श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

जैन धर्म के सात व्यसन- त्याग का सामाजिक महत्त्व

जैन धर्म का मूल उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति है। इसके लिए जैन धर्म के अनुयायी विभिन्न नैतिक आचरणों का पालन करते हैं, जिनमें व्यसनों से बचना एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है। जैन धर्म में सात मुख्य व्यसनों जिन्हें सप्त व्यसन कहा जाता है आत्मा की शुद्धि में बाधक माना गया है। ये व्यसन व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाते हैं और उसे मोक्ष के मार्ग से भटकाते हैं । जैन धर्म में इन व्यसनों का त्याग अनिवार्य माना गया है।

व्यसन का अर्थ है-आदत । किन्तु वर्तमान में व्यसन शब्द बुरी आदतों के लिए प्रसिद्ध हो चुका है। व्यसन शब्द वि + असन से निर्मित हुआ है । “वि” का अर्थ है – विकृत, विकृति पैदा करने वाला, विपरीतता का जनक “असन” शब्द का अर्थ है आहार अथवा महा पापों की कारण भूत, लोक व्यवहार के प्रतिकूल, धर्माचरण व सुसंस्कारों की विध्वंसक, आगम,, लोक-व्यवहार व धर्म के विरूद्ध निंदनीय बुरी आदतों को ही व्यसन कहते हैं। ये सप्त व्यसन मानो नरक में जाने के सात द्वार ही है जो इन व्यसनों में आसक्त हुआ वह नरक में पहुंच गया। जिसने इन व्यसनों का त्याग कर दिया है। वे पुरूष ही वास्तव मे पुरूष कहलाने के योग्य हैं। वे ही आत्महित एवं परहित करने में समर्थ हो पाते हैं। वे सप्तव्यसन निम्नांकित है-
1. द्यूत – क्रीड़ा (जुआ)
रुपये या धन की बाजी लगाकर जितने भी हार-जीत के खेल खेले जाते हैं, उसे द्यूत- क्रीड़ा या जुआ कहतें हैं । सामान्यता मनोरंजन के लिए ताश पत्तों से खेलना जुआ नहीं है किन्तु पैसों की बाजी लगा कर खेलना जुआ है। वर्तमान युग में सट्टा, लॉटरी, शेयर, केसीनो, विभिन्न जुआ घर, क्लब विविध रूप से प्रचलित हो गए हैं। शर्त लगाना भी जुआ कहलाता है।
जो विविध रूप हमारे सामने उभर कर आए हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है अपितु उसके पीछे बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्ट प्रवृत्ति है। जुआ खेलने से व्यक्ति के मन में लालच, क्रोध और द्वेष जैसी भावनाएं उत्पन्न होती हैं। जुआ व्यक्ति के जीवन में नकारात्मकता और अशांति लाते हैं। जुआ खेलने से व्यक्ति लालच और असंतोष में डूब जाता है ।
यह व्यसन व्यक्ति को नैतिक और आर्थिक रूप से कमजोर बना देता है और उसे अनैतिक गतिविधियों में लिप्त कर देता है। वर्तमान युग में द्यूत-क्रीड़ा के कारण अनेक परिवारों का जीवन संकट में पड़ जाता है। प्राचीन काल में महाभारत में पांडवों द्वारा द्यूत- क्रीड़ा में द्रोपदी को दाव पर लगाने के कारण महाभारत का युद्ध होना सबसे सटीक उदाहरण है । अतः द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के संबंध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता।

2. मांसाहार

दो इन्द्रिय से लेकर संज्ञी पर्चेन्द्रिय व जितने भी औदारिक शरीरधारी जीव हैं उनके शरीर / मृतक लेवर को मांस कहां जाता है। अंडा भी मांस का ही एक भेद है। मांस खाने वाला निःसन्देह दयाहीन, निर्दयी, अधम एव पापी कहलाता है। उसके मन मे कभी पवित्र विचारों का जन्म नहीं होता। मांसाहारी दुर्गति का ही पात्र होता है।

मांसाहार के सेवन से अहिंसा का सिद्धांत टूटता है। मांसाहार जीवों की हत्या के माध्यम से प्राप्त होता है, जो जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत अहिंसा के खिलाफ है। इसलिए, मांसाहार को जैन धर्म में एक गंभीर व्यसन माना गया है। मांसाहार जैसे व्यसन व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं।

यह सर्वविदित है कि मांस का उत्पादन बिना हिंसा के संभव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना संभव नहीं है। मांसाहार के निमित्त जो हिंसा या वध किया जाता है उसके लिए वध कर्ता का अधिक क्रूर एवं हिसंक होना आवश्यक है। क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे गुणों का ह्रास होता है और समाज में भय, हिंसा तथा आतंक का तांडव प्रारंभ हो जाता है ।

