श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

लोभ

लोभ का परिणाम

एक व्यक्ति था एक दिन वह नौकरी की तलाश में निकला, चलते-चलते रास्ते में उसे एक सेठजी मिले। सेठजी को भी सेवक की आवश्यकता थी और उसे (व्यक्ति को) भी नौकरी की तलाश थी। इस प्रकार उसे नौकरी और सेठ जी को नौकर मिल गया। नौकर कुशल, विवेकवान तथा बुद्धिमान था । अतः उसने सेठ जी से नौकरी करते समय कोई शर्त नहीं रखी और वह घर से लेकर दुकान तक का सारा काम बड़ी लगन के साथ करने लगा। सेठ जी उसके कार्य से प्रसन्न थे। एक दिन सेठ जी सोचते हैं “मैं इसको बहुत सारा पैसा दूँगा क्योंकि यह बिना शर्त के तथा ईमानदारी से इतना काम कर रहा है।” लेकिन उधर नौकर के मन में एक दिन आया कि देखो अभी तक सेठ जी ने हमें कुछ नहीं दिया, मैंने इतने दिन तक काम किया । मैं आज सबसे पहले जैसे ही सेठ जी आयेंगे तो कहूँगा कि मुझे महीने के ५०० रूपये चाहिये । और सेठ जी वहाँ सोच रहे थे कि मेरे नौकर ने इतना काम किया लेकिन कुछ भी नहीं माँगा, मैं इसे १००० रूपये दूँगा । उसी समय रास्ते में उसे सेठ जी मिल गये । और उसने सेठ जी से कहा कि – मुझे आपसे कुछ चर्चा करना है। सेठ जी ने कहा- बाद में करेंगे । नौकर बोला नहीं में अभी करूँगा । सेठ जी ने कहा- ठीक है, क्या बात है, कहो ? वह बोला – सेठ जी मुझे एक महीना हो गया है ५०० रूपये चाहिये । सेठ जी विचारने लगे अच्छा हुआ मै इसे १००० रूपये देने का सोच रहा था लेकिन इसने स्वयं मुख से ५०० रुपये माँग लिये। सेठ जी ने कहा- लो यह । ऐसा होता है लोभ का परिणाम। कहा भी है कि “बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख”

