श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

ज्ञान के साथ विवेक

एक गुरुजी के दो शिष्य थे । एक का नाम आज्ञानंद था और दूसरे का नाम बोधानंद । दोनों में बड़ी मित्रता थी । वह साथ-साथ रहते थे । कहीं जाना होता तो दोनों साथ आते-जाते थे । दोनों में गुरुजी के प्रति बड़ी श्रद्धा और विश्वास था । गुरुजी के कथन को वे सदा सत्य मानते थे । किन्तु दोनों में एक अन्तर था । आज्ञानंद गुरुजी के कथन को शब्दश: मानता, उसमें अपने विवेक का प्रयोग नहीं करता था । किन्तु बोधानंद गुरुजी के कथन के मर्म तक पहुँचता और तदनुसार आचरण करता था ।

किसी प्रसंग में गुरुजी ने उपदेश दिया था कि, “सारे संसार में परमेश्वर का वास है, चाहे फिर वह चिंटी जैसा क्षुद्र हो अथवा हाथी जैसा विशाल हो । प्रत्येक जीव में उसी का निवास है।”

एक बार दोनों शिष्य शहर में गये । वहाँ एक तंग (सकड़ी) गली से गुजरते हुए हाथी को उन्होंने देखा । हाथी सामने से उनकी ओर चला आ रहा था । हाथी पर महावत बैठा हुआ था फिर भी हाथी की मस्ती में कोई कमी नहीं थी । हाथी जब दोनों शिष्यों के पास आया तब बोधानंद ने कहा, “मित्र ! एक तरफ हो जाओ, हाथी अपनी ओर ही आ रहा है ।” तब आज्ञानंद ने कहा, “हाथी है तो क्या हुआ उसमें भी परमेश्वर का वास है । हमारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा ।” बोधानंद तो वहाँ से जरा एक तरफ हट गया । किन्तु आज्ञानंद वहीं खड़ा रहा। तब महावत ने चिल्लाकर कहा, “एक तरफ हट जाओ ।” परन्तु आज्ञानंद नहीं हटा । उसे रास्ते में खड़ा देख हाथी ने सूँड से उठाकर उसे एक तरफ फैंक दिया और आज्ञानंद को बहुत चोट आई ।

आश्रम में आकर आज्ञानंद ने गुरुजी को सारा वृतान्त सुनाया और पूछा, “मैं भी नारायण, हाथी भी नारायण । फिर नारायण ने नारायण को क्यों फेंक दिया ?”

इस पर गुरुजी ने कहा, “यह ठीक है कि तुम नारायण हो और हाथी भी नारायण है, किन्तु उस पर बैठे हुए महावत रूपी नारायण की बात तुमने क्यों नहीं सुनी ? अगर उस नारायण की बात मानते तो यह दशा नहीं होती ।”

“सारे संसार में परमेश्वर का वास है, चाहे फिर वह चिंटी जैसा क्षुद्र हो अथवा हाथी जैसा विशाल हो । प्रत्येक जीव में उसी का निवास है ।” यह एक मात्र लोक में से लिया गया उदाहरण मात्र है । जैन दर्शन के अनुसार सभी जीव स्वभाव से परमात्मा हैं और स्वभाव का आश्रय लेकर पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं ।

इस उदाहरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि, “हमें भी अपने जीवन के कल्याण हेतु शब्दज्ञान को नहीं, बल्कि अनुभव, विवेक और ज्ञानी धर्मात्माओं के अनुभवज्ञान को समझ में लेना होगा, तभी कल्याण होगा । आचार्यों ने कहा है कि, “आगम का सेवन (अभ्यास), युक्ति का अवलंबन, परम्परा गुरु का उपदेश और स्वानुभव । ये चार सूत्र होने पर ही आत्मानुभव, रत्नत्रय, मोक्षमार्ग आरम्भ होता है ।”

हम शास्त्र तो पढ़ लें, पर उसका भाव न समझें तो सब व्यर्थ है । युक्ति से बात तो समझ लें, पर प्रयोजन भूल जायें या विपरीत अर्थ निकाल लें तो भी सब व्यर्थ है ।

इसी प्रकार गुरु का उपदेश तो सुनें पर तदनुसार अपने श्रद्धा-ज्ञान-आचरण को न बनायें, मात्र तोता की भाँति उसे शब्दों में सीख लें, तो सब व्यर्थ है और कदाचित किसी अपेक्षा ये तीनों बातें पूरी भी हो जायें, पर स्वयं अनुभव न करें, स्वयं उससे प्रभावित न हों, लाभान्वित न हों, तो सब व्यर्थ है । अतः कहा है –

सबसे पहले तत्त्वज्ञान कर, स्व-पर भेद-विज्ञान करो ।
निजानन्द का अनुभव करके, भोगों में सुखबुद्धि तजो ।

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