ओम अर्हम नम:
शरीर और भूख— दोनों एक साथ चलते हैं । इसलिए प्रत्येक शरीरधारी जीव भूख को शान्त करने के लिए कुछ न कुछ ग्रहण करता है । बहुत सारे अल्प-विकसित जीव भूख लगने पर भोजन की खोज में निकलते हैं और कुछ मिल जाने पर खा-पी संतुष्ट हो जाते हैं । वे संग्रह नहीं करते । कुछ जीव थोड़ा-बहुत संग्रह करते हैं । मनुष्य सर्वाधिक विकसित जीव है । उसमें अतीत की स्मृति और भविष्य की स्पष्ट कल्पना है इसलिए वह सबसे अधिक संग्रह करता है ।
जब वह समाजवादी हो गया तब संग्रह के दो आयाम खुल गए– एक आवश्यकता और दूसरा बड़प्पन ।
आवश्यकता को पूरा करना सबके लिए जरुरी है । उसमें किसी को कैसे आपत्ति हो सकती है । बड़प्पन में बहुतो को आपत्ति होती है और वह विभिन्न युगों में विभिन्न रूपों में होती है ।
आषाढ की पहली रात । बादलों से घिरा आकाश । घोर अंधकार । तूफानी हवा । उफनती नदी का कल कल नाद । महाराज श्रेणिक महारानी चेलना के साथ वातायन में बैठे थे । बिजली कौंधी । महारानी ने उसके प्रकाश में देखा, एक मनुष्य नदी के तट पर खड़ा है । और उसमें बहकर आये काष्ठ खण्डों को खींच खींचकर संजो रहा है । महारानी का मन करुणा से भर गया । उसने श्रेणिक से कहा आपके राज्य में लोग बहुत गरीब हैं । आपका प्रशासन उनकी गरीबी को मिटाने का प्रयत्न क्यों नहीं करता । मुझे लगता है आप भी नदी की भांति भरे समुद्र को भरते हैं खाली को कोई नहीं भरता ।
मेरे राज्य में को॓ई भी आदमी गरीब नहीं है रोटी कपड़ा और मकान सबको सुलभ है । तुमने यह आरोप कैसे लगाया ।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है । इस भयंकर काल रात्रि में यदि को॓ई आदमी जंगल में काम करे तो क्या आप नहीं मानेगें की वह गरीब नहीं है भूखा नहीं है?
अवश्य मानूंगा । पर इस समय किसी मनुष्य के जंगल में होने की संभावना नहीं है ।
महाराज बिजली कौंधते ही इस दिशा में देखिए की जंगल में क्या हो रहा है । सम्राट ने कुछ ही क्षणों में उस मनुष्य को देखा और स्तब्ध रह गये । उनका सिर लज्जा से झुक गया । उन्हें अपने शासन की विफ़लता पर महान वेदना का अनुभव हुआ और तुरंत एक राजपुरुष को भेजकर उस आदमी को बुला लिया । सम्राट को प्रणाम कर वह एक तरफ खड़ा हो गया ।
भद्र तुम कौन हो ?
मेरा नाम मम्मड है और मैं यहीं राजगृह में रहता हुं ।
क्या तुम्हें रोटी सुलभ नहीं है जो इस तूफानी रात्रि में कोपीन पहने नदी तट पर खड़े हो ।
रोटी बहुत सुलभ है महाराज !
फिर यह असामयिक प्रयत्न क्यों ?
मुझे एक बैल की जरुरत है इसीलिए नदी में बह रहे काष्ठ खण्डों को संजो रहा हूं ।
एक बैल के लिए इतना कष्ट क्यों । मेरी गौशाला में जाओ और तुम्हें जो अच्छा लगे वह ले जाओ ।
महाराज! मेरे बैल की जोडी का बैल आपकी गौशाला में नहीं है ?
तुम्हारा बैल क्या स्वर्ग से आया है ?
महाराज प्रातः आप मेरे घर चलने की कपा करें फिर आपका जो निर्देश होगा मैं वही करुंगा ।
सूर्योदय होते ही मम्मड सम्राट को अपने घर ले गया ।
उसका घर देख सम्राट आश्चर्य में डूब गये । वह सम्राट को बैल कक्ष में ले गया । वहां सम्राट ने देखा । एक स्वर्णमय रत्न जड़ित बैल पूर्ण आकार में खड़ा है और दूसरा अभी अधूरा है । ‘इसे पूर्ण करना है महाराज ‘
सम्राट दो क्षण मौन रह कर बोले । तुम सच कह रहे थे मम्मड! तुम्हारी जोड़ी का बैल मेरी गोशाला में नहीं है और अधूरे बैल को पूरा करने की क्षमता भी मेरे राजकोष में नहीं है ।
राजप्रासाद में आ उस धनी गरीब की सारी राम कहानी महारानी को सुना दी ।
इस कहानी के आलोक में हम महावीर के असंग्रह व्रत का मूल्यांकन कर सकते हैं । उनके सामाने गरीबी और अमीरी की समस्या नहीं थी । उनके सामने समस्या थी मानसिक शांति की, संयम की लौ को प्रज्वलित रखने की और आत्मा को पाने की । अर्थ का संग्रह इन तीनों में बाधक था । इसीलिए महावीर ने अपरिग्रह को महाव्रत की श्रेणी में रखा ।
श्रमण महावीर (आचार्य महाप्रज्ञ) से चुनी हुई
हरीश मधु जैन बक्शी
हरसाना
आदरणीय हरीश भाई सहाब का लेख बहुत गूढ़तम अर्थ लिए हुए है।।
बस व्यवहारिक जीवन का अंग बने इसका अभ्यास करना हम सबको चाहिए।