दण्ड भी हो जाता कम – सरलता से
भीलों की एक नगरी थी। वहाँ सभी तीर-कमान के साथ चलते-फिरते थे। लड़ाई-झगड़ा होने पर भी उसी का प्रयोग करते थे। एक बार एक भील ने किसी कारण से दूसरे भील को मार दिया। अदालत में केस चला प्रत्यक्षदर्शी के अभाव के कारण सबूत नहीं था। मारने वाले को वकील की सहायता मिली। वकील ने समझाया कि देखो, कोर्ट में तुझे इतना ही बोलना है कि “मैंने नहीं मारा है” चाहे जैसा पूछा जाये, कबूल नहीं करना है। उसने मान लिया। कोर्ट में बहस हुई । उसने एक ही बात कही कि, “मैंने नहीं मारा” पर जब सरकारी वकील ने प्रश्न करना शुरु किया तो वह गड़बड़ा गया घबरा गया। क्या बोला जाये, यह उसकी समझ में नहीं आया। और उसने अपने मन की बात कह दी ‘मारा तो मैंने ही है, मर जाने तक मारा है’। लेकिन वकील की ओर अंगुली करके कहता है कि, यह मुझे नहीं मारा ऐसा बोलने को कहता है। तभी सारी अदालत हँस पड़ी। उस भील ने बुरा काम तो किया पर सरल मन से । इसलिए उसकी सजा कम कर दी गई ।
भय का कारण-मायाचारी
मायाचारी व्यक्ति सदैव भयभीत रहता है कि कोई व्यक्ति देख, सुन न ले और हमारा रहस्य उद्घाटित न कर दे ।सुना जाता है कि राजा श्रेणिक अपने पुत्रमोह में इतना तल्लीन रहता था कि कदाचित् उसका पुत्र कुछ भी गन्दगी उस पर कर देता तो वह उससे घृणा नहीं करता और अपने हाथ में ही उसे लिये रहता था सही कहा है मोह व्यक्ति को अंधा विवेक शून्य बना देता है। एक बार भोजन करते समय, बच्चे के हाथ से लड्डू गिरकर गंदगी में चला गया, फिर भी राजा ने ग्लानि नहीं की और वह लड्डू स्वयं भी खाया और बच्चे को भी खिलाया, उसने सोचा किसी ने थोड़े ही देखा है बच्चा तो मेरा है, उसकी ही गन्दगी से स्पर्शित हुआ कोई बात नहीं । उसी दिन मंत्रियों ने आमोद-प्रमोद के लिये राज्यसभा में नगर की प्रसिद्ध नृत्यकारिणी को नृत्य हेतु बुलाया, कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, नृत्य एक गाने के माध्यम से प्रारंभ हुआ वे लाइन थी “ललन की बतियाँ बताए दे हूँ” राजा ने सुना चौंक गया, सावधानता से बैठ गया, वह सोचता है कहीं इसने देख तो नहीं लिया था, नृत्य चलता रहा, उसमें बार बार-इस लाइन को दुहराया गया तब राजा ने नृत्य समाप्त करने के उद्देश्य से उसे अंगूठी दी। पर इस नृत्यकारिणी ने समझा, राजा को यह लाइन “ललन की बतियाँ बताए दे हूँ ” अधिक पसंद आई इसलिये उन्होंने हमें इनाम दिया है, इसलिये उसने नृत्य प्रारंभ ही रखा, तब पुनः राजा ने हार दिया, उसने समझा राजा को पूरा गाना वहीं, यही लाइन अच्छी लगी है, तभी वे सावधानता से इस गीत को सुन रहे हैं तथा नृत्य देख रहे हैं। और वह नृत्यकारिणी इस लाइन को ही बार-बार दुहराने लगी राजा ने उसे शान्त करने के लिये सारे आभूषण क्रमशः दे दिये लेकिन उसका नृत्य तथा गीत बंद नहीं हुआ तब राजा ने आवेश में आकर कहा गाने की ये लाइन “ललन की बतियाँ बताए दे हूँ” समाप्त करो । ठीक है बतलाना हो तो बतला दो मैंने कोई बड़ा पाप नहीं किया, बस इतनी ही हमसे त्रुटि हो गई कि मैंने अपने बच्चे की गन्दगी में से लड्डू उठाकर खा लिया । इस प्रकार मायाचारी व्यक्ति सदैव भयभीत रहता है।
गुणों के आगर-आर्जव धर्म
