देश में जब जनगणना होती है, तब हमारे मन्दिरों में भी बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए मिल जाते हैं। ये पोस्टर किसी-न-किसी बड़ी जैन संस्था द्वारा प्रकाशित कराये जाते हैं। इनमें जैन बन्धुओं से एक ही अपील होती है- ‘आप जाति के कॉलम में जैन लिखायें। यह अपील कुछ चौंका देने वाली है। क्या वास्तव में ‘जैन’ नाम की कोई जाति भारत में रहती है; या पहले कभी रहती थी?
प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था थी। इसकी स्थापना प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ ने की थी। उस समय मात्र तीन वर्णं थे: क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र। बाद में भरत चक्रवर्ती को एक और वर्ण (ब्राह्मण वर्ण) की स्थापना की आवश्यकता का अनुभव हुआ। इस तरह तीन के स्थान पर चार वर्ण हो गये। यह वर्ण-व्यवस्था भगवान् महावीर के लगभग तीन सौ वर्ष बाद तक अविरत चलती रही। विभिन्न व्यक्तियों के कार्य तथा उनकी प्रवृत्तियों के आधार पर ही उन्हें विभित्र वर्गों में बाँटा गया था। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ तो बदलती रहती हैं; अतः एक ही परिवार के लोग विभिन्न वर्णो के रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। एक वर्ण के लोग दूसरे वर्ण के लोगों में विवाह-सम्बन्ध भी करते थे। क्षत्रिय पुरुष क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र कन्या से विवाह कर सकता था। ब्राह्मण पुरुष ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र कन्या से विवाह कर सकता था। वैश्य पुरुष वैश्य या शूद्र की कन्या से विवाह कर सकता था। कोई वर्ण किसी विशेष धर्म से सम्बन्धित नहीं था। किसी भी वर्ण वाला कोई भी धर्म ग्रहण कर सकता था। इतना ही नहीं, एक ही परिवार के लोग विभिन्न धर्मों को ग्रहण करते थे। भगवान् पार्श्वनाथ के नाना जैनेतर थे। राजा श्रेणिक पहले बौद्ध था; लेकिन उसकी रानी चेलना जैन थी। राजा श्रेणिक ने बाद में जैनधर्म स्वीकार कर लिया, लेकिन उसके बेटे अजातशत्रु (कुणिक) ने बौद्धधर्म स्वीकार किया। राजा चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य भद्रबाहु के शिष्य थे, बाद में वे दिगम्बर मुनि भी हो गये थे, लेकिन उनका पोता सम्राट अशोक बौद्ध धर्मानुयायी था।
कहने का अर्थ यह है कि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग धर्मों को मानना एक ही परिवार में रहने के लिए बाधक नहीं था। प्रत्येक व्यक्ति को विचारों की परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। उसे यह अपनी बुद्धि से ही निर्णय करना होता था कि वह किस धर्म को ग्रहण करे तथा किसे न करे। कभी किसी पिता ने अपने पुत्र पर कोई धर्म थोपा हो, ऐसा कहीं देखने में नहीं आता है।
भगवान् महावीर के कुछ समय पहले से ही ब्राह्मणवाद का बहुत जोर था। ब्राह्मण स्वयं को सर्वोपरि समझते थे। वे अपने को पुजवाने लगे। उन्होंने एक नयी व्यवस्था को जन्म दे दिया यह कि ब्राह्मण पिता का पुत्र ब्राह्मण वर्ण का ही कहलायेगा फिर चाहे वह चाण्डाल का कार्य ही क्यों न करे? इसी प्रकार शूद्र पिता का पुत्र भी शूद्र होगा, चाहे वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो? ब्राह्मणों की इस व्यवस्था का ही यह परिणाम था कि देश में विभिन्न जातियों की स्थापना हो गयीं। कहते हैं, राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था; विभिन्न वर्ग तथा समुदाय रोजगार की तलाश में विभिन्न दिशाओं में पलायन कर गये। कहीं वर्ण-संकरता न हो जाए इस भय से विभिन्न वर्ग या समुदाय विभिन्न जातियों में परिणत हो गये। ब्राह्मणों ने ऐसा चक्र घुमाया कि कालान्तर में ये जातियाँ पुनः एक वर्ण में परिणत नहीं हो सकीं।
इस स्थिति में भी एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग धर्मों को ग्रहण कर सकते थे। कोई धर्म किसी जाति विशेष से सम्बन्धित नहीं रहा। ज्ञातव्य है किसी जमाने में जैनधर्म को मानने वाले लोग करोडों की संख्या में थे लेकिन आज ये उतनी संख्या में नहीं है। कारण स्पष्ट है कि बहुत से लोगों ने जैनधर्म छोड कर अन्य धर्म ग्रहण कर लिया। यदि जैनधर्म पहले से ही जाति-विशेष से सम्बन्धित रहा होता तो आज भी जैनों की संख्या उतनी ही होती जितनी पहले कभी हआ करती थी। इतना ही नहीं, हमारे सभी तीर्थकर क्षत्रिय थे. लेकिन आज जैनधर्म को मानने वाला शायद ही कोई क्षत्रिय हो। स्पष्ट है, कालान्तर में क्षत्रियों ने जैनधर्म छोड दिया। इससे वह जाहिर होता है कि जैनधर्म किसी जाति विशेष से सम्बन्धित नहीं था। पहले विभित्र जातियाँ तो थी, लेकिन ‘जैन जाति’ जैसी कोई जाति नहीं थी।
जब हम पिछले तीन-चार सौ वर्ष पूर्व का इतिहास उठा कर देखते हैं तब यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया में कहीं भी ‘जैन’ नाम की कोई जाति नहीं थी। पण्डित कविवर बनारसीदासजी जैनधर्म के महान् ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी आत्म-कथा ‘अर्द्ध-कथानक’ में अपना विस्तृत परिचय दिया है। उन्होंने उनकी जाति जैन है, इसका उल्लेख कहीं नहीं किया है। पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने भी स्वयं को ‘जैन’ जाति का होना नहीं बताया है। पं. दौलतरामजी ने भी अपनी जाति ‘जैन’ नहीं लिखी है। यदि हम प्राचीन मूर्तिलेख, शिलालेख तथा ग्रन्थ-प्रशस्तियों का अवलोकन करें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि पहले विभिन्न जातियों, जैसे- अग्रवाल, खण्डेलवाल ओसवाल आदि का उल्लेख तो प्रचुर मात्रा में आया है, लेकिन ‘जैन जाति’ का उल्लेख कहीं नहीं हुआ है।
आज से लगभग सौ साल पहले लोगों ने अपने नाम के साथ ‘जैन’ लिखना शुरू किया था; लेकिन तब मात्र वे लोग ही जैन लिखते थे, जो जैन धर्मानुयायी थे। ये लोग भी अपनी जाति जैन नहीं बताते थे; हाँ, वे अपना धर्म अवश्य जैन बताते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक ऐसा ही था। लेकिन देश के स्वतंत्र होने के साथ ही नया संविधान बना। उसकी रचना के समय हमारे राजनायकों ने अनुभव किया कि जैनधर्म सहित कुछ अन्य धर्मों की मानने वाले लोग बहुत कम संख्या में हैं। अतः राजनैतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने धर्म के आधार पर विभिन्न जातियों को जन्म दे दिया। इनमें मुख्य छह हैं हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, तथा बौद्ध। इस व्यवस्था का उस समय सभी लोगों ने स्वागत किया। जैन नेता भी इससे प्रसन्न थे, लेकिन आज जब हम इस व्यवस्था पर विचार करते हैं तब लगता है कि यह बहुत अनर्थ हो गया। किसी अन्य धर्म का अहित हुआ हो, या न हुआ हो किन्तु जैनधर्म का बहुत अहित हुआ।
देश की स्वतंत्रता के समय जो लोग जैन धर्मानुयायी थे उनके वंशज आज भी अपने नाम के आगे ‘जैन’ लिखते हैं, परन्तु वे जैनधर्म का पालन नहीं करते। दूसरी और यदि कोई जैनेतर जैनधर्म को अंगीकार करना चाहेगा तथा अपने नाम के साथ वह ‘जैन’ जोड़ना चाहेगा तो उसका विरोध होगा। हमारे नेता ही कहेंगे कि उसकी जाति ‘जैन’ नहीं है, वह अजैन है। प्रकार आज हम जैनधर्म को दो तरह से नुकसान पहुँचा रहे हैं। एक तो जो अपने को ‘जैन’ कहते हैं, वे जैनधर्म का पालन नहीं करते तथा दूसरे हम उन जैनेतर लोगों को ‘जैन’ मानने को तैयार नहीं हैं, जो जैन-धर्म को तहेदिल से स्वीकार करना चाहते हैं।
आज ऐसे बहुत-से ‘जैन’ उपनामधारी मिल जाएँगे जो न तो कभी जैन मंदिर जाते हैं और न ही जैनधर्म की कोई चर्चा करते हैं। यहाँ तक कि उन्हें यह भी नहीं मालुम कि महावीर जयन्ती, पर्युषण पर्व आदि कब आते हैं ! बहुत-से ऐसे लोगों को ‘णमोकार मंत्र’ तक नहीं आता। कुछ ‘जैन’ उपनामधारी ऐसे भी मिलेंगे, जो चाण्डालों से भी बदतर कार्य करते हैं। कुछ समय पूर्व एक प्रकरण सामने आया था। एक फर्म का नाम था ‘जैन शुद्ध वनस्पति’ और उसमें धन्धा होता था घी में चर्बी मिलाने का। मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ, जिसकी फर्म का नाम है ‘जैन वेजीटेबिल शॉप’ किन्तु जो बेचती है अण्डे। उनसे आग्रह करने पर कि यह कार्य अनुचित है, वे तरह-तरह के कुतर्क करने लगते हैं। एक जैन बन्धु ऐसे भी हैं, जो सूखी मछलियों को पीसने का धन्धा करते हैं। चमड़े तथा जूतों का व्यापार करने वाले तो बहुत सारे ‘जैन’ हैं। क्या ऐसे लोगों को कोई अधिकार है कि वे स्वयं को ‘जैन’ कहें?
आज ऐसे बहुत से युवक मिल जाएँगे, जो अपने नाम के आगे ‘जैन’ तो लिखते हैं, लेकिन जैनधर्म की चर्चा तक नहीं करते हैं बल्कि अण्डा, मांस और मदिरा का खुलकर सेवन करते हैं। तो क्या ऐसे लोगों का अपने नाम के साथ ‘जैन’ लिखना उचित है? हरगिज नहीं। आखिर ये लोग जैनधर्म को बदनाम करने में क्यों जुटे हुए हैं? ऐसे लोगों को अपने नाम से ‘जैन’ शब्द को इस अविलम्ब हटा लेना चाहिये। ऐसा न करने से जैनधर्म की प्रतिष्ठा/प्रामाणिकता को बहुत ठेस पहुँचती है। यदि कोई व्यक्ति जैन धर्मानुयायी है, तो कोई जरूरी नहीं है कि उसका बेटा भी जैन धर्मानुयायी हो। यदि कोई शाकाहारी है, तो कोई ज़रूरी नहीं है कि उसकी संतान भी शाकाहारी ही हो; बल्कि वास्तविकता पर जाएँ, सचाई को देखें। बहुत-से जैनेतर यह कहते मिल जाते हैं कि बहुत-से जैन युवक धर्म-कर्म को नहीं मानते तथा अण्डा, माँस आदि का सेवन करते हैं। हमें अफसोस इस बात का नहीं है कि वे जैनधर्म को क्यों नहीं मानते या वे मांसाहारी क्यों हैं? दुःख इस बात का है कि वे अपने नाम के आगे ‘जैन’ क्यों लिखते हैं? जब उनका जैनधर्म से मीलों तक का कोई नाता-रिश्ता नहीं है, तब उन्हें क्या अधिकार है कि वे स्वयं को ‘जैन’ कहें?
दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं कि जैन दर्शन एक उच्चकोटि का दर्शन है। यही कारण है कि बहुत से जैनेतर दर्शनशात्रियों ने अपने व्यवहार में जैनधर्म को पूरी तरह धारण किया, लेकिन वे खुद को जैन इसलिए नहीं कह सके कि उनके पिता जैन नहीं थे और यदि वे ‘जैन’ लिखना प्रारम्भ कर भी देंगे तो जैन लोग उन्हें स्वीकारेंगे नहीं।
आचार्य विनोबा भावे भारतीय दर्शनों के अच्छे ज्ञाता थे वे जैनधर्म से बहुत प्रभावित थे। अपने जीवन में भी वे वही करते थे, जो एक जैन को पहले करना चाहिये। वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिनके मन में यह विचार आया कि जैसे मुसलमानों का धर्मग्रन्थ ‘कुरान’ है, ईसाइयों की ‘बाइबिल’, हिन्दुओं की ‘गीता’ तथा सिखों का ‘गुरुग्रन्थ साहब’ है, उसी प्रकार जैनों का भी एक धर्मग्रन्थ होना चाहिये। इसे ध्यान में रख कर उन्होंने ‘समण सुत्तम्’ नामक संग्रह तैयार कराया। कहते हैं इसके प्रथम प्रकाशन में विनोबाजी ने उस द्रव्य (धन) का प्रयोग किया, जिसे वे एक समय का भोजन त्यागने पर बचाया करते थे। ‘भूमिका’ में विनोबा जी ने यहाँ तक लिखा है कि ‘मैं जैनधर्म की सभी क्रियाएँ करता हूँ। सच पूछो तो मैं जैन ही हूँ।’ इतना ही नहीं, उन्होंने समाधि-पूर्वक मरण भी किया। प्रश्न है कि क्या विनोबा जैन नहीं थे? क्या वे इसलिए ‘जैन’ नहीं थे, चूंकि उनके पिता जैन नहीं थे?
आगरा में एक हरिजन थे, जिनका नाम कदाचित् ‘लालमणि’ था। वे कट्टर कांग्रेसी थे तथा जैन गुरुओं / साधुओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें जैनधर्म का अच्छा ज्ञान था। वे जैनधर्म की क्रियाओं का न सिर्फ पालन करते थे, बल्कि उनका उपदेश/प्रवचन भी करते थे। क्या वे इसलिए ‘जैन’ नहीं थे कि हरिजन थे?
अंकलेश्वर में एक सज्जन हैं (अभी नहीं रहे)। वे जन्म से घाची (तेली) हैं, लेकिन ये जैनधर्म के अच्छे विद्वान् हैं। वे जमींकन्द आदि का सेवन नहीं करते तथा मंदिर में नित्यप्रति ‘समयसार’ आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का प्रवचन करते हैं। क्या वे ‘जैन’ नहीं है?
