श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

कहानी सबसे सुहानी

अभिमान – दुःखों का बीज

एक बार की बात है कि एक नदी के किनारे एक बाँस तथा एक घास का वृक्ष था, एक दिन बाँस उस घास को देखकर के हँसा मेरे सिवाय कोई बड़ा नहीं है और अभिमान के साथ घास से बोला अरे घास, तेरा जीवन कितना तुच्छ है ? तू कितनी छोटी है? तेरी क्या कीमत है ? मेरे सामने तुझे कोई नहीं पूछता है ? मेरा जीवन देखो कितना महान है, पावन, पवित्र है। घास बोली ठीक है भैया, मेरा जीवन तुच्छ ही सही। लेकिन एक दिन बहुत तेज तूफान और बाढ़ आ गई, जिससे बाँस धराशायी हो गया और घास लहलहाते हुये अपने ही स्थान पर खड़ी रही। जब तूफान खत्म हुआ तो घास ने कहा-अरे भैया ! बाँस, तुम कहाँ हो ? तुम्हें क्या हो गया है ? बाँस ने जब घास की आवाज सुनी तो बोला बहिन ! मत पूछो, मेरी क्या हालत है ? तुम सही हो । घास हाँ, मैं ठीक हूँ। बाँस-बहिन ! मेरी तो क्या दशा है मत पूछो जगह-जगह से शरीर में घाव हो गये और तुम इतने बड़े तूफान को सहन करके भी उसी खुशी के साथ लहलहा रही हो। वास्तव में जीवन तुम्हारा नहीं मेरा तुच्छ है कि, मैंने इतना बड़ा शरीर पाया और उस पर भी अभिमान किया है। अत्ः मान कभी भी स्थायी नहीं रहता है। वह एक न एक दिन धराशायी होता ही है। इसलिए कहा गया है कि अभिमान ही दुःखों का बीज है ।

उत्तम मार्दव

दो मित्र थे दोनों में बड़ी घनिष्टता थी। बचपन में भी दोनों साथ पढ़ते थे । अंतर केवल इतना था कि एक गोरा था और एक काला । गोरा हमेशा ही काले की मजाक उड़ाता था, उसके लिये अपमानित करता था लेकिन काला मित्र वास्तव में सही मित्र था, पीछे लगा रहता था। समझाता रहता था कि मजाक नहीं उड़ाना चाहिये। लेकिन वह नहीं मानता था। एक दिन बगीचे में दोनों बैंच पर बैठे हुये थे। बहुत सारे लोग घूमते हुये आकर के खड़े हो गये, और बोले क्या कर रहे हो तुम लोग ? कौन-सी चर्चा चल रही है ? गोरे ने कहा कि-ये काला कहाँ से आकर के बैठ गया। आओ तुम लोग बैठो। उससे रहा नहीं गया उसने मन में सोचा कि आज तो इसके लिये शिक्षा देनी ही चाहिये । उसने कहा-ठीक है भैया ! तुम बहुत गोरे हो, मैं तो बहुत काला हूँ। पर इतना ध्यान रखना मेरा थोड़ा सा काला रंग तुम्हारे गोरे शरीर में चला जाएगा तो तुम्हारे शरीर में चार चाँद लग जायेंगे, तिल बन जायेगा, तुम्हारे शरीर की सुंदरता बढ़ जायेगी। लेकिन ध्यान रखो। मेरे काले शरीर में थोड़ा सा भी तुम्हारा सफेद रंग आ जायेगा तो हमारा शरीर कोढ़ी बन जाएगा । तथ्य परक इस बात को सुनते ही उस अहंकारी मित्र की आखें खुल गई ।

अहंकार का फल

एक बाग में गुलाब की एक कली डाल पर लगी थी। बड़ी सुंदर थी। गर्व में फूली थी। वहीं से आने-जाने का रास्ता था। रास्ते में एक पत्थर पड़ा था। वहाँ से लोग निकलते थे जिससे पत्थर को ठोकर लग जाती तो कली हँसती। कहती “देख भाई पत्थर ! मुझे देखकर लोग प्रसन्न होते हैं, तुझे पैर से ठोकर मारते हैं”। दूसरे दिन एक शिल्पी वहाँ से निकला। उसने वह सुंदर पत्थर उठा लिया, उसे तराशा और एक सुंदर मूर्ति बना दी। और पास के मंदिर में ही उस मूर्ति को प्रतिष्ठित कर दिया। एक दिन एक व्यक्ति आया उस कली को तोड़ा। वह कली अब तक फूल बन चुकी थी। उसने उसे उस मूर्ति के चरणों पर रख दिया। अब मूर्ति मुस्कुरायी। फूल बोला-“मैं शर्मिंदा हूँ” मैंने व्यर्थ में तुम्हारा मजाक उड़ाया, तुम्हें हीन समझा, तुमसे घृणा की। इस प्रकार हमें अंहकार करके दूसरे को हीन नहीं समझना चाहिये। क्योंकि अंहकारी को शर्मिंदित होना पड़ता है।

ज्ञान का अभिमान नहीं

एक बार की बात है कि एक राजा ने दो पण्डितों को राजसभा में बुलाया और कहा कि मैं तुम लोगों को सम्मानित करना चाहता है. आप लोग स्नान वगैरह करके आयें. उसी समय राजा के मन में परीक्षा लेने का विचार आया और एक पंडित जी से कहा- पंडित जी आप स्नान करके आयें राजा की आज्ञा पा एक पंडित जी स्नान करने चले गये, तब तक राजा दूसरे पंडित जी से बोले-देखो, वे पंडित जी कितने विद्वान हैं। तब दूसरे पंडित जी ने कहा-अरे महाराज, वह तो बैल है । राजा को आश्चर्य होता है। उसी समय पहले पंडित जी स्नान वगैरह करके आ जाते हैं तभी राजाने दूसरे पंडित जी से कहा कि-आप भी स्नान वगैरह करके आयें और पहले पंडित जी से बोले-वे पंडित जी कितने विद्वान हैं। पहले पंडित जी कहते हैं कि वह तो गधा है। राजा को लगा वास्तव में दोनों पंडित हैं लेकिन ज्ञान के अभिमान में हैं। इनको एक-दूसरे के ज्ञान की कीमत नहीं है, विनय नहीं है, अपने-अपने ज्ञान का गर्व है। राजा दोनों पण्डितों को अपनी भोजनशाला में भोजन कराने के लिये ले जाते हैं और एक के सामने घास तथा दूसरे के सामने भूसा डाल दिया तभी दोनों पंडित जी एक दूसरे की ओर देखने लगे कि, देखो राजा ने हमारा अपमान कर दिया । राजा ने कहा- पंडितजी आप लोगों के द्वारा ही आपका परिचय गधा, बैल के रूप में दिया गया था। मुझे तो पता नहीं था कि आप लोग यह सब खाते हैं क्योंकि आप लोगों के बोलने से ही आपका परिचय मिला है कि आप लोग क्या हैं? इस प्रकार हमें एक-दूसरे के ज्ञान की तथा गुण की विनय करना चाहिये तभी हमें ज्ञान आ सकता है। क्योंकि अभिमान, ज्ञान को सम्यक् रुप प्रदान नहीं होने देता है। इसलिए ज्ञान का कभी अभिमान नहीं करना चाहिए ।

