“आत्मनो मोक्षार्थम् जगद्विताय च।”
यह ध्येय वाक्य मानव जीवन के एक साथ दो उद्देश्य निर्धारित करता है। पहला अपना मोक्ष तथा दूसरा संसार के कल्याण के लिए कार्य करना।
जिस जैन धर्म की पहचान न केवल भारत में, अपितु सम्पूर्ण विश्व में भारत को अभिनव पहचान दिलवाई “पंचमहावृत” आधारित वैचारिक अधिष्ठान के बल पर वो है जैन धर्म। आज जैन धर्म का अनुसरण करने के लिए समूची मानवशक्ति उद्धत दिखाई देती है।
जैन धर्मावलंबियों ने अपने परिश्रम की पराकाष्ठा व पुरुषार्थ के बल पर न केवल अपन नाम किया अपितु जैन धर्म का सम्मान बढ़ाया। शरहदो से बहार आज सम्पूर्ण मानव शक्ति जैन चर्या की ओर चल पड़ी है। टीवी चैनलों पर सबसे ज्यादा जैन धर्म के गुरुभगवन्तो के प्रवचन समस्त धर्मावलंबियों के द्वारा सुने जाते है।
आखिर ये अप्रत्याशित परिवर्तन क्यो आरहा है? इसके मूल में हमारे धर्म का वैचारिक अधिष्ठान का आध्यात्मिक वैज्ञानिक होना।
कालसुसंगत सुपरिभाषित पंच महावृत जिन्हें हमारे तीर्थंकरों ने जिया ततपश्चात इन्हें कालजयी बनाया हमारे परिव्राजक गुरुभगवन्तो ने। जो आज धर्म के प्रकाश को जन जन तक पहुचाने का सद्कार्य कर रहे है।
आज समूची दुनिया जब कलियुगी संताप से पीड़ित है उसमें एक मात्र आशा की किरण और विश्वास बहाल कर सकता है तो वो है जैन धर्म। जिस धर्म में प्रत्येक बात को ज्ञान के रूप में रखा है, उसे पहले धर्म और व्यावहार की कसौटी पर कसकर परखा और फिर उसे अनुयायियों ने आस्वादन के लिए रखा।
आज जब विश्व में अनाचार, निराशा, उद्विग्नता, मनोरोगिता और पथभृष्टता की आंधी आयी हुई है। जिधर देखो उधर रक्त वर्षा,मानसिक व शारीरिक रुग्णता , ईर्ष्या, द्वेष और रागपूर्ण दृष्टि की भयावहता हो ऐसे में यदि मानवता को राह दिखा सकता है तो वो है जैन धर्म का वैचारिक अधिष्ठान सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का समूह ही है जो जीवन को “सदिश दिशा” दे सकता है।
तेजी से बदलते वातावरण के परिदृश्य में आज पांचों महावृतों का स्खलन मानव जीवन में तेजी से देखा जा रहा।
मान, बड़ाई ,पद, प्रतिष्ठा, तुलनामय जीवन और धन की राजसिक अभीप्सा की वजह से आज समाज में भी वैचारिक अधिष्ठान में ढीलापन देखा जारहा है।
जीवन से वचनबद्धता खत्म हो रही है। धर्म के प्रति सतही अनुराग तो है लेकिन वो व्यावहारिक जीवन में दिखाई नही देता है। धर्म की गहराई के नाम पर छिछलापन है। धर्म यदि कर्म में दिखे तो धर्म है अन्यथा उसे धर्म नही दिखावा ही कहा जाएगा। बुद्धि कौशल का अपना महत्त्व है, पर वो तभी प्रभावी हो पाता है, जब वह कर्मरूप में परिणत हो सके। ज्ञान की सार्थकता तभी है जब उसकी कर्म में परिणति हो।
सत्येन रक्ष्यते धर्मो।
सत्य से धर्म की रक्षा होती है।
अंतःकरण और इंद्रियों के द्वारा जैसा निश्चयकिया हो वैसे का वैसा ही प्रिय शब्दो में कहने का नाम है सत्य भाषा
सत्य का अभिप्राय है जो आंखों से दिखाई दे अर्थात तथ्यों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना। लेकिन आज हम सत्य से दूर भाग रहे है। जिसकी वजह से कलह और दुखो की बाढ़ आरही है।
“अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:“
