दृष्टि का अर्थ है- आँख। आँख का काम देखना है। जैनाचार्यों ने दृष्टि का अर्थ- श्रद्धा, विश्वास है। पूज्यपाद महाराज के ग्रंथ में एक प्रकरण में जिज्ञासु प्रश्न करता है-सर्वार्थसिद्धि दृष्टि देखने के अर्थ में आती है फिर उसका श्रद्धान अर्थ कैसे? आचार्य भगवन् उत्तर देते हैं- मोक्षमार्ग प्रकरणात्। मोक्ष मार्ग में आँख नहीं श्रद्धा प्रयोजनीय है। अतः दृष्टि का अर्थ श्रद्धा, विश्वास है। आँख का पाना सरल है।1-4 इंद्रिय से आगे के जीवों के पास आँख है। यदि दृष्टि का अर्थ आँख है तो 4 इंद्रिय से आगे के जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे। जबकि चर्चा में समाधान में किसी प्रकरण में आया है कि पंचमकाल में सम्यग्दृष्टि अंगुली पर गिनने लायक है। यानि बहुत कम है। मिध्यादृष्टि शरीर, परिवार, कुटुम्ब, रोटी, कपड़ा, मकान में जीता है। सम्यग्दृष्टि आत्महित के लिए जीता है। हम सौभाग्यशाली है कि जिनकुल में जन्म पाया जहाँ आत्मा से परमात्मा बनने का पथ दिखाया गया है। हमें गौरव है ऐसे जिनधर्म में जन्म पाया जहाँ कल्याण के सूत्र मिलते हैं। सम्यग्दृष्टि की दृष्टि तृतीय नेत्र है। दो तो चर्मचक्षु है परंतु तीसरा श्रद्धान रूपी नेत्र है जो चर्म का नहीं अपितु विश्वास का है। सम्यग्दृष्टि को बाह्य जगत शून्य की तरह दिखता है। चर्म नेत्र, अंतर की हितावस्था नहीं देख पाते जबकि श्रद्धा के नेत्र आत्म हित को देखते हैं।
भरत चक्रवर्ती जिनके नाम से भारतवर्ष प्रसिद्ध है। नाभिराय के पुत्र आदिनाथ और उनके प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती थे। षट्खंडाधिपति होते हुए भी सम्यग्दृष्टि थे। और वे ऐसे निर्मल सम्यग्दृष्टि थे जिनका तृतीय नेत्र सदैव खुला रहता था। वे कभी षट्खंड विजय करने निकलते तो भी पहले आत्मा का ध्यान करते थे। जब भोजन के लिए बैठते थे तो भी आत्म चिंतन में डूबे रहते हैं- हे परमहंस ! आत्मन् ! तू अपने शुद्ध चिदानन्द चैतन्य का हो भोग कर वहीं तेरा वास्तविक स्वरूप हैं, चेतनभावों का भोग करो वही भोगने योग्य है। ये पौद्गलिक पदार्थ आत्मा को आनंदित नहीं कर सकते। आत्मा तो उस शुद्ध स्वरूप का आश्रय लेने से ही आनंदित होती है। जब उनकी पत्नियाँ पूछती कि हे स्वामिन् ! आप कहाँ है? तो भरत चक्रवर्ती कहते हैं मैं तो अंदर हूँ और ज्ञानामृत का भोजन कर रहा हूँ। वे उस समय भोगीराज नहीं योगीराज नजर आ रहे थे। भोजन की थाली पर भोगी बैठता है परंतु भोजन की थाली पर सम्यग्दृष्टि योगी बनकर बैठता है। और स्वभाव की ओर दृष्टि रखता है कि हे भगवन् ! विभाव परिणतियाँ शीघ्र छूटे और स्वभाव की प्राप्ति हो। ठीक उसी प्रकार जैसे एक छोटा बालक जो रोज माँ के हाथ का भोजन करता हो यदि वह कभी कहीं बाहर जाये और पड़ौस की महिलाएँ भोजन कितने भी प्यार से कराये तो वह भोजन तो करता जाता है उन महिलाओं को देखता है परंतु उसके उपयोग में अपनी ही माँ रहती है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि सारी दुनियाँ को देखता है। बाह्य क्रियाओं को करता है परन्तु जल से कमल की तरह तथा कीचड़ से सोने की तरह पृथक् बना रहता है। उसका उपयोग अपनी आत्मा पर होता है क्योंकि वह आत्मश्रद्धानी है।
यूं तो सब जीवन जीते हैं परंतु तृतीय श्रद्धान का नेत्र सबका नहीं खुल पाता। भगवान महावीर कहते हैं- हम स्वयं को ही छल लेते हैं कष्टों का आमंत्रण करते हैं अतः हम चाहें तो सुख को भी आमंत्रण दे सकते हैं। लेकिन अनिवार्य है कि अंतर के तृतीय नेत्र को खोले और निहारे अपनी आत्मा को तभी शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी।