पिछले अनेक वर्षों से हम सुनते आ रहे हैं कि समाज ने बहुत उन्नति की है। जब भी कोई सामाजिक आयोजन होता है, हमारे नेता अपने व्याख्यान में एक ही राग अलापते नजर आते हैं कि समाज ने चहुंमुखी उन्नति की है। सामाजिक संगठन के पदाधिकारी तो इस उन्नति की उपलब्धि से इतने आत्ममुग्ध हैं कि वे इसे अपनी नेतृत्व कुशलता के साथ जोड़ कर देखने लगे हैं। मोहल्ले का नेता भी इस बात को कह कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कि उन्नति – खुशहाली हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है पर हम ही उस खुशहाली का अनुभव नहीं कर रहे।
इस प्रकार के कथन की, यदि समीक्षा करें तो बड़ा ही त्रासद कथानक तैयार होता है। इन लोगों का कहना है कि खुशहाली हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है, किन्ही कारणों से हम दरवाजा नहीं खोल रहे। इसलिए खुशहाली दरवाजे पर उसी तरह रुकी पड़ी है जैसे वंदे भारत एक्सप्रेस को कभी-कभी किसी स्टेशन के आउटर पर रोक दिया जाता है। उन्नति औपचारिकता निभाने आई होती तो एक संदेश छोड़कर लौट जाती । खुशहाली तो समाज के बाशिंदों को सुख चैन की जिंदगी देने आई है जिसके लिए हमारे नेता ताउम्र प्रयास करते रहे। सामाजिक संगठन बनने के बाद हम खुशहाली की बाट जो रहे थे, अब आ गई है तो हम दरवाजे पर सांकल चढ़ाए बैठे हैं। प्रश्न यह है कि हम सांकल खोलते क्यों नहीं? कई बार ऐसा होता है कि हम बिन बुलाए मेहमान के लिए कुंडी नहीं खोलते । सवाल यह है कि हमने खुशहाली को बुलाया था या नहीं, क्या वह बिना बुलाए चली आई |
यदि खुशहाली बिना बुलाए आई है तो भी हमें कुंडी खोलनी होगी। भारतीय संस्कृति का तकाजा है कि हम बिन – बुलाए मेहमान का स्वागत करें। बिन बुलाए मेहमान का स्वागत करने वाले हम भारतीय बेहद शालीन होते हैं, मेहमाननवाजी में हमारा कोई सानी नहीं। बिना बुलाए कोई आ जाए तो हमें परेशानी नहीं होती। सवाल यह भी है कि हम खुशहाली का स्वागत क्यों नहीं कर पा रहे हैं। खुशहाली के थैले में हमारे लिए मिठाईयां होंगी, फल होंगे, रोजगार होंगे, शांति होगी, अर्थात वे सभी सुविधाएं होंगी जो आम आदमी को खुशहाल बनाती है।
यह भी हो सकता है की दरवाजा खोलने का प्रयास तो हो रहा हो, मगर दरवाजा जाम होने के कारण खुलता ही ना हो। वैसे भी जब लंबे समय तक कोई दरवाजा बंद रहता है तो उसे खोलना आसान नहीं होता। संगठन के 50 साल बाद तक हमने दरवाजे को बंद रखा क्योंकि खुशहाली ने दस्तक ही नहीं दी, अब दी है तो दरवाजा खुल नहीं रहा। दरअसल, असुरक्षा के वशीभूत हम समाजजन दरवाजा खुला रखना भूल चुके हैं। हम डर के मारे बंद कमरे