🙏तत्वज्ञान संस्कार 🙏- 1
🙏जिनशासन की जय🙏
भाइयों और बहनों,
आज हम जैन धर्म के नौ तत्वों में से प्रथम तत्व – ‘जीव’ पर मनन करेंगे। यह विषय इतना सहज नहीं जितना दिखता है, परंतु जब यह हृदय में उतरता है, तब जीवन को बदल देता है।
प्रश्न उठता है – जीव कौन? क्या वह मैं हूँ? या मेरा शरीर?
शास्त्र कहता है – “देह नहिं जीव, जीव नहिं देह”। शरीर तो केवल वस्त्र है, असली मैं – वह जीव है – चेतन सत्ता, आत्मा।
1. जीव – चेतना का चमत्कार
चलिए एक उदाहरण से शुरू करें:
एक सुंदर मूर्ति है – आँखें, नाक, कान – सब हैं। पर क्या वह देख सकती है? सुन सकती है? नहीं।
क्यों? उसमें जीव नहीं है।
और वहीं एक छोटा-सा कीट – न आंखें इतनी सुंदर, न शरीर की बनावट – पर वह चलता है, उड़ता है, प्रतिक्रिया करता है।
क्यों? क्योंकि उसमें जीव है।
तो जीव क्या है?
जो जानता है – वह जीव है।
जो अनुभव करता है – वह जीव है।
जो कर्मों का भोग करता है – वह जीव है।
2. जीव के गुण – आत्मा की पहचान
जैसे सोना चाहे किसी भी आभूषण में ढल जाए, पर उसका स्वभाव ‘स्वर्णत्व’ ही रहता है, वैसे ही आत्मा शरीर बदल सकती है, पर उसका स्वभाव नहीं बदलता।
आत्मा के गुण हैं:
ज्ञान (जानने की शक्ति)
दर्शन (देखने की शक्ति)
अनंत ऊर्जा(वीर्य शक्ति)
सुख का स्रोत
शास्त्र कहते हैं – “परिणमति चेतना धर्मो जीवः” – जहाँ चेतना है, वहीं जीव है।
3. जीव की व्यापकता – अनंत जीव अनंत रूप
पृथ्वी से लेकर आकाश तक, जल की एक बूंद से लेकर अग्नि की एक चिंगारी तक, हर जगह जीव हैं।
जैन शास्त्रों में पाँच इंद्रिय जीवों से लेकर एक इंद्रिय स्थावर जीवों का विस्तृत वर्गीकरण है।
एक बार एक साधु महाराज ध्यान में थे। एक विद्यार्थी ने पूछा – “क्या आप सच में मानते हैं कि जल में जीव होते हैं?”
साधु मुस्कराए – “तेरा मोबाइल कितनी जानकारी समेट सकता है, सोच सकता है? फिर ईश्वर की सृष्टि के जल में जीवन क्यों नहीं हो सकता?”
4. आत्मा की अनंतता – सीमाओं से परे
जीव कोई एक शरीर में बंधा नहीं। अनादि है – उसे कोई जन्म नहीं हुआ, और न ही उसका अंत होता है।
वह कर्मों के कारण इस संसार में भटकता है – मनुष्य बनता है, देवता बनता है, तिर्यंच बनता है, नरकगामी भी होता है।
लेकिन…!
जो जाग गया – जिसने जान लिया “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” – उसका पुनर्जन्म चक्र रुक सकता है।
5. आत्मा की यात्रा – अज्ञान से आत्मज्ञान तक
क्या आपने कभी यह प्रश्न पूछा – “मैं कौन हूँ?”
यदि नहीं पूछा, तो जीवन अभी नींद में है।
पर जिसने यह प्रश्न पूछा – वह अविनाशी यात्रा पर निकल पड़ा है – आत्मा की ओर। वही आत्मा जीव है।
6. व्यवहार में जीव तत्व – सिर्फ ज्ञान नहीं, जागृति
किसी चींटी को कुचलने से पहले रुकिए – उसमें भी जीव है।
भोजन में, पानी में, वाणी में – हर क्रिया में सोचिए, “क्या इससे किसी जीव को पीड़ा होगी?”
आत्मा की रक्षा – यही जीव तत्व की श्रद्धा है।
भाइयों और बहनों,
जीव तत्व जानना – आत्मा को जानना है।
यह ज्ञान केवल पुस्तकों में नहीं – अपने भीतर उतरता है, तो यह क्रांति लाता है।
इसलिए रोज़ अपने आप से पूछिए:
“क्या आज मैं जीव को पहचान सका? क्या मैंने अपने भीतर उस चेतना को अनुभव किया?”
पारस मल जैन
जोधपुर