श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में जैन दर्शन

कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में जैन दर्शन की मान्यताएँ अदभुत हैं। उन मान्यताओं को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है-

(१) जीव अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं भोगता है।
(२) कर्मों का फल प्रदान करने के लिए किसी नियन्ता या ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है।
(३) जीव जिन कर्मों से आबद्ध होता है ये कर्म ही स्वयं समय आने पर फल प्रदान करते हैं।
(४) कर्म तीन प्रकार के माने गये है – (१) द्रव्यकर्म (२) भावकर्म और नौ कर्म ।

मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योगरूप हेतुओं से जो किया जाता है वह भावकर्म है। किसी अपेक्षा से राग-द्वेषादि को भी भावकर्म कह दिया जाता है। भावकर्म के कारण कार्मण-वर्गणाएँ जब जीव के साथ बंध को प्राप्त हो जाती हैं तो वे द्रव्यकर्म कही जाती है।
(५) द्रव्यकर्म ही जीव को समय आने पर फल प्रदान करते हैं।
(६) जीव एवं कर्म का अनादि सम्बन्ध है, किन्तु इस सम्बन्ध का अन्त किया जा सकता है, क्योंकि यह सम्बन्ध दो भिन्न द्रव्यों का है।
(७) कर्मयुक्त जीव को संसारी जीव कहा जाता है, क्योंकि वह संसार में एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करता रहता है। जो जीव पूर्णतः कर्ममुक्त हो जाता है उसे सिद्ध जीव कहते हैं।
(८) जीव के जो स्वाभाविक गुण है ये भी विभिन्न कर्मों के कारण आवरित हो जाते हैं। जैसे ज्ञानावरणकर्म से ज्ञानगुण एवं दर्शनावरणकर्म से दर्शनगुण आवरित हो जाता है। मोहनीयकर्म से सम्यक्त्व एवं अन्तरायकर्म से दानादि लब्धियों प्रभावित होती हैं।
(९) कर्म आठ प्रकार के माने गये हैं – १) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय।
(१०) इन आठ कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय को घातिकर्म कहा जाता है क्योंकि ये चारों कर्म आत्म-गुणों का घात करते हैं।

शेष चार कर्मों-वेदनीय, आयुष्य, नाम एवं गोत्र को अघातिकर्म कहा जाता है, क्योंकि ये आत्म-गुणों का घात नहीं करते हैं।
(११) कर्मों को पाप एवं पुण्यकर्मो के रूप में भी विभक्त किया जाता है।

आठ कमों से चार घातिकर्म तो पापरूप ही होते हैं, किन्तु अघातिकर्म पाप एवं पुण्य दोनों प्रकार के होते हैं ।

यथा – वेदनीयकर्म के दो भेदों में सातावेदनीय को पुण्यरूप एवं असातावेदनीय को पापरूप कहा जाता है।
कोई त्रुटि हो तो अपने अनुसार सही पढ़े ।

आगम के अनुसार ।

🙏🏻🙏🏻

त्रिभुवन जैन
कोटा

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