श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

ज्ञानवर्णीय कर्म का उदय और योग्यता ।

ज्ञानवर्णीय कर्म क्यो आया ?
इसके आने के छह कारण हैं:-

१.प्रदोष:- ज्ञानी की प्रशंसा नहीं सुहाना ,यदि कोई भी व्यक्ति ज्ञान वृद्धि की बाते करता है तो हमे उसकी ज्ञान की बाते अच्छी नहीं लगती है ।

२.निन्हव:- अपने ज्ञान को किसी को नहीं बताना कि मैंने ये ज्ञान कहा से व कैसे सीखा है यानी ज्ञान को छिपाना ।

३.मात्सर्य:- अपने ज्ञान का घमंड करना ।

४.अंतराय:- कोई भी व्यक्ति यदि मंदिर में भक्ति कर रहा है,भगवान के दर्शन कर रहा है,स्वाध्याय कर रहा है,भक्ताम्बर पढ़ रहा हैं तो उसे मना करना या विघ्न करना ।

५.आसादन:- कोई व्यक्ति किसी अन्य को ज्ञान की बाते बताये तो उसे मना करना ।

६.उपघात:- प्रशंसा लायक़ ज्ञान की प्रशंसा न करना यानी उत्साहवर्धन न करना ।

ज्ञान की विराधना से ज्ञानवर्णीय कर्म का बंध होता है ।
और ज्ञान की आराधना से कर्म का क्षयोपशम होता है ।

गलती से भी हमारे द्वारा ज्ञानी की निंदा न हो,जिनवाणी की निंदा न हो,तत्व ज्ञान की विराधना न हो ,प्राप्त ज्ञान का घमंड न हो,प्राप्त ज्ञान को छुपाने का भाव न हो ,जहाँ से हमने सीखा है उसे छिपाने का भाव न आवे ।

सब सीखे ,सब जाने ,सब समझे ऐसा भाव हृदय में आयेगा तो ज्ञानवर्णीय कर्म अपने आप छट जाएगा ।

जब ज्ञान का आवरण ऊपर से हटता है और ज्ञान बढ़ता है तो सम्यक् ज्ञान हो जाता हैं ।
लौकिक ज्ञान ,यादास्त भी बढ़ानी है तो तत्व ज्ञान की तरफ़ रुचि बढ़ानी पड़ेगी ,इससे सांसारिक कार्य भी अपने आप होते चले जाते हैं ।

सम्यक् ज्ञान के लिए ज्ञान की अधिकता नहीं चाहिए ।जितना ज्ञान है उसकी निर्मलता चाहिये ।
प्राप्त ज्ञान पर्याप्त है ।

त्रिभुवन जैन
कोटा

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