जैनधर्म किसी की बपौती नहीं है कि जिसे नाम के साथ जैन लिखने वालों के अलावा कोई और नहीं मान सकता। ‘जैन’ कोई जाति नहीं है। ‘जैन’ तो धर्म है।
इसे कोई भी व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। जो व्यक्ति भगवान् महावीर और उनके उपदेशों में श्रद्धा रखता है, वह जैन है तथा वह अपने नाम के साथ जैन लिखने का अधिकारी है; लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारा समाज इन बातों को मानने को तैयार नहीं है। जो लोग अपने नाम के आगे ‘जैन’ लिखते हैं वे तो जैन रहे नहीं और अन्य जैनेतर लोग जो जैनधर्म पर श्रद्धा रखते हैं उन्हें हम ‘जैन’ मानने को तैयार नहीं हैं। इस प्रवृत्ति से जैन धर्मानुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है; फलस्वरूप जैनधर्म के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। यदि हमें जैन धर्म बचाना है तो हमें इस संकुचित विचारधारा से मुक्त होना ही होगा।
प्रश्न यह है कि जैनधर्म का अस्तित्व बनाये रखने के लिए आज हमारा नैतिक कर्तव्य क्या है? हमारे रचनात्मक कार्यक्रमों का स्वरूप कैसा हो? जैनधर्म में सम्यत्क्तत्व के आठ अंगों की चर्चा है। उनमें से एक है प्रभावना। प्रभावना का अर्थ तो यह है कि हम जैनधर्म का अधिक-से-अधिक प्रचार-प्रसार करें ताकि जैनेतर जन उससे प्रभावित हो कर उसे मानने लगेंः लेकिन शायद हमने रथ-यात्राओं, गजरथ समारोहों आदि जलसों और जुलूसों को ही ‘प्रभावना’ मान लिया है। आज हमें इन सब प्रवृत्तियों का सही और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना चाहिये, यह कि क्या वास्तव में इस तरह जैनधर्म की प्रभावना हो रही है? असलियत तो यह है कि हम इस प्रकार के कार्यक्रमों से अपने नाम के साथ ‘जैन’ लिखने वालों को तो प्रभावित कर नहीं पाते, फिर जैनेतरों को क्या प्रभावित करेंगे?
यदि हम जैनधर्म की सच्चे दिल से प्रभावना करना चाहते हैं, तो हमें कुछ ठोस कार्यक्रम अमल में लाने होंगे। विभिन्न मेले-तमाशों में फिजूलखर्ची रोक कर उस धन का उपयोग हमें जैन ग्रन्थों के प्रकाशन में करना होगा। इस साहित्य को, सम्भव हो तो, निःशुल्क अन्यथा सस्ते मूल्य में उपलब्ध मे कराना चाहिये। ऐसी शिक्षण संस्थाएँ खोली जानी चाहिये, जिनमें बच्चों को जैनधर्म की सरल और तर्कसंगात शिक्षा दी जा सके। आजकल जैन स्कूल-कॉलेजों में ऐसा नहीं हो रहा है। आज हमारे अनेक विद्वान् तथा अनेक जैन-उपजातियों आर्थिक कठिनाइयों के शिकार हैं। जो लोग जैनधर्म के लिए पूरी तरह समर्पित हैं या जो गरीब जैन धर्म का पालना करते हैं, क्या उनके जीवन-यापन की समुचित व्यवस्था हमें नहीं करनी चाहिये इन सबके अतिरिक्त निम्र अपील की भी आवश्यकता है:
(1) अपने नाम के साथ वे लोग ही ‘जैन’ लिखें, जो जैनाचार का पालन करते हैं। जो लोग अपने नाम के साथ ‘जैन’ लिखते हैं; लेकिन अण्डा, माँस, या मदिरा का सेवन करते हैं वे ‘जैन’ नहीं हैं। उन्हें अपने नाम के साथ ‘जैन’ जोड़ने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें चाहिये कि वे अपने नाम के पीछे से ‘जैन’ शब्द अविलम्व हटा लें।
(2) जो भी व्यक्ति भगवान् महावीर और उनके सिद्धान्तों में आस्था रखता है, वह ‘जैन’ है फिर चाहे वह किसी भी जाति या वर्ण का हो।
(3) ‘जैन’ कोई जाति नहीं है, जैन धर्म है; अतः जैनों को एक जाति के रूप में नहीं वरन् विभित्र वर्णो तथा विभित्र जातियों के एक ऐसे स्वस्य समुदाय के रूप में लेना चाहिये जो जैनधर्म के तत्त्वदर्शन तथा उसके आचरण-पक्ष में विश्वास रखते हैं।
डॉ. अनिल कुमार जैन
बापू नगर, जयपुर