ओम अर्हम नम:
विश्व का प्रत्येक मूल तत्व अखण्ड है परमाणु भी अखण्ड है और आत्मा भी अखण्ड है । किन्तु को॓ई भी अखण्ड तत्व खण्ड से वियुक्त नहीं है महावीर ने सापेक्षता के सूत्र से खण्ड और अखण्ड की एकता को साधा । उन्होंने रहस्य का अनावरण इन शब्दो में किया– ‘जो एक को जान लेता है, वह सब को जान लेता है । सबको जानने वाला ही एक को जान सकता है ।’
आग्रही मनुष्य अपनी मान्यता के अंचल में युक्ति खोजता है और अनाग्रही मनुष्य युक्ति के अंचल
में मनन का प्रयोग करता है ।
आग्रही मनुष्य आंख पर आग्रह का उपनेत्र चढ़ाकर सत्य को देखता है और अनाग्रही मनुष्य अनन्त चक्षु होकर सत्य को देखता है ।
भगवान महावीर का युग युगतत्व-जिज्ञासा था । असंख्य जिज्ञासु व्यक्ति अपनी जिज्ञासा का शमन करने के लिए बड़े – बड़े आचार्यों के पास जाते थे । यदा कदा दूसरे आचार्यों के पास भी जाते थे । इन जिज्ञासुओ में स्त्रियां भी होती थी भगवान ने अपने जीवनकाल में हजारों जिज्ञासाओं का समाधान किया । उनके सबसे बड़े जिज्ञासाकार थे उनके ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रियभूति गौतम । महावीर की वाणी का बहुत बड़ा भाग उनकी जिज्ञासाओं का समाधान है ।
एक बार गौतम ने पूछा – भंते ! कुछ साधक कहते हैं कि साधना अरण्य में ही हो सकती है । आपका मत क्या है ?
गौतम ! मैं यह प्रतिपादन करता हूं कि साधना गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी, गांव में भी नहीं होती और अरण्य में भी नहीं होती ।
भंते ! यह कैसे ?
गौतम जो आत्मा और शरीर के भेद को जानता है वह गांव में भी साधना कर सकता है और अरण्य में भी । जो साधक आत्मा को नहीं देखता उसकी दृष्टि में ग्राम और अरण्य का प्रश्न मुख्य होता है , जो आत्मा को देखता है उसका निवास आत्मा में ही होता है ।
आत्मा की विस्मृति होना प्रमाद है निद्रा है । आत्मा की स्मृति होना अप्रमाद है जागरण है । आत्मा की सतत स्मृति होना परमात्मा होना है ।भगवान महावीर ने आत्मा को परमात्मा होने की दिशा दी, ईश्वर होने के रहस्य का उद्घाटन किया । यह उनकी बहुत बड़ी देन है ।
भगवान ने ध्यान के क्षणों में अनुभव किया कि आत्मा सूर्य की भांति प्रकाशमय है चैतन्यमय है । उसमें न जीवन है न मृत्यु । न जीवन की आकांक्षा है न मृत्यु का भय । देह और प्राण का योग मिलता है, आत्मा देही के रूप में प्रगट हो जाती है । आत्मा देह के रहने पर भी रहती है और उसके छूट जाने पर भी रहती है फिर जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय क्यों होता है ? भगवान ने इस रहस्य को देखा और बताया कि आत्मा में आकांक्षा नहीं है । उसकी विस्मृति ही आकांक्षा और मृत्यु का भय है । भगवान की यह ध्वनि आज भी प्रतिध्वनित हो रही है :-
” सव्वओ पमतस्य भंय – प्रमत्त को सब ओर से भय है ।
सव्वओ अपमत्त णत्थि भंय – अप्रमत्य को कहीं से भी भय नहीं है
आर्यो जीव दुःख से डरते हैं ।
भन्ते दुःख का कर्ता कौन है ?
जीव। ।
भन्ते दुःख का हेतु क्या है ?
प्रमाद ।
भन्ते दुःख का अन्त कौन करता है ?
जीव ।
भन्ते दुःख के अंत का हेतु क्या है ?
अप्रमाद ।
भगवान ने एक शाश्वत सत्य का उद्घाटन किया कि भय और दुःख शाश्वत नहीं हैं वे मनुष्य द्वारा कृत हैं अप्रमत्त मनुष्य को न दुःख की अनुभूति होती है न भय की ।
क्रमश:
( श्रमण महावीर ‘आचार्य महाप्रज्ञ’ से चुनी हुई)
🙏🏽🙏🏽 विनीत 🙏🏽🙏🏽
हरीश जैन “बक्शी”