अहंकार का परिणाम

एक बार की बात है कि चार मित्र थे, उनके घर के दरवाजे एक दूसरे के आमने – सामने थे, वे सभी वहीं खेलते थे । एक बार एक पंडितजी वहाँ से निकले, उन्होंने देखा और चारों को अपने पास बुलाया, चारों कुशाग्र बुद्धि वाले थे । पश्चात् पंडित जी ने उनके माता-पिता को बुलाया और कहा कि-आप इन लोगों को इधर क्यों रखे हो ? इनको पढ़ने के लिये बनारस भेज दो और उनके जाने की व्यवस्था की गई। वहाँ स्कूल में बालकों को विषय चुनने को दिया गया उनमें से पहले मित्र ने अंक विद्या, दूसरे ने शिल्पकला, तीसरे ने चित्रकला, चौथे ने मंत्र विद्या का चयन किया । पढ़ते-पढ़ते उनका बहुत सारा समय व्यतीत हो गया और वह अपनी विद्या में दक्ष हो गये । पूर्ण शिक्षा के बाद उन्हें प्रमाणपत्र दिया गया और वे वापिस अपने गाँव की ओर बढ़े । पहले बस वगैरह नहीं चलती थी, जिससे पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। पैदल चलते-चलते रास्ते में एक घने जंगल में आ गये। रात्रि प्रारंभहो जाने से आगे चलना उचित नहीं था, उन्होंने उस जंगल में ही विश्रांति करने का विचार किया लेकिन रात्रि के बारह घण्टे का समय निकालना है और सभी के हिस्से में तीन-तीन घण्टे हो रहे हैं तो सभी लोगों ने विचार किया कि सभी बारी-बारी से पहरा देंगे। पहला बोला- मैं पहले जागूँगा। तो सभी लोग सो गये, पहला जाग रहा था, रात्रि निकालनी थी क्या करें ? उसने देखा शीशम के पेड़ हैं उसके नीचे लकड़ी पड़ी है उसने एक प्रकार की लकड़ी चुनी, चार-छह लकड़ी चुनकर उनमें अंक बना दिये, तीन घण्टे पूरे हो गये, तब उसने दूसरे को जगाया कि हमारा समय हो गया है, मैंने लकड़ी निकाल कर के रख दी है, आप शिल्पकला में निपुण हैं आप जो बनाना चाहते हैं बना सकते हैं। वह सोचता है कि जंगल में जंगल का राजा शेर होता है और उसने दो-तीन घण्टे में एक शेर की आकृति को तैयार कर दिया, उसका भी समय हो गया। उसने तीसरे को जगाया, उसने कहा- आप चित्रकला में निपुण हैं, आप इसमें जो रूप-रंग देना चाहें दे सकते हैं। उसने शेर को देखा, वह रंग (तूल्लिका) तो लिये ही था उसने रंग भरना शुरु कर दिया। शेर के ही समान रंग भर दिये और शेर तैयार हो गया। उसका भी समय पूरा हो गया। उसने चौथे मित्र को जगाया कि हमारा समय पूरा हो गया है, अब आपका समय है, वह कहता है मैंने शेर की आकृति को तैयार किया है अब अपना काम आप करो । चौथा मित्र अहंकार से कहता है कि सबने अपनी-अपनी कुशलता दिखा दी अब मैं क्यों न मंत्र विद्या का प्रयोग करूँ और मंत्र विद्या ऐसी विद्या है, जिस पर फूंक दी जाये तो काम करती है। क्योंकि मंत्र विद्या निष्प्राण में भी प्राण दे सकती है। दूरदृष्टि के अभाव में तथा अभिमान के कारणउसने यह तो नहीं सोचा कि यदि प्राण प्रतिष्ठा हो गई तो वह हम सबको नहीं छोड़ेगा। उसने सोचा मैं भी अपनी कला को दिखाऊँगा और मंत्र की सिद्धि करना शुरु कर दिया उसने अभी दो-चार बार पुष्प छिडके कि वह शेर जीवित हो गया। गर्जना करने लगा वह भूखा तो था ही और उसने सभी को भक्षण कर लिया। यह अहंकार का ही परिणाम है कि उन्हें अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा ।