जिसका अर्थ अहिंसा ही परम धर्म है पर धर्म की रक्षा के लिए कि गयी धर्म हिंसा उससे भी बड़ा धर्म है।
जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण वैचारिक अधिष्ठान का आधार है अहिंसा। हिंसा किसी भी रूप में है तो वो त्याज्य है चाहे मानसिक, वैचारिक कायिक और कर्म में। लेकिन आज हम देखते है समाज की शाखा हो या महासभा किसी की भी मीटिंग बिना वाचिक हिंसा के नही होती है। वैचारिक मतभेद हो सकता है लेकिन वो मतभेद ध्यान रहे हिंसा का रूप नही ले।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
(ईशोपनिषद्, मन्त्र 1)
समस्त परिवर्तनशील जगत में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से आच्छादित या व्याप्त है। हमें त्याग के साथ अपना पोषण करना चाहिए और किसी के भी धन का लोभ न करें।
परिग्रह का जितना सुंदर और श्रेष्ठ अवतरण जैन धर्मावलंबियों में दिखाई देता रहा है वो हम सबके लिए अनुकरणीय है। उपभोग के अतिरिक्त धन को देवालय, धर्मशाला, समाज सेवा में नियोजन करने की परम्परा जैन धर्म में देखी जाती है।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥ सत्य और अहिंसा के बाद तीसरा यम है अस्तेय, अर्थात चोरी नहीं करना।
सम्पूर्ण धर्म गुरुओं के प्रवचनों का आधार ही जैन धर्म का वैचारिक अधिष्ठान पँचमहावृत ही रहता है।
हमारे जीवन में इनकी उपस्थिति आचरण में चाहिए ऐसा प्रयास हमारा हो। संकल्प के साथ हो। प्रतिबद्धता के साथ हो। कलियुगी दुष्प्रभाव से बचाने में इन महावृतों की प्रासंगिकता ओर बढ़ जाती है। जब स्वरार्थपरता, आत्मप्रवंचना, कर्तव्यविमुखता, पथभृष्टता चरम पर है ऐसे में ये आयाम ही है जो हमें इन बुराइयों से बचा सकता है।
जंगल जंगल ढूंढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी,
कितना मुश्किल है तय करना खुद की खुद की दूरी।।
जीवन में दुखो से नही डरना। हम भविष्यगत दुखो से डरकर ही पथभृष्टता की ओर अग्रसर होते है। लेकिन हमे उन त्यागी तपस्वियों के जीवन को भी नही भूलना चाहिए जिन्होंने ऐश्वर्य की परवाह किये सत्य का मार्ग नहीं त्यागा।
जीते जी मीरा बाई को किसी ने नही समझा लेकिन जब मीरा ने दुनिया को त्यागा तो सदियों से उनका स्तुतिगान पूरा जगत कर रहा है।
राजा रामचन्द्र जी और सीता के जीवन में आयी
विपत्तियों से हम सब परिचित है। लेकिन उन्होंने वचन बद्धता का मार्ग नही छोड़ा। क्योकि वो एक तत्व के अनुयायी रहे कुल की रीत व शास्त्रों की विधि के। और फिर राजा से भगवान बने।
तीर्थंक महावीर के जीवन में आये संकट भी उन्हें तप साधना से डिगा नही पाए और तप साधना संयम के मार्ग पर चलकर ही भगवान बने।
निष्कर्षत: ये ही की जैन धर्म का वैचारिक अधिष्ठान आज हमारी जीवनचर्या से तिरोहित हो रहा है जिसकी वजह से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मत्सर जैसे षड रिपु (शत्रु) हमारे जीवन में स्थायित्व बनाते जारहे है। भटकती युवा पीढ़ी को रचनात्मक और समाजोपयोगी बना सकता है ये पावन पवित्र “गुणसमूह” अधिष्ठान। बस उनके समक्ष हमारा स्वयं का आचरण इनसे परिबद्ध हो।
पँचमहावृतों की प्रासंगिकता आज इस युग में बढ़ जाती है जब चारो ओर घोर काले बादल हमारे जीवन में आच्छादित है।
सादर।
पवन कुमार जैन
जयपुर