लोभ करने का फल

एक गाँव था जिसमें कभी साधु नहीं आते थे, जिससे सभी श्रावक साधु की चर्या से अनभिज्ञ थे, लेकिन श्रावकोचित् पूजन, पाठ, स्वाध्याय आदि नैतिक क्रियायें करते थे । एक बार उस गाँव में एक त्यागी जी आये। कोई भी त्यागी जी को भोजन कराने की विधि नहीं जानता था । त्यागी जी ने सुबह स्नान किया, पूजन की, स्वाध्याय किया और ध्यान करने बैठ गये तथा कोई भी भोजन के लिये बुलाने नहीं आया, जिससे उनका उपवास हो गया। उस गाँव में एक चना बेचने वाला रहता था जो चना को बेच कर अपने परिवार का पेट पालता था। वह रोज मंदिर जाता तो उसे रोज त्यागी जी दिखते इस प्रकार दो-तीन दिन हो गये एक दिन उसने सोचा कि चलो आज हम त्यागी जी से पूछ लें कि आज तुम्हारा भोजन कहाँ हुआ ? त्यागी जी मौन हो गये। उसने पुनः पूछा । त्यागी जी ने कहा आज मेरा आहार नहीं हुआ। बोला आज ही आपका भोजन नहीं हुआ था या कुछ दिन पहले से नहीं हुआ? उन्होंने कहा कि तीन दिन हो गये। वह चना बेचने वाला बोला भैया, मैं तो चना बेचता हूँ और चना बेच कर ही अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ, आप भी मेरी तुच्छ वस्तु को स्वीकार करें, मैं इससे आपका भोजन करवाऊँगा और वह चना बेचने वाला त्यागी जी को भोजन कराने अपने घर ले गया और चने के तीन-चार प्रकार के व्यंजन बनाकर बड़े प्रेम एवं वात्सल्य के साथ भोजन करवाया। जिससे उनकी ध्यान-साधना अच्छे से हुई। अब वह चना बेचने वाला दूसरे दिन भी त्यागी जी को भोजन कराने के लिये अपने घर ले गया। इस प्रकार वह ३-४ दिन तक अपने घर ले गया। त्यागी जी के उसके इस व्यवहार से बहुत खुश हो गये। उन्होंने खुश होकर मंदिर की बेदी पर एक शून्य लिखा और सोचा जब वह आयेगा तो मैं उसको इसकी विधि बता दूँगा । उसने पुनः निमंत्रण किया और वह त्यागी जी को भेजने आया तब त्यागी जी ने कहा-मैं तुमको एक विधि बताता हूँ, तुम्हें जितने भी रुपये की आवश्यकता हो तो, इस अंक के आगे एक शून्य लिख देना तो तुम्हें दस रुपये प्राप्त हो जायेंगे । उसके बाद तुम्हें जितने भी रुपयों की आवश्यकता हो तो उसमें शून्य बढ़ाते जाना। वह सोचता है जब त्यागी जी को भोजन कराने से इतने पैसे मिल सकते हैं, तो फिर साधुओं को आहार कराने से कितने पैसे मिल सकते हैं। पश्चात त्यागी जी ने उससे कहा, कि आप मंदिर के दर्शन करने का नियम ले लो। वह कहता है ठीक है। त्यागी जी कहते हैं- ऐसा ना हो कि तुम्हारे पास पैसा हो जाये तो मंदिर आना छोड़ दो या धर्म को भूल जाओ या भगवान को भूल जाओ। उसने विश्वास दिलाया, ऐसा नहीं होगा। पश्चात त्यागी जी वापिस चले गये। तब चना बेचने वाले के मन में विचार आया कि त्यागी जी के द्वारा बताई गई विधि की परीक्षा करना चाहिये। और उसने एक के आगे शून्य लिखा तो उसे १० रुपये मिल गये, दूसरे दिन से मात्र शून्य लगाना शुरु कर दिया, जिससे उसके पास बहुत पैसा हो गया, तो धीरे-धीरे मीलें तथा गाड़ियाँ चलने लगीं। अब उसे खाने तक की फुर्सत नहीं तो मंदिर की तो बात बहुत दूर की थी। वह इतना व्यस्त हो गया कि एक फोन रखता दूसरा उठाता है, दूसरा रखता, तीसरा उठाता इस प्रकार उसे फुर्सत ही नहीं है । कुछ दिन बाद त्यागी जी पुनः उस गाँव में आये मंदिर में देखा कि चना बेचने वाला अब बहुत पैसे वाला हो गया तथा अब मंदिर में भी नहीं दिखता है। उन्होंने दो-तीन दिन देखा, फिर मुहल्ले वालों से पूछा कि इधर एक चना बेचने वाला रहता था वह अब दिखता नहीं है । तब मुहल्ले वालों ने कहा कि अब उसके पास समय नहीं है। त्यागी जी को अपनी गलती का अहसास हो गया और त्यागी जी ने एक शून्य को मिटाया तो सेठजी के पास तुरंत फोन आया, एक दुकान में आग लग गई । अब रोज त्यागी जी ने एक-एक शून्य को मिटाना शुरु कर दिया, और देखते-देखते सारी दुकानें जल गई, अंत में एक शून्य बचा जिससे वह घबड़ा गया और दौड़ता हुआ मंदिर आया तभी उसने त्यागी जी को देखा तो पूछने लगा – अरे कब आये त्यागी जी आप ? और फिर वह वेदी पर गया और जैसे ही शून्य लगाने को तैयार हुआ तो त्यागी जी ने हाथ पकड़ लिया और कहा कि तुम इसी अवस्था में रहने लायक हो कम कमाओ और कम गमाओ । अंत में पूरे शून्य तथा अंक को मिटा दिया तो वह पुनः उसी अवस्था में आ गया, यह है लोभ करने का फल ।