रूप मद

मगध देश के लक्ष्मी नामक ग्राम में सोमदेव नाम का ब्राह्मण रहता था, उसकी प्रिया का नाम लक्ष्मीमती था वह रूप और सौभाग्य की मानो साक्षात् लक्ष्मी थी किन्तु यौवनावस्था से ही उसका मन उन्मत्त था। वह हमेशा विप्रपने के गर्व से मण्डित रहती थी। एक बार पक्षोपवास आदि तपों की खान स्वरूप समाधिगुप्त नामक मुनि आहार हेतु नगर में आये विप्र ने उनको भक्तिपूर्वक दान देने के लिए पत्नि से कहा कि हे प्रिये, गुणवान मुनिराज को आहार कराओ। ऐसा कह कर वह ब्राह्मण घर से बाहर चला गया और कार्य में व्यस्त हो गया। मुग्धा स्त्री ने जब शय्या पर बैठकर दर्पण में मुँह देखा तो गर्व से मुनि के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करने लगी और किवाड़ बन्द करके बैठ गई, इस प्रकार की निंदा से वह भयंकर नरक की पात्र हुई। वहाँ से निकल कर कुष्ट रोग वाले शरीर को प्राप्त हुई उस पाप के कारण परिवार के लोगों ने उसे घर से निकाल दिया, वह कुष्ट रोग को सहन करने में असमर्थ होने के कारण अग्नि में जलकर मर गई, फिर धोबी के यहाँ गधी हुई, वहाँ पर भी दूध न मिलने से मरकर शूकरी हुई। फिर कुतिया हुई, आश्चर्य है हलाहल विष खाने से प्राणी का एक ही भव कष्टदायी होता है, किन्तु मुनि की निंदा करने से भव-भव में दुःख होता है बाद में वह भृगुकच्छ नामक देश में नर्मदा के तट पर धीबर की पुत्त्री दुर्गन्धा हुई, वहाँ पर नाव को चलाती हुई काल व्यतीत करने लगी। एक बार नदी के तीर पर मुनि को देखकर प्रणाम किया और कहा, कि भगवन् मेरे पिछले भव बताने का कष्ट करें। मुनिराज ने उसके पूर्व भव का वर्णन किया। यह सुनकर बोली हे भगवन् ! पड़ती हुई कुयोनियों से मेरी रक्षा करो। मुनिराज ने उसे क्षुलिका के व्रत प्रदान किये उसके फलस्वरूप वह स्वर्ग गयी। वहाँ से आकर कुण्ड नगर में राजा भीष्म की पुत्री हुई । जो रूपगुण से सम्पन्न थी, उस कन्या का रुक्मणी नाम पड़ा जो कि श्री कृष्ण की पटरानी हुई। इस प्रकार पुण्य-पाप, मान-अपमान के फल को जान कर मार्दव धर्म की रक्षा करना चाहिए।

दान मद

हस्तिनापुर नगर में राजा बलि ने सात सौ मुनियों के ऊपर घोर उपसर्ग किया। जैन मुनियों पर उपसर्ग करने की प्रसन्नता पर दान-शाला खोल दी और विप्रों के लिए किमिच्छिक दान बाँटा जाने लगा। विष्णु कुमार महामुनिराज को इस उपसर्ग का ज्ञान हुआ तो अपने ध्यान को छोड़ कर मुनियों की रक्षा हेतु हस्तिनापुर आये। विप्र का वेश बनाकर बलि राजा से तीन पग जमीन की याचना की उसने कहा कि कुछ और माँग लीजिए महाराज । तब विष्णुकुमार विप्र वेश धारी ने उत्तर दिया कि मैं इससे अधिक नहीं चाहता । किन्तु इतना जरुर है कि उस तीन पग जमीन को मैं स्वयं नापूँगा । बलि ने स्वीकार कर लिया। तब विष्णुकुमार ने अपनी विक्रिया से विशालकाय रुप बना एक पैर में लवण समुद्र तक नाप लिया। दूसरे पैर से मानुषोत्तर पर्वत तक का क्षेत्र नाप लिया। अब तीसरा पैर रखने को जगह नहीं, तब बलि की पीठ पर पैर रखा। यह आश्चर्य देख “बलि” आदि चारों मंत्रियों का मद चूर हुआ। मुनि विष्णुकुमार ने मुनियों के उपसर्ग को दूर किया। तभी से रक्षाबंधन का पर्व प्रारम्भ हुआ । अतः हमें कभी भी दान का अभिमान नहीं करना चाहिये ।

विनय से विद्या

राजगृही नगर की बात है। एक भील की स्त्री को असमय में आम खाने का दोहला उत्पन्न हुआ । भील ने अनेक जगह आम खोजे किन्तु प्राप्त नहीं हुये, एक दिन राजा श्रेणिक के बगीचे में आम मिल गये जिसे वह तोड़ कर ले आया। भील के पास अन्तर्धान नाम की विद्या थी जिसके कारण वह सबको देखता था किन्तु उसको कोई नहीं देख पाता था। माली परेशान हो गया रोज आम बगीचा से जाने लगे। राजा से शिकायत की गई। राजा ने अनेक सैनिकों को पहरे पर लगा दिया। एक दिन भील पकड़ा गया। राजा के पास उपस्थित किया गया। राजा ने पूँछा तुम्हारे पास कौन सी विद्या है. जिसके बल से तुम आम चुरा लेते हो और लोग देख नहीं पाते ? भील ने कहा- हमारे पास अन्तर्धान नाम की विद्या है जिसके बल से मैं सबको देखता हूँ मुझे कोई नहीं देख पाता। राजा ने कहा वह विद्या यदि हमें सिखा दोगे तो मैं तुम्हें दण्ड नहीं दूंगा। भील ने कहा-हजूर मैं विद्या सिखाने को तैयार है । भील ने पढ़ाना शुरु किया राजा ऊपर बैठा था भील नीचे था, वह बार-बार कोशिश कर रहा था। लेकिन राजा को विद्या सिद्ध नहीं हो रही थी। उसी समय श्रेणिक का पुत्र अभय कुमार आया और राजा से कहा-कि आप गुरु बन कर विद्या सीखना चाहते हो या शिष्य बन कर ? आप नीचे बैठें और गुरु को ऊपर बैठायें। क्योंकि यह विद्या ग्रहण करने का मूल मंत्र है जैसे ही राजा स्वयं नीचे बैठा और उसको ऊपर बैठाया तब क्षण मात्र में विद्या सिद्ध हो गयी। इसलिए विनय गुण ही सर्व सम्पदाओं को देने वाला है, ऐसा विचार कर कभी भी घमण्ड नहीं करना चाहिए।

दूसरों को अपमानित करने का फल

एक बार की बात है कि एक महिला को अपनी जाति तथा रूप आदि का बहुत अभिमान था, उसकी शादी हुई तो वह सोचती है कि मैं ससुराल जाऊँगी, तो मुझे सास के आधीन रहना पड़ेगा और शादी के बाद ही उसने अपने पति से सास, ननद वगैरह के दुख कहना व रोना शुरु कर दिये कि माँ जी हमको बात-बात पर टोकती रहती हैं, चैन से नहीं रहने देती है आदि। वह रोज-रोज पति को अपना दुखड़ा सुनाती। एक दिन बोली- अगर तुम अलग नहीं होओगे, तो मैं इस घर में नहीं रहूँगी। अपनी माँ के घर चली जाऊँगी । पति, पत्नि का गुलाम था और न भी हो तो परिस्थितियाँ सब कुछ करवा देती है। और पति ने सोचा रोज-रोज की चैचैं चैंपें से अच्छा है, न्यारे हो जायें, सिर दर्द खत्म हो जायेगा। सब लोग चैन से रहेंगे। वह अपने पिताजी से कहता है और दूसरे मकान में रहने लगता है। इसके बाद भी पत्नि को चैन नहीं, वह सोचती है मैं अब सास को मजा चखाऊँगी और पति जो माँ का भक्त है इसे भी देखूँगी। और एक दिन वह पेट दर्द का बहाना बना करके लेट गई। पति ने पूछा कि क्या हुआ? पत्नि ने कहा पेट दुख रहा है। पति ने अनेक डॉक्टर तथा वैद्य को दिखाया लेकिन कुछ भी आराम नहीं मिला। बहुत दिन हो गये, वह पत्नि की सेवा करता, उसके पैर दबाता आदि। एक दिन पति ने अपनी पत्नि से कहा कि-बताओ, कितने दिन हो गये अभी तक तुम्हारा पेट का दर्द ठीक नहीं हुआ, क्या करें ? ऐसे कौन से कर्म का उदय चल रहा है ? इस प्रकार वह अपनी सात्त्विक भाषा में बहुत कुछ कहता है । तब पत्नि कहती है- घबराने की आवश्यकता नहीं है, शादी से पहले मैं घर में एक व्रत करती थी, उस समय मुझे एक देवी सिद्ध हुई थी, आज वह मेरे स्वप्न में आई थी और वह रोग निदान की विधि बतला रही थी उस विधि का टोटका है, कोई भी डॉक्टर उसे ठीक नहीं कर सकता है, वह टोटका है कि हमारी सास यानि तुम्हारी माँ सिर मुड़ा के तथा मुख को काला करके सुबह से दर्शन देने आये, यानि मैं सुबह से उनको देखूँ तो मेरी बीमारी खत्म हो जायेगी। पति सोचता है, ये कैसे हो सकता है ? जिस माँ ने मेरा इतना किया और मैं उसके साथ ऐसा व्यवहार करूँ और वह एक विधि निकालता है कि उसकी माँ यानि पत्नि की माँ, अपनी सास को एक पत्र लिखता है, उसमें लिखा था पूज्य सासू जी ! तुम्हारी बेटी का स्वास्थ्य बहुत दिनों से खराब है हम सभी बहुत परेशान हैं आपकी बेटी को कल रात स्वप्न आया है उसमें कोई देवी जो आपकी बेटी को पहले से सिद्ध है, उसने कहा है कि अगर तुम्हारी माँ यानि हमारी सास सिर मुड़ाकर तथा मुख काला करके सुबह से अपना मुख दिखाये तो स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा, घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे ही पत्नि की माँ ने उस पत्र को पढ़ा तो सोचा चलो, बेटी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो अच्छा है। बाल तो फिर बढ़ जायेंगे तथा बाद में मुख साफ कर लेंगे और वह पत्र के अनुसार कार्य करके बेटी के घर जाती है और सुबह होते ही दरवाजा खटखटाती है । पति दरवाजे के पास आकर पूछता है कौन? पत्नि की माँ कहती है- मैं बेटी की माँ हूँ। दरवाजा खोला जाता है। पति, पत्नि को आवाज लगाता है कि, अरे सासु जी आई हैं तो उसकी पत्नि समझती है मेरी सास आई है। वह तुरंत उठ करके बैठ जाती है। इतने में अम्मा पास में आ जाती है और मुख काला तथा सिर मुड़ा होने के कारण वह पहिचान नहीं पाती है कि कौन हैं ? वह खुश हो जाती है और कहती है “देखो वीर वाणी के चाले, सिर मुंडे मुख काले”। और कहती मैं स्वस्थ हो गई हूँ। पति देखकर मुस्कुरा जाता है और कहता – तुम्हारा पेट दर्द तो ठीक हो गया होगा। वह कहती है -हाँ। तब पति कहता है – “देखो मर्दों की ये फेरी, अम्मा तेरी है या मेरी”। इतना सुनते ही वह ध्यान से देखती है तो पहचान जाती है कि यह तो मेरी ही अम्मा है। वह शर्मिंदा होती है। अतः दूसरों को अपमानित करने वाला स्वयं अपमानित होता है।

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