1. परिचय:
बहुत से लोग जैनों की घटती संख्या के बारे में बात करते हैं। कुछ कहते हैं कि हमें अपना उपनाम में जैन लिखना चाहिए। कुछ अन्य उपाय सुझाते हैं। इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि धर्म के आधार पर संख्या के आंकड़े आते कहाँ से हैं? भारत देश में दस वर्षों में की जाने वाली जनगणना ही किसी धर्म को मानने वालों की संख्या के बारे में विश्वस्त जानकारी का एकमात्र स्रोत है। पिछली जनगणना वर्ष 2011 में हुई थी तथा इस लेख में उसके उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण विभिन्न मापदंडों पर करने की कोशिश की गयी है। परिणाम चिंताजनक हैं। इनके बारे में आगे चर्चा की जा रही है।
2. जैन – सबसे छोटा धार्मिक समूह: भारत की कुल जनसंख्या में जैन धर्म को मानने वाले लोग संख्या की दृष्टि से अंतिम स्तर पर आते हैं।

हैरानी की बात है ना कि भरत क्षेत्र के सबसे प्राचीन धर्म के अनुयायी अब सबसे कम रह गए हैं जबकि, लगभग 1000 वर्ष या उससे भी कम समय पहले अस्तित्व में आए धर्मों के कुल अनुयायी की संख्या 23 करोड़ से भी अधिक हैं। हम जैन अपने आपको संप्रदायों और उपसंप्रदायों में विभाजित कर चुके हैं और उसे ही अपनी पहचान मानने लगे हैं। ऐसा लग रहा है कि हम जैन शब्द के साथ जुड़ी अपनी एक विशिष्ट पहचान खोने के कगार पर हैं।
3. लड़कों की तुलना में बेटियों की घटती संख्या:
2011 की जनगणना से पता चलता है कि बच्चों (यानी 0-6 वर्ष की आबादी) के मामले में, जैन समुदाय में प्रति 1000 लड़कों की तुलना में 889 लड़कियाँ हैं। इसका मतलब है कि प्रति 1000 लड़कों पर 111 लड़कियों की कमी आई है। इसका असर साफ तौर पर दिख रहा है क्योंकि जैन समुदाय में शादी के लिए लड़की मिलना मुश्किल हो रहा है। अगर हम राज्यवार आंकड़ों का विश्लेषण करें तो हालात अच्छे नहीं हैं: उदाहरण के लिए: राजस्थानः प्रति 1000 लड़कों पर केवल 859 लड़कियों; गुजरात: प्रति 1000 लड़कों पर केवल 872 लड़कियाँ जिला स्तर के आंकड़ों को देखें तो हालात और भी खराब होते नज़र आते हैं। 5000 से अधिक जैन आबादी वाले जिलों में 0-6 वर्ष की आयु के लड़कों बनाम लड़कियों का अनुपात इस प्रकार है: उत्तरी दिल्ली (752), बीड (763), देहरादून (764), बुलडाणा (768), डूंगरपुर (771), सांगली (778), मुजफ्फरनगर (779), देवास (787)।
यह आंकड़े एक कठिन सवाल खड़ा कर रहे है: क्या अहिंसा के अनुयायी लिंग चयन की ओर जा रहे हैं और बेटे की चाह में कन्या भ्रूण-हत्या कर रहे हैं?
4. क्या आप किसी अनपढ़ जैन को देखा है?