जहां तक स्वास्थ्य का प्रश्न है मांसाहार स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है । आजकल वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि मांसाहार से विभिन्न बीमारी कैंसर जैसे रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए पश्चिमी देश जो मूलतः मांसाहारी हैं, इन देशों में भी शाकाहार को ग्रहण किया जा रहा है तथा मांसाहार का त्याग किया जा रहा है ।

3. शराब का सेवन (मद्यपान )

मद्य शराब को कहते हैं। यह सड़े-गले फलों से, अनाज से, महुवा, गुड़ आदि से बनायी जाती है। इसमें असंख्यात जीव राशि का निचोड़ा हुआ रस है । यह बुद्धि को नष्ट कर के मदोन्मत कर देती है। मद्यपायी व्यक्ति विवेक शून्य होकर पापों में और अधिक प्रवृत्ति करता है। उसका तन, धन नष्ट हो जाता है। मन भी अपावन हो जाता है। अतः चेतना को पुनः अधोगति की यात्रा करनी पड़ती है। मद्यपायी के हृदय दया शून्य, धर्म शून्य, विवेक शून्य, सुख शांति से रहित नारकीयों के समान ही होते हैं।

शराब पीने से हिंसक प्रवृत्ति बढ़ती है, जिससे व्यक्ति अहिंसा के मार्ग से भटक जाता है। मद्यपान और शराब के सेवन से व्यक्ति का मन विचलित हो जाता है और वह नैतिक मूल्यों से भटक जाता है। मद्यपान एक ऐसी बुराई है जो मानव समाज के गरीब अमीर दोनों परिवार को में हावी है। जैन परंपरा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिए किया गया कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इसे मानव विवेक कुंठित होता है और जहां मानवीय विवेक ही कुंठित हो जाएगा तो दूसरी सारी बुराईयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट हो जाएंगीं।

आज मद्यपान की वजह से कितने ही परिवार टूट रहे हैं। शराब की लत के कारण मनुष्य अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां को पूर्ण रूप से नहीं निभा पाता है, इतना ही नहीं शराब के नशे में मनुष्य अपने परिवार में बच्चों तथा पत्नि के साथ भी मारपीट करता है। कई बार तो देखा गया है कि शराब के नशे में आदमी सड़कों पर पड़ा रहता है, कीचड़ में चला जाता है। जिसके कारण समाज में तथा परिवार में हास्य का पात्र बनता है। मद्यपान के कारण कितने ही परिवारों में सम्बन्ध विच्छेद हो रहे हैं। अतः जैन धर्म में मद्यपान को आत्मा की शुद्धि में सबसे बड़ा बाधक माना गया है।

4. वेश्यागमन

स्त्रियाँ जो धन के लोभ में आकर अपने शील को बेच देती हैं, ऐसी दैहिक व्यापार करने वाली व्यभिचारिणी स्त्रियां वेश्याएं कहलाती हैं। इनके साथ सम्बंध रखना वेश्यागमन व्यसन है। वे पुरूष महापापी है, जो अपने कुल में दाग लगाकर धन गंवाकर धर्म भ्रष्ट हो, दुःखों को आमंत्रित करने हेतु इनसे सम्पर्क रखते हैं। उनका इस लोक में तो अपयश होता ही है, परलोक में भी उन्हें नरकों के दारूण दुःखों को सहन करना पड़ता है।

यह जैन धर्म के ब्रह्मचर्य के सिद्धांत के खिलाफ है। यह व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर बनाता है और उसे आध्यात्मिक मार्ग से दूर कर देता है। व्यभिचार, जैन धर्म के नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता हैं। यह व्यसन व्यक्ति को अनैतिक गतिविधियों में लिप्त कर देता है, जिससे वह अपने आध्यात्मिक लक्ष्य से दूर हो जाता है।

वैश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय है, वल्कि आर्थिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अवांछनीय माना गया है । सामाजिक सदाचार और पारावारिक सुख शांति के लिए वैश्यागमन का त्याग अनिवार्य है। वैश्यागमन से एड्स जैसी जानलेवा बीमारी हो जाती है तथा न केवल खुली वासना को प्रोत्साहन मिलता है बल्कि वीर्य का क्षरण भी होता है। वीर्यहीन युवक राष्ट्र के विकास में योगदान नहीं दे सकता है। अतः जैन धर्म में इसे सप्त व्यसनों में सम्मलित करते हुए निषेध किया गया है।

