श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

कालखंड के अनुसार बदलते रिश्ते

रिश्तो में अस्थिरता आज शोध का विषय है।
जिस तरह पारा को मुट्ठी में पकड़ कर रखना दुस्साध्य है, वैसे ही आज रिश्तो को सहेज कर रखना भी मुश्किल बनता जा रहा है।

यदि हम रिश्तो को चारों युगों के कालखंड (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में विभक्त करके देखे तो समझ आएगा की आज रिश्ते दशको तक क्यो नही बने रहते है।

सतयुग में सब बातों का आधार ज्ञान, ध्यान और त्याग था। इंसान स्वाध्याय करता ना किसी से कोई विवाद रहता ना ईर्ष्या द्वेष। परस्पर भगवत चर्चा होती। सब एक दूसरे का सहयोग, मदद करते, वस्तुओ का आदान प्रदान वस्तु विनिमय आधारित था नाकि मूल्याधारित था।
मातृशक्ति का सम्मान भगवान के समान रहा। बिना मातृशक्ति की सहभागिता के कोई भी कार्य पूर्ण नही माना जाता था।

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।

इसके बाद आता है त्रेतायुग जिसमे “पद” से ज्यादा “मर्यादा(सदाचार, नैतिकता)” का महत्त्व रहा। व्यक्ति निर्धन में भी ईश्वर को देखता था। नर में नारायण देखने का भाव रहा। भगवान राम पर जब वनगमन के दौरान संकट आया तो किसी राजघराने का सहयोग नही लिया जो मार्ग में मिले उन्हें ही मित्र बनाया चाहे वो पक्षी हो, जंगली जानवर हो या नाव को पार कराने वाला केवट(निषाद जाति) का हो या वानर सेना हो। उन सबमे उन्होंने ईश्वरीय शक्ति को देखा और अपने संकट को उन्ही के माध्यम से हल करवाया। जब राज्याभिषेक हुआ तो उन्होंने किसी राजकुमार,मंत्री, संत्री राजनेताओ को नही बुलाया जैसे आज कलियुग में बुलाया जाता है। उन्होंने उन्हें बुलाया जिन्होंने उन्हें सीता के अपरहण के बाद तलाश करने में सहयोग किया। अंगद, सुग्रीव, हनुमान निषाद, विभीषण आदि को विशेषातिथि के रूप में आमंत्रित किया और फिर उन्हें वस्त्र, नारियल सम्मान भेट करके विदा किया।
अब बात करते है द्वापरयुग की। द्वापर में युद्ध शक्ति प्रमुखता से रही। अर्थात पापी अपराधी दुराचारी को सुधरने का पूर्ण अवसर दो और नही सुधरे तो फिर उसका विनाश करदो। भगवान कृष्ण ने शिशुपाल को अपनी 100 गलतियों तक क्षमा किया प्रत्येक गलती पर उसे स्मरण करवाया चेतवानी दी। जैसे ही 101 वॉ अपराध हुआ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। कौरवों के अधर्म को पांडवों के द्वारा नाश किया, कंश के पाप का अंत किया।
शरणागत की रक्षा करना प्रमुख रहा जैसे द्रोपदी का चीर हरण हुआ तो भगवान कृष्ण के आगे दुस्सासन का बाहुबल छोटा पड़ गया। अपराधी को उसके अपराध की सजा देना।

अब बात करते है जिस युग मे हम सब जी रहे है वो है कलियुग। नाम से ही स्पष्ट है “कलि मतलब काला युग”।
जिसमे मानवता शर्मसार होगी, रिश्ते स्वार्थ के रहेंगे, धन का दम्भ सिर चढ़कर बोलेगा, धैर्य शक्ति अतिलघु रहेगी, संकल्प शक्ति क्षीण होगी, कामुकता बढ़ेगी( वस्तु संग्रह), नकली महिमामंडन का प्रभाव रहेगा, व्यक्ति स्वभाव में नही दुसरो के प्रभाव में रहकर जीने को विवश होगा, ईश्वरभक्ति केवल सकाम भाव(स्वार्थ) से व भय( असुरक्षा) वश ही करेंगे।
और आज ये सब हम अपने सामने घटित होता हुआ साक्षी भाव से देख रहे है।
ये कालसुसंगत है कि इस घोर कलिकाल में हम सत्य और धर्म के बल पर ही आत्मकल्याण कर सकते है।
झूठ,नकली धार्मिक कट्टरता, आत्ममुग्धता, स्वार्थपरायणता कलुषित मानसिक विकास ये सब हमें कमजोर ही नही अपितु मानसिक दिव्यांग बनाते है।

रिश्तो की आयु इतनी लघु हो गयी जिसकी हमने रिश्ता बनाते समय कल्पना भी नही की। आज हम सबके ऊपर कलियुग की काली छांया का कुप्रभाव दिखाई देने लगा है। रिश्ते आज करंट अकॉउंट की तरह है। जिस प्रकार धन निकालो और डालो ऐसे ही आज रिश्ते है बनाओ औऱ बिंगाड़ो।
सत्येन धारयती पृथ्वी
सत्येन तपते रवि
सत्येन वाति वायुश्च
सर्वम सत्य प्रतिष्ठितम्।।
सत्य बल से पृथ्वी, सत्य के बल से सूर्य तपता है सत्य के बल वायु बहती है और सत्य सब जगह पूजा जाता है।
निष्कर्षतः कलियुग की कालिमा से बचना है तो हमे धर्म को विराटता से देखना होगा। रिश्तों में धर्म देखना होगा, परम्पराओ का अनुसरण करना होगा, विरासत का संरक्षण के साथ विकास करे। नया नूतन, चिर पुरातन।।

This Post Has 2 Comments

  1. Rajendra

    Pawan ji, Very relevant in present day.

  2. मनीष जैन

    ye bhi ek najariya h

Leave a Reply