जैन समुदाय की साक्षरता दर सबसे अधिक (95%) है। हालांकि, अगर सिक्के के दूसरे पहलू को देखें, तो लगभग 5% यानी 2.07 लाख जैन जनगणना 2011 में निरक्षर के रूप में गिने गए हैं। इन 2.07 लाख जैनों में से अधिकतम 6 राज्यों में स्थित हैं। महाराष्ट्र (59,752), कर्नाटक (46,229), राजस्थान (27,510), मध्य प्रदेश (19,459), गुजरात (16,107), उत्तर प्रदेश (11,394)। अगर जिलों को देखें, तो इन निरक्षर जैनों में से 50% से अधिक केवल 20 जिलों में हैं, जिनमें बेलगाम (कर्नाटक) सूची में सबसे ऊपर है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आगामी जनगणना में कोई भी जैन निरक्षर न गिना जाए और हमारा साक्षरता दर 100% हो।
5. युवाओं की तुलना में बुजुर्ग जैनों की बढ़ती संख्या: जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार, जैन में युवा वर्ग (0-14) की संख्या सबसे कम है, जबकि वरिष्ठ आयु वर्ग (60+) में जनसंख्या का अनुपात सबसे अधिक है।
इसका अर्थ है कि हमारे समाज में जापान जैसा परिदृश्य बन रहा है, जहाँ हमारे पास युवा आबादी की तुलना में अधिक बुजुर्ग आश्रित होंगे। अपने आस पास देखें तो यह हमारे मंदिरों में तथा धार्मिक कार्यक्रमों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है जहां हम देखते हैं कि ज़्यादा आने वालों की संख्या में बुजुर्ग जैन हैं और युवा आबादी सिर्फ़ कुछ खास मौकों तक ही सीमित है।
6. सबसे कम प्रजनन दर: NFHS 2019 के अनुसार, जैनों की कुल प्रजनन दर (TFR) सबसे कम है, जो 1.1 है। यह सभी समुदायों में सबसे कम है। जनसंख्या के उचित प्रतिस्थापन को सुनिश्चित करने के लिए प्रजनन दर कम से कम 2.1 होनी चाहिए। हम इस प्रजनन दर के आधे में हैं।अलावा,निम्नतम प्रजनन दर के साथ-साथ अगर हम अन्य कारकों को भी जोड़े जैसे सबसे कम
जनसंख्या, बेटियों की कम संख्या और उनमें से कुछ का दूसरे समुदायों में बिवाह, तो आने वाले वर्षों में जैन समाज के विलुप्त होने की संभावना दिखने लगती है।
7. आने वाले समय में जैनियों की संख्या का अनुमान : उपलब्ध आंकड़े और संकेतकों के आधार पर आने वाले वर्षों में जैन आबादी का अनुमान लगाने का प्रयास किया गया है। इसमें भविष्य के लिए महत्वपूर्ण आयु समूहों पर ध्यान केंद्रित किया गया है.

जैसा कि आंकड़े इशारा कर रहे हैं, महत्वपूर्ण आयु समूहों में हमारी संख्या में लगभग 70% कमी आती दिख रही है। उसके ऊपर से निम्नतम प्रजनन दर बेटियों की कम संख्या आदि कारक हमें विलुप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
8. जागे क्या: आंकड़े स्पष्ट रूप से खत्म होती जैन आबादी ओर इशारा करते हैं। हमारी समृद्ध स्थिति भी धीरे-धीरे हमारे विलुप्त होने की दिशा में काम कर रही है। संकेत अभी से दिखाई दे रहे हैं, जहाँ हमारा चतुर्बिंध संघ सिकुड़ रहा है तथा जीवन के विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों (सामाजिक/राजनीतिका प्रशासनिक आदि) में जैनियों का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है।
जैनियों के विलुप्त होने का सीधा-सीधा मतलब जैन दर्शन, जैन मूल्यों, जैन सिद्धांतों, और तीर्थंकरों की शिक्षाओं का लुप्त होना होगा। इसमें अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त शामिल हैं। आप सहमत होंगे कि इन सिद्धांतों में दुनिया की लगभग सभी समस्याओं का समाधान निहित है।
क्या हम वास्तव में जैनत्व का अंत चाहते हैं? हमें आत्मचिंतन करने की जरूरत है। अन्यथा, जैसा कि हम अपने आगमों में 9 करोड़ जैन मुनियों के बारे में पढ़ते हैं, आने वाली पीढ़ियाँ भी कहेंगी कि कभी एक समुदाय ऐसा भी था जो सूर्यास्त से पहले भोजन ग्रहण करता था।
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धीरज जैन
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(व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)