5. परस्त्री गमन

धर्मनीति, लोक नीति सामाजिक नियमानुसार, आगमोक्त विधि से परणायी गई विवाह की हुई स्वय की परिणीता स्त्री को (स्त्रियों के लिए पुरुषों को छोड़ कर शेष स्त्रियों से सम्बंध रखना, उनके प्रति बुरे विचार रखना, उनके साथ गलत चेष्टाएं करना परस्त्री गमन नामक का व्यसन है । इस व्यसन को करने वाला व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, जनसामान्य की दृष्टि में भी निंदा का पात्र बन जाता है। जीवन भर की इज्जत, प्रतिष्ठा, मान–सम्मान क्षणभर में धुल जाते हैं। चेहरे पर अमित कलंक का टीका लग जाता है । पुनः ऐसा व्यक्ति जीवन को अतिसंक्लेशता व दुःखों के साथ व्यतीत करता है। पर भव में नरकों के दारूण दुःखों को दीर्घ काल पर्यन्त सहन करता है । क्षणभर के असद् विचार, असद् चेष्टा, क्रिया का परिणाम अनेकों भवों को कलंकित व दुखों से पूर्ण बना देना है। विज्ञ पुरूष इनसे बचने का एवं ऐसे पुरूषों का संगति का भी त्याग कर देते हैं। अतः पुरूषों को कितना भी समझाओ बार-बार ऐसी ही गलतियां करते रहते है जो कि उनके लिए दीर्घ काल तक दुःख व पश्चाताप का ही कारण होती हैं।

6. शिकार

मनोरंजन करने में, खेल – खेल में, शौक की पूर्ति में तथा मांसाहार के लिए निःसहाय मूक पशुओं की जान ले लेना ‘शिकार’ नामक व्यसन है । दूसरो को दुःख देकर उनके प्राणों का हरण कर कोई सुखी नहीं हो सकता। शिकार बुद्धि पूर्वक / संकल्प पूर्वक की गई महाहिंसा है। हिंसा दुःखों की जननी है, महापाप है। सभी धर्मों में इसका निषेध बताया है। जो शिकार करता है, कराता है, या करने वाले की अनुमोदना करता है, निःसन्देह वह महापापी है। दुर्गति का पात्र है। मूक व असहाय पशुओं पर जुल्म ढाहना मानव का कार्य नहीं, दानवों का ही कुकर्म हो सकता है। शिकार व्यक्ति को क्रूर बनाता है, शिकार जैसे व्यसन व्यक्ति के जीवन में नकारात्मकता और अशांति लाते हैं। शिकार जीवों की हत्या का साधन है, जो आत्मा की शुद्धि के विपरीत है।

आजकल सरकार द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार के प्रवृत्ति पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया गया है। जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत का पालन करना अनिवार्य है, इसलिए शिकार करना एक गंभीर व्यसन माना गया है। अतः आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुर्गण से मुक्त है।

आजकल सौंदर्य प्रसाधनों, जिनका उपयोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है इस कारण से भी अपने शौक की पूर्ति एव सौन्दर्य के लिए अनेक मूक पशुओं का वध हो रहा है। यह सामूहिक शिकार है। पहले एक व्यक्ति किसी एक पशु का वध करता था, किन्तु आज कत्लखानों के माध्यम से सामूहिक शिकार हो रहा है। जो व्यक्ति पशुवध से निर्मित वस्तुओं के उपयोग मे संलग्न हैं, वे भी निःसन्देह शिकारी वत् ही हैं। जैसे- चमड़े की वस्तुओं का प्रयोग, चर्बी युक्त क्रीम, रक्त मिश्रित नख पॉलिस व लिपिस्टिक का प्रयोग, रेशम की साड़ी आदि का प्रयोग, हाथी दांत के आभूषण, सेन्ट इत्यादि । इस कारण से अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है। सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण और परीक्षण में हिंसा के क्रूरतम तरीके अपनाए जाते हैं, क्योंकि इनका उत्पादन उपभोक्ताओं के लिए ही होता है और यदि हम उनका बन्द उपयोग करदे तो हिंसा एवं क्रूरता से अपने को बचा सकते हैं।

7. चोरी

वस्तु के मालिक की अनुमति के बिना किसी की पड़ी हुई, भूली हुई, रखी हुई, दी हुई या छिपकर के वस्तु को ग्रहण कर लेना चोरी है। अपनी वस्तु का ही सदुपयोग करें। दूसरे की वस्तु की आवश्यकता यदि है तो मांग करके लें, चोरी से नहीं चोरी से व्यक्ति के मन में लालच और असंतोष उत्पन्न होता है, जो उसे अधर्म की ओर ले जाता है ।

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों में से एक ‘अस्तेय’ है, जिसका अर्थ है चोरी न करना । अस्तेय का पालन जैन धर्म के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है, क्योंकि यह नैतिकता, ईमानदारी और संयम का प्रतीक है। अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है न चुराना। जैन धर्म में इसे केवल भौतिक संपत्ति की चोरी से नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार की अनुचित प्राप्ति से दूर रहने के रूप में देखा जाता है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति न केवल चोरी से बचे, बल्कि उसे किसी भी प्रकार से दूसरों की संपत्ति या अधिकारों का हनन नहीं करना चाहिए।

