।
हिंसा,घृणा पशुबलि और उच्च नीच के दमनपूर्ण वातावरण में भगवान का प्रवचन अमा की सघन अंधियारी में सूर्य के समान लगा ।
भगवान महावीर स्त्री के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना चाहते थे । वैदिक प्रवक्ता उसके प्रति हीनता का प्रसार करते थे । भगवान को यह ईष्ट नहीं था । उन्होंने साध्वी संघ की स्थापना कर स्त्री जाति के पुनरूत्थान के कार्य को फिर गतिशील बना दिया ।
भगवान ने चंदना को दीक्षित कर उन्हें साध्वी संघ का नेतृत्व सौंप दिया साधू संघ का नेतृत्व नौं गणों में विभाजित कर इन्द्रभूति आदि 11 विद्वानो को सौंपकर उसका विकेंद्रीकरण कर दिया । वर्तमान में वे अंहिसा के वातावरण में जी रहे थे । जिसमें केंद्रीयकरण का को॓ई अवकाश नहीं था ।
जो लोग साधु जीवन की दीक्षा लेने में समर्थ नहीं थे किंतु समता धर्म में दीक्षित होना चाहते थे, उन्हें भगवान ने अणुव्रत की दीक्षा दी, वे श्रावक श्राविका कहलाये ।
भगवान साधु -साध्वी और श्रावक, श्राविका इस तीर्थ चतुष्टय की स्थापना कर, तीर्थंकर हो गये । अब तक भगवान व्यक्ति थे अब संघ हो गये । अब तक भगवान स्वयं के कल्याण में निरत थे अब उनकी शक्ति जन कल्याण में लग गई ।
भगवान स्वार्थवश अपने कल्याण में प्रवृत नहीं थे । यह एक सिद्धांत का प्रश्न था । जो व्यक्ति स्वयं खाली है, वह दूसरों को कैसे भरेगा ? जिसके पास कुछ नहीं है, वह दूसरों को क्या देगा ? स्वयं विजेता बनकर ही दूसरों को विजय का पथ दिखाया जा सकता है । स्वयं बुद्ध होकर ही दूसरों को बोध दिया जा सकता है । भगवान स्वयं जागृत हो गये और दूसरों को जगाने का अभियान शुरू हो गया ।
श्रमण महावीर (आचार्य महाप्रज्ञ)
से चुनी हुई
🙏🏽🙏🏽 विनीत 🙏🏽🙏🏽
हरीश जैन “बक्शी”