संवर
जीव अपने मोह और अज्ञान के कारण निरन्तर कर्मों का आस्रव और बन्ध करता आ रहा है। आखिर कर्म-बन्ध के इस अनन्त प्रवाह का कोई अन्त भी है या नहीं? क्या बन्ध की यह परम्परा ऐसे ही चलती रहेगी? या उससे बचने का कोई उपाय भी है? इसका एक ही उपाय है वह है संवर। संवर का अर्थ होता है -रोकना, बन्द करना। यह आस्रव का विरोधी है। आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं।’ आस्रव जहां कर्म-मल के प्रवेश करने में नाली की तरह है, तो संवर उस नाली के प्रवेश-द्वार को बन्द कर कर्म-प्रवाह को रोकता है। इससे नवीन कर्मों का आस्रव रुक जाता है और सत्तागत सञ्चित कर्मों की अभिवृद्धि पर अंकुश लग जाता है। इसलिए संवर को परम उपादेय माना गया है। संवर का व्युत्पत्ति-परक अर्थ भी यही है। सम्यक् वरण को, संवरण को, संवर कहते हैं। जो अच्छी तरह से वरण करने योग्य हो, अपनाने योग्य हो, वह संवर है।
संवर का महत्त्व
मोक्षमार्ग में संवर का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संवर से ही मोक्षमार्ग के विकास का क्रम प्रारम्भ होता है। जितना जितना संवर होता है, उतना-उतना ही आत्मिक विकास होता जाता है। संवर सहित निर्जरा को ही मोक्षमार्ग का साधन कहा गया है।
मान लीजिये हमें एक ऐसी नाव पर यात्रा करना पड़ रहा है, जिसमें अनेक छिद्र हैं, जिसमें जल प्रविष्ट हो रहा है, नाव का भार बढ़ रहा है, उसका सन्तुलन खो रहा है, वैसी स्थिति में उस नाव को खाली करना तभी सम्भव होगा, जब हम उसके छिद्रों को बन्द कर जल उलीचना प्रारम्भ करें। उसके अभाव में निरन्तर उलीचते रहने के बाद भी नाव को खाली कर पाना मुश्किल है क्योंकि जिस गति से हम पानी उलीच रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, उसी गति से जल भी प्रविष्ट हो रहा है। वैसी स्थिति में नाव को खाली कर पाना असम्भव है। हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ सिद्ध होगा। परिणामतः उस नाव को डूबने से नहीं बचाया जा सकता। जीवात्मा भी एक नाव के समान है, जो संसार समुद्र में तैर रही है। हमारे शुभ और अशुभ भावों के छिद्रों से उसमें निरन्तर कर्म-जल प्रवेश कर रहा है। उन छिद्रों को बन्द करने पर ही हम अपनी नाव को उब्बार सकते हैं। निर्जरा के लिए संवर अनिवार्य है।
संवर के भेद
द्रव्य और भाव की अपेक्षा संवर के दो भेद किये गये हैं। कर्म परमाणुओं के आगमन का निरोध हो जाना द्रव्य संवर है’ तथा आत्मा के जिन भावों से कर्मों का आगमन रुकता है, उन्हें भाव-संवर कहते हैं।
संवर के साधन
व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र ये सात संवर के साधन कहे गये हैं। इनके पालन से उत्पन्न आत्मिक विशुद्धि कर्म-प्रवाह को रोक देती है। ये मूलतः सात हैं, किन्तु अपने उत्तर भेदों को मिलाने पर कुल बासठ हो जाते हैं।
व्रत
पापों से विरत होने/ दूर हटने को व्रत कहते हैं। “हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् “ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच को पाप कहा गया है। इनसे विरत होना/ इनका त्याग करना ही व्रत कहलाता है।
उक्त पाँच पापों का त्याग करने पर क्रमशः अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत होते हैं। इनके पूर्ण त्याग को महाव्रत कहते हैं तथा आंशिक त्याग को अणुव्रत कहते हैं। महाव्रतों का पालन साधुगण करते हैं तथा अणुव्रतों का पालन श्रावक / गृहस्थ जन, समाज में रहते हुए अपनी शक्ति के अनुसार करते हैं।
1. अहिंसा – मन, वचन, काय से किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना हिंसा है। इसके त्याग को ‘अहिंसा’ कहते हैं।
2. सत्य – जो यथार्थ नहीं है, उसे कहना झूठ है। इस झूठ का त्याग करना ‘सत्य’ व्रत है।
3. अचौर्य – बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। इसके त्याग को ‘अचौर्य’ व्रत कहते हैं।
4. ब्रह्मचर्य – मैथुन-कर्म को कुशील कहते हैं। इनका मन, वचन और काय से त्याग करना ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत है।
5. अपरिग्रह – मूर्च्छा को परिग्रह कहते हैं। धन-धान्य, कुटुम्ब, परिवार और अपने शरीर के प्रति उत्पन्न आसक्ति को मूर्च्छा कहते हैं। इस मूर्च्छा का त्याग ही ‘अपरिग्रह’ व्रत है।
समिति
सम्यक् (सक्रिया की) प्रवृत्ति को समिति कहते हैं।’ समिति का अर्थ हुआ सावधानीपर्वक प्रवृत्ति करना।’ उठने-बैठने, चलने-फिरने आदि क्रियाओं में होने वाली सावधानी ही समिति कहलाती है। समिति की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है ‘समेकी भावेनेति इति समितिः’ अर्थात् हम जिस क्रिया में संलग्न हैं उस क्रिया में एक भाव होना, पूरी तत्परता और एकाग्रता होना समिति है। अपनी प्रवृत्तिगत सावधानी या आत्म-जागृति ही समिति है।
समितियाँ पाँच होती हैं ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापन समिति।
1. ईर्या समिति : किसी भी जीव-जन्तु को क्लेश न हो, इस प्रकार सावधानीपूर्वक, चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ‘ईर्या’ समिति है।
2. भाषा समिति : सत्य, हितकारी, परिमित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है। बोलते समय बरती जाने वाली सावधानी ‘भाषा’ समिति है।
3. एषणा समिति : शुद्ध और निर्दोष आहार, विधि-पूर्वक ग्रहण करना
4. आदान : निक्षेपण समिति ‘आदान’ का अर्थ होता है ‘ग्रहण करना’ तथा ‘निक्षेपण’ का अर्थ रखना है। वस्तु को देखभाल कर, सावधानीपूर्वक, जीवरहित स्थानों पर उठाना रखना ‘आदान-निक्षेपण’ समिति है।
5. प्रतिष्ठापन समिति : भली-भाँति देखकर शुद्ध और निर्जन्तुक स्थान पर अपने मल-मूत्र का त्याग करना ‘प्रतिष्ठापन’ समिति है, अर्थात् मल-मूत्र के त्याग में रखी जाने वाली सावधानी। इसे ‘व्युत्सर्ग’ समिति भी कहते हैं। ये पाँचों समितियाँ कर्म-विनाश के कारण हैं तथा इन्हें साधना-पथ का मूल माना गया है।
मुनिश्री प्रमाण सागर जी