अस्तेय’ व्यक्ति को ईमानदारी और सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। जैन धर्म में, नैतिकता केवल बाहरी आचरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक शुद्धता से भी संबंधित है । अस्तेय का पालन समाज में सामंजस्य और शांति बनाए रखने में मदद करता है। जब लोग दूसरों की संपत्ति या अधिकारों का सम्मान करते हैं, तो समाज में संघर्ष और अशांति कम होती है ।

जैन धर्म में अस्तेय का पालन आत्मा की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। चोरी,छल या धोखे से प्राप्त धन और संसाधन आत्मा को दूषित करते हैं और मोक्ष की राह में बाधा उत्पन्न करते हैं। इसलिए, जैन धर्म में अस्तेय को आत्मशुद्धि का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया है ।

जैन धर्म में अस्तेय का पालन न केवल धार्मिक कर्तव्य है, बल्कि यह एक नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी है। यह सिद्धांत व्यक्ति को जीवन में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और संयम का महत्व सिखाता है। अस्तेय का पालन करके व्यक्ति न केवल अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र बना सकता है, बल्कि समाज में भी शांति और सामंजस्य स्थापित कर सकता है। जैन धर्म के अनुसार, अस्तेय का पालन मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक है, क्योंकि यह आत्मा की शुद्धि में सहायक होता है।

व्यसन और उनका प्रभाव:

जैन धर्म में इन सात व्यसनों का त्याग अनिवार्य माना गया है, क्योंकि ये व्यक्ति के आत्मिक उत्थान में बाधा उत्पन्न करते हैं। इन सप्त व्यसनों का त्याग करने वाला श्रावक ही आहारादि दान देने के योग्य है। सप्त-व्यसनी नहीं। इन व्यसनों से मुक्त रहकर ही व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकता है। जैन धर्म हमें सिखाता है कि इन व्यसनों का त्याग करके ही हम आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

जैन धर्म एक प्राचीन और शाश्वत धर्म है जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है। जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति है। इसके लिए जैन धर्म के अनुयायी विभिन्न नैतिक आचरणों का पालन करते हैं, जिनमें व्यसनों से दूर रहना प्रमुख है।

व्यसन किसी भी प्रकार की बुरी आदत या नशा होता है जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है। इनमें धूम्रपान, शराब, मादक पदार्थों का सेवन, जुआ खेलना आदि शामिल हैं। ये व्यसन व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति को कम करते हैं और उसे नैतिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाते हैं।

जैन धर्म में व्यसनों की निंदा

जैन धर्म में व्यसनों को गंभीर पाप माना गया है। जैन मुनियों और अनुयायियों के लिए व्यसनों का त्याग आवश्यक है, क्योंकि ये आत्मा की शुद्धि में बाधक होते हैं। जैन धर्म के अनुसार, किसी भी प्रकार का व्यसन अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन है। उदाहरण के लिए, शराब पीना या मादक पदार्थों का सेवन व्यक्ति को हिंसक बना सकता है और उसके विचारों को दूषित कर सकता है।

अहिंसा और व्यसन

जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अहिंसा है, जो केवल शारीरिक हिंसा को ही नहीं, बल्कि मानसिक और वाणी के माध्यम से की जाने वाली हिंसा को भी रोकता है। व्यसनों में लिप्त व्यक्ति अक्सर अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण खो देता है, जिससे वह दूसरों के प्रति हिंसक या असंवेदनशील हो सकता है। इस प्रकार, व्यसन अहिंसा के सिद्धांत का सीधा उल्लंघन करते हैं।

आत्मशुद्धि और व्यसनमुक्ति

जैन धर्म में आत्मशुद्धि के लिए व्यसनों से मुक्ति अनिवार्य मानी गई है। आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने शरीर और मन को पवित्र और स्वस्थ रखना चाहिए । व्यसनों से दूर रहकर ही व्यक्ति अपने मन और आत्मा को शुद्ध कर सकता है, जिससे वह मोक्ष की ओर अग्रसर हो सके।

निष्कर्ष

व्यसनों से मुक्त रहना जैन धर्म के पालन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करते हुए व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकता है। व्यसनों से दूर रहकर ही हम आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। इस प्रकार, जैन धर्म हमें सिखाता है कि एक सच्चे जैन अनुयायी के लिए व्यसनों का त्याग अनिवार्य है, जो उसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ बनाता है।

एम.पी. जैन
सेवा निवृत, निदेशक, सांख्यिकी 64 सूर्यनगर, तारों की कूंट, टोंक रोड,
जयपुर
94140 57269

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