यमुना के किनारे श्री कृष्ण जी बंशी की तान छेड़ रहे थे । उनकी बंशी की मधुर तान को सुनकर मृग और मणिधर मग्र हो रहे थे। उसी समय गोपियाँ पानी भरने के लिये यमुना नदी पर गयी थीं। गोपियों ने जैसे ही कृष्ण के अधरों में लगी बंशी को देखा, गोपियाँ ईर्ष्या से जल भुन गई। कि अरे ! ये कैसी बंशी ? श्री कृष्ण कन्हैया का इतना प्यार पा रही है। हम लोग इतनी सजीधजी फिर भी श्री कृष्ण से इतनी दूर और यह काली-कलूटी, छेद पर छेद फिर भी इतना स्नेह पा रही है। श्री कृष्ण जी कहते हैं कि बात ज्यादा कुछ नहीं है ये जो बांसुरी है भले ही रंग में काली-कलूटी है, दुबली-पतली सी, छेद पर छेद हैं, किंतु इसमें तीन गुण मुझे बड़े प्यारे मिले हैं – पहला गुण तो इस बंशी का यह है कि कभी भी यह बिना बुलाये नहीं बोलती । जो बिना बुलाये बोलता है वह कभी इज्जत प्रतिष्ठा नहीं पा पाता । जब मैं बुलाने की कोशिश करता हूँ, या जब मेरा बुलाने का मन होता है तभी ये बंशी स्वर देती है, तभी ये बंशी बोलती है। दूसरा गुण यह है कि जब भी यह बोलती है मीठा, मधुर ही बोलती है मधुर भाषी होना इसका श्रेष्ठ गुण है । तीसरा गुण यह है कि बंशी के अंदर कोई भी ग्रन्थि, कोई भी गाँठ नहीं है आर-पार पोली है। जैसा बाहर साफ-सुथरा सरल जीवन है। अंदर का भी ऐसा ही साफ-सुथरा सरल जीवन है । जिसका जीवन गाँठ, ग्रंथि से रहित एकदम सरल होता है उसके जीवन में आर्जव धर्म आता है और फिर वही संसार में पूज्यता, पावनता को प्राप्त करता है। सभी के स्नेह और प्रेम का पात्र बनता है।
गुरू की सरलता
बात उस समय की है जब आचार्य विमल सागर जी महाराज के संघ मुनि बाहुबली महाराज थे। एक दिन उनसे कोई कार्य बिगड़ गया । तो न गुरुदेव उनसे उपेक्षित हो गये और ऐसे-वैसे नहीं, महाराज बहुत जोर से नाराज हो गये। और बोले- अभी निकल जाओ यहाँ मेरे संघ से। अब वो बेचारे, क्या करें ? उनका अध्ययन भी कम था। लेकिन उनको अनुभव बहुत अधिक था । महाराज ने कहा- निकलते हो कि नहीं, अभी जाना है, उठिये यहाँ से। महाराज जी ने कहा अभी जाता हूँ। आचार्य श्री ने कहा मेरी बात नहीं सुनता, उठो यहाँ से । बाहुबली महाराज उठ गये। क्योंकि आचार्य श्री उठकर आ गये थे, उनके पास । बाहुबली महाराज को पश्चाताप हुआ, दुख हुआ। अंत में शाम की आचार्य वंदना का समय आ गया, वे आचार्य वंदना में आये। आचार्य श्री ने उन्हें पुनः वहाँ से भगा दिया। फिर वे अपने कमरे में चले गये रात्रि का समय हो गया। सामायिक हो गयी सभी की। वैय्यावृत्ति का अवसर आ गया। बाहुबली महाराज प्रायः वैय्यावृत्ति उस समय करते थे, जब वैय्यावृत्ति करके सभी लोग चले जाते थे। महाराज की चटाई उठाना, ठंडी के समय हवा के स्त्रोत बंद करना, अनावश्यक लोगों को अलग करना, उनका काम रहता था । उस दिन भी वे अपने टाईम पर पहुँचे। अब महाराज मौन हैं, अब थोड़े ही कुछ कहेंगे। ऐसा सोचकर वे उनके पास रुक कर उनकी वैय्यावृत्ति करने लगे और उनकी अश्रुधारा बहने लगी। दुनियाँ पिघल सकती है पिघलाने वाला चाहिये। बाहुबली महाराज पूज्य गुरुदेव की वैय्यावृत्ति कर रहे हैं उनके पैर दबा रहे हैं और उनकी अश्रुधारा अनवरत् चल रही है । आचार्य श्री उन्हें उन्मीलित नयनों से देख रहे हैं। और उनके आँसू देख कर पूज्य आचार्य श्री के भी आँसू निकल पड़े। ऐसी होती है गुरु के हृदय की सरलता।
आचार्य विरागसागर जी के प्रवचनों से संकलित