श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

कहानी सबसे सुहानी

विनय

अहम् बुद्धि का त्याग/विनय भाव

एक जंगल में एक डाकू रहता था जो चोरी करता था, उसी से उसकी आजीविका चलती थी। उसी जंगल में एक मंदिर था जिसमें साधु जी रहते थे, वे षट् आवश्यक क्रियाओं में अपना समय व्यतीत करते थे । एक दिन डाकू ने देखा, इस मंदिर में साधु के पास बहुत व्यक्ति आते हैं। निश्चित ही इस साधु के पास धन-सम्पत्ति होगी, तभी इतनी सारी भीड़ संत के पास आती है। जैसे ही सब व्यक्ति गये, वह डाकू उन साधु के पास पहुँच गया और उनसे बोला-तुम्हारे पास क्या है ? जो तुम्हारे पास इतने सारे लोग आते हैं? अतः जो भी तुम्हारे पास है वो हमको दो । साधु महाराज ने कहा-मेरे पास तो मात्र पिच्छी कमण्डल है, इसके सिवाय मेरे पास कुछ भी नहीं है। उसने कहा नहीं, तुम्हारे पास कुछ तो है, तुम मुझको नहीं बता रहे हो । फिर मुनिराज चिंतन करते हैं और कहते हैं-हाँ, मेरे पास रत्न हैं, अगर आपको चाहिये हो तो मैं आपको दे सकता हूँ लेकिन उन रत्नों को पाने के लिये एक शर्त है उस शर्त का पालन करना होगा। डाकू बोला-हाँ, चाहिये मुझे, मैं उसे पाने के लिये हर शर्त को स्वीकार करूँगा और वह साधु उसको आगे जंगल में ले गया। डाकू, साधु से कहता कि आप मुझे वह शर्त बतायें मैं उन रत्नों को पाना चाहता हूँ । साधु ने कहा कि पहले आप घर जायें और घरवालों से पूछे कि, मैं जो पाप कर रहा हूँ उस पाप का फल  भोगने में कौन-कौन सहयोगी होगा ? कौन-कौन मेरा साथ देगा ? चोर ने कहा कि मेरी भी एक शर्त है कि जब तक मैं घर से वापिस लौट कर नहीं आता, तब तक मैं आपको इस पेड़ से बाँध देता हूँ कहीं आप भाग न जायें। संत को वृक्ष से बाँधकर वह डाकू घर गया और सबसे पहले अपनी प्रिय पत्नि से पूछा कि हे प्रिय, मैं चोरी करके तुम्हारे लिये इतने वस्त्र, आभूषण तथा खाने का सामान लाता हूँ लेकिन क्या तुम उस पाप का फल भोगने में मेरी सहयोगी बनोगी ? वह कहती है-नहीं, क्योंकि जब मैं मुहल्ला-पड़ोस में जाती हैं तो सभी कहते हैं कि यह तो डाकू की पत्नि है तो मुझे नीचा देखना पड़ता है । मुझे शर्मिन्दा होना पड़ता है। फिर वह माँ के पास जाता है। माँ से पूछता है तो माँ भी मना कर देती है। वह कहती है-जब मैं पानी भरने कुएं पर जाती हूँ तो सभी कहते हैं कि, इसका बेटा तो चोर है इससे दूर रहना। वह सोचता है कि, देखो मैं इन सब के लिये इतना सारा पाप करता हूँ लेकिन ये भी साथ नहीं देंगे। वह फिर पिता के पास जाता है, उनसे पूछता है वह भी मना कर देते हैं वह कहते हैं-जब मैं किसी गली-मुहल्ला तथा दुकान पर जाता हूँ तो सभी लोग कहते हैं कि इसका पुत्र डाकू है, तब मुझे लगता है कि इससे अच्छा था कि मेरा पुत्र ही नहीं होता। बहिन से पूछा तो वह भी मना कर देती है वह कहती है-तेरे कारण मेरी शादी नहीं हो पा रही है। बेटे से पूछा, उसने भी मना कर दिया, वह बोला-मैं स्कूल में छात्रों-अध्यापकों के मध्य में बैठता हूँ तो सभी कहते हैं यह तो डाकू का बेटा है। ये शब्द सुन-सुन कर मेरे कान पक गये हैं। इतनी चर्चा के दौरान रात हो गई तब वह सोचता है, देखो जिसके लिये मैं इतना पाप कर रहा हूँ वे भी मेरे पाप कर्म को भोगने में साथ नहीं देंगे और वह सुबह होते ही जंगल में साधु के पास जाता है और उनके चरणों में गिरकर रोने लगता है और कहता है कि मैं जिनके लिये पाप कर रहा हूँ, उनमें कोई भी मेरा साथ नहीं देंगे। अतः हे गुरुदेव ! आप मुझे अपने साथ रखें और दीक्षा दें, मैं अभी तक जिनको अपना मान रहा था, जिस अभिमान में जी रहा था, कि ये सब मेरे हैं लेकिन कोई भी मेरा नहीं है। इस प्रकार हम सबको अहम् बुद्धि का त्याग करना चाहिये, इस अभिमान या मान कषाय को छोड़ना चाहिये ।

