क्रोध
क्रोध-कष्टों का आगर
एक तूंकारी नाम की राजकन्या जिसका पालन-पोषण हर सुख- सुविधा के साथ होने पर भी उसमें एक दुर्गुण था, कि उससे कोई यदि तूंकारी कहता, तो उसका क्रोध भड़क जाता, एक तो वह शरीर से भी कारी थी और कहावत है “काने को काना कहो तो तुरतई जाए रुठ ” उसी प्रकार यह शब्द सुनकर वह लड़ने, झगड़ने के लिये तत्पर हो जाती, इस तरह प्रतिदिन उसके अंदर क्रोध की ज्वाला बढ़ती गई क्योंकि उसे स्कूल में तथा रिश्तेदारों व परिवारजनों मे भी सभी चिढ़ाते थे क्योंकि जो चिढ़ता है प्रायः उसे उतना ही चिढ़ाया जाता है, कुछ दिनों पश्चात राजा को चिंता हुई कि बेटी की शादी कहाँ की जाए ? राजपुत्री की एक ही शर्त थी कि मैं उससे शादी करूँगी, जो मुझे कभी तूंकारी न कहे, जिस दिन कहेगा मैं उस दिन घर त्याग दूँगी, इसलिये कोई राजपुत्र तैयार नहीं हुआ, परंतु एक गरीब श्रेष्ठीपुत्र के साथ उसका इस शर्त के साथ विवाह हुआ, उसके पश्चात उसका प्रवेश अपनी ससुराल में हुआ, धीरे-धीरे समय बीता । एक दिन उसका पति किसी कारणवश लेट हो गया, उसने गुस्से के कारण काफी समय तक दरवाजा नहीं खोला, तो पति ने कहा तूंकारी सुन दरवाजा खोल । अब तो पारा चढ़ा और वह आगबबूला हो गई, अब वह कारी ही नहीं क्रोध में महाकाली, विकराली, चाण्डाली हो गई, रोष में आकर रातों-रात घर से निकल गई, श्रेणिक चरित्र में आया है कि जंगल में बड़े कष्टों से उसका समय बीता, कभी केवल फलों को खाकर समय बिताना पड़ा पर पुण्योदय से योगायोग निग्रंथ मुनिराज के दर्शन हुये तथा उनका पुनीत धर्मोपदेश मिलता है उन्होंने उससे उपदेश में कहा- बेटा !
क्रोधो नाश्यते धैर्यं, क्रोधो नाश्यते श्रुतम् ।
क्रोधो नाश्यते सर्वं, नास्ति क्रोध समो रिपुः ॥
क्रोध से धैर्य तथा श्रुत का नाश हो जाता है, क्रोध से हमारा सर्वजीवन नाश होता है। क्रोध के समान हमारा कोई बड़ा शत्रु नहीं है। कहा भी हैं- “क्रोधोन्मूलं अनर्थाः” क्रोध ही अनर्थों का मूल है, “भवेत् क्रोधाद्धोगति ततः श्रेयोर्थिना त्याज्य से सदेतिं जिनोदितम्” क्रोध से अधोगति होती है, इसलिये कल्याण की भावना वालों के लिये क्रोध का त्याग कर देना चाहिये । तूंकारी कहती है-महाराज, इतने कष्टों को मुझे आज सहना पड़ा, उनसे गुजरना पड़ा, घर से जंगलों में घूमना पड़ा तो इसका मुख्य कारण मेरा थोड़ा सा क्रोध ही था. मैंने क्रोध के दुष्परिणामों का रहस्य अपने अनुभव मे देख लिया कि क्रोध कितना हानिकारक होता है और मुनिसंघ से प्रतिज्ञा ले ली कि मैं अब कभी क्रोध नहीं करूँगी, सदैव क्षमा धारण करूँगी ।
क्रोध एक नशा
एक बार की बात है, किसी एक परिवार में दो भाई थे। किसी कारणवश दोनों भाईयों में विवाद हो गया और वह विवाद बैर में बदल गया। तीव्र बैर के कारण दोनों भाई एक-दूसरे को मारने का अवसर खोजने लगे। एक बार बड़ा भाई छत पर अकेला सो रहा था, छोटा भाई मारने के अवसर में तो था ही, जैसे ही उसने देखा कि यह अकेला सो रहा है उसी समय तलवार लाकर उसने उसको मार दिया। पश्चात् छोटे भाई ने अपने बड़े भाई का मुख देखा तो उसे अपने बड़े भाई के प्रति प्रेम जाग्रत हुआ। वह हक्का-बका सा रह गया। वह सोचने लगा कि, मैंने छोटे से विवाद के कारण अपने बड़े भाई की हत्या कर दी। मैं नीच हूँ, अधर्मी हूँ, पापी हूँ आदि आदि प्रकार से अपने किये गये पाप की आलोचना करते हुये, उसी तलवार से अपनी आत्महत्या करने का विचार करने लगा। परंतु तब तक बहुत लोग वहाँ उपस्थित हो गये । उन्होंने उसे रोका और तुरंत दूसरे स्थान पर ले गये, वह फूट-फूट कर रोने लगा, परंतु क्रोध के आवेश में अनर्थ तो हो ही चुका था। अर्थात् क्रोध एक नशा है इसे दूर से ही छोड़ देना चाहिये।
क्रोध – एक ज्वालामुखी
एक बार की बात है कि एक परिवार में पति, पत्नि तथा एक बच्चा था। एक दिन पति रुपयों की गड्डी लेकर आया और पत्नि को लाकर दे दी। पत्नि उस समय भोजन बना रही थी उसने रुपयों की गड्डी वहीं पास में रख ली। बालक वहीं पास में खेल रहा था । पत्नि किसी काम से दूसरे कमरे में गई तभी बालक ने रुपयों की गड्डी को जलती हुई अग्नि में डाल दिया। जिससे सारे रुपये जल गये। पत्नि ने आकर देखा कि रुपयों की गड्डी कहाँ गई। उसकी दृष्टि चूल्हे में जलते हुये नोटों पर पड़ी। उसका क्रोध जाग्रत हुआ और उसने क्रोध में बेटे को उठाया और जलते हुए चूल्हे में डाल दिया। बच्चा जल गया। इतने में बाहर से पतिदेव आ गये। उसने बच्चे को जलते हुए देखा तो उसका क्रोध भड़क उठा और उसने आव देखा न ताव, पत्नि को उठाया और चूल्हे पर पटक दिया। जिससे पत्नि भी खत्म हो गई। जब गुस्सा शांत हुआ तो सारा परिवार खतम हो चुका था। इतने में पुलिस आ गई और वह उसे पकड़ कर ले गई। यह था थोड़े से क्रोध का परिणाम कि सारा परिवार समाप्त हो गया। अतः क्रोध एक ज्वालामुखी की तरह है।
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आचार्य श्री विराट सागर जी के प्रवचनों से संकलित