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धन के लोभ का फल

एक नगर में एक सेठ जी थे उनके पास काफी धन था। वह धन की ही पूजा किया करते थे । लेकिन धर्म से शून्य थे। परंतु धन के लिये वह सब कुछ कर सकते थे। वह निरन्तर धन प्राप्त करने की कल्पना में डूबे रहते थे। वे कभी भी मंदिर नहीं जाते तथा पूजा-पाठ नहीं करते थे । एक दिन उस नगर में एक साधु आये। साधु सिद्धि सम्पन्न थे, अवधिज्ञानी थे, तथा उनके आशीर्वाद से सभी कामना पूरी होती थी, ऐसा उनके विषय में सुना था। वह भी अपनी कल्पना को साकार करने के उद्देश्य से उनके चरणों में गया । नमोस्तु किया, तथा अपनी भावना को कह दिया कि मेरा धन कभी कम न हो मैं जिस वस्तु में हाथ लगाऊँ वह सोने की हो जाए, आप मुझे ऐसा वरदान दीजिये । मुनि श्री ने कहा-सेठ जी जो तुम वरदान माँग रहे हो उसको बाद में वापिस करने नहीं आना। सेठ जी ने कहा नहीं, महाराज श्री, मैं नहीं आऊँगा, क्योंकि मैंने बहुत सोच लिया और एक दिन नहीं वर्षों से इस विषय में सोचा है अब मुझे नहीं सोचना है। कई बार महाराज श्री ने पूछा-लेकिन उसने एक ही जबाब दिया। और महाराज श्री ने उसे आशीर्वाद दे दिया। वह बहुत खुश तथा प्रसन्न हुआ और हर्ष के साथ घर वापिस आ गया। उसके मन में आया कि जो मुनि श्री ने आशीर्वाद दिया है उसकी परीक्षा की जाये, और वह पास की टेबल पर हाथ लगाता है, तो वह सोने की हो जाती है। अब तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और वह वर्षों की कल्पना को पूरा करने के लिये जल्दी-जल्दी घर में उपस्थित सभी वस्तुओं को छूने लगा वह सोचता है जितना मेरे घर में सोना-चांदी होगा उतना तो अब राजा के राजकोश में भी नहीं होगा। अंत में वह बहुत थक गया और सिंहासन पर आकर के बैठ गया सारे सेवक उसकी सेवा के लिये उपस्थित हो गये। वह कहता है-मैं थक गया हूँ, गला सूख रहा है। सेवक तुरंत ही पेय तथा खाद्य पदार्थ को उसके सामने उपस्थित कर देते हैं। वह जैसे ही पानी से भरा गिलास पीने के लिये उठाता है, तो वह सोने का हो जाता है। उस गिलास को वह मुख तक ले जाता है तो वह पानी भी सोने का हो जाता है। अब वह चिंता में डूब जाता है। भोजन का ग्रास उठाता है तो वह भी सोने का हो जाता है। मुख में रखता है तो मुख लहूलुहान हो जाता है। इतने में उसकी बेटी उसके पास आयी उसने अपनी बेटी के सिर पर हाथ रखा, तो वह भी सोने की हो गई। अब वह बेचैन हो गया कि यह क्या हो गया है ? इस प्रकार पूरी रात उसे चिंता रही कि अब मेरा क्या होगा ? और सुबह होते ही वह मुनि श्री के चरणों में जैसे-तैसे पहुँचा क्योंकि वह चिंता में था। महाराज श्री ने पूछा सेठ जी, सब ठीक तो है आशीर्वाद अपना काम कर रहा है कि नहीं, नहीं तो पुनः आशीर्वाद दे दूँ। सेठ जी बोले महाराज, मुझे ऐसा आशीर्वाद नहीं चाहिये, आप अपना आशीर्वाद वापिस ले लीजिये। महाराज जी ने कहासेठ जी, मैंने आपसे पहले कहा था, कि दिया हुआ वरदान वापिस नहीं होगा। आपने तो कहा था कि मैंने वर्षों से सोच लिया है तथा मैं वापिस करने नहीं आऊँगा, देख लिया तृष्णा का परिणाम, लोभ का परिणाम। लोभ सदैव दुखदायी होता है, धन हमेशा दुखदायी होता है। अतः संतोष को धारण करना चाहिये ।

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