निस्पृहता

एक बार धर्म सागर जी महाराज दिल्ली में थे तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके दर्शन करने आना था। जैसे ही इंदिरा गांधी दर्शनार्थ, आचार्य श्री की वसतिका में आई तो. किसी एक व्यक्ति ने आकर कहा कि आचार्य श्री आप सिंहासन पर बैठ जायें, क्योंकि आचार्य श्री जमीन पर बैठे थे। शायद जमीन पर ही लेटे होंगे, जिससे उनके शरीर पर धूल लगी थी और वह व्यक्ति आचार्य श्री के शरीर पर लगी धूल को जल्दी-जल्दी झाड़ने लगा। आचार्य श्री ने कहा अरे-अरे ! क्या कर रहे हो ? उसने कहा-आपके शरीर पर धूल लगी है तथा पुनः सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना की। तब आचार्य श्री ने कहा – नहीं, मैं तो यहीं ठीक हूँ, मुझे नहीं बैठना। इंदिरा गांधी हैं तो क्या हुआ, आना हो तो आयें, न आना हो तो न आयें, मेरे को उनसे कुछ लेना-देना नहीं, मेरे लिये तो सभी समान हैं। यह बात इंदिरा गांधी को सी.आइ.डी. के माध्यम से पता चली तो सी.आइ.डी. ने कहा कि ऐसे साधु के पास नहीं जाना चाहिये, क्या फायदा जाने से ? तब इंदिरा गांधी ने कहा कि नहीं, ऐसे साधु के दर्शन करने में जरूर जाऊँगी तथा ऐसे निस्पृही संत के दर्शन करना ही चाहिए । बंधुओं, यह थी आचार्य श्री की निस्पृहता ।

 

सज्जनों की सज्जनता

एक बार अकबर के दरबार में राजसभा लगी हुई थी । अकबर ने बीरबल से कहा- बीरबल, मेरा एक प्रश्न है उसका उत्तर तुम्हें देना होगा। बीरबल ने कहा- हुजूर, प्रश्न क्या है? अकबर ने कहा यदि किसी व्यक्ति ने एक लाइन खींची है तो उसको बिना मिटायें कैसे छोटा किया जाये ? बीरबल ने कहा- पहले इस प्रश्न को सभा में उपस्थित लोगों से पूछे । सबसे पूछ लेने के पश्चात् बीरबल ने कहा, हजूर इस प्रश्न का उत्तर अब मैं दूँगा । यदि उस लाइन के नीचे बड़ी लाइन खींच दी जाय तो पहले खींची गई लाइन अपने आप छोटी हो जायेगी। सज्जन व्यक्ति इस ही प्रकार के होते हैं। वे किसी कि लाइन को मिटाते नहीं हैं बल्कि स्वयं, विनय आदि के द्वारा अपनी लाइन को बड़ी कर लेते हैं। ऐसी ही होती है सज्जनों की सज्जनता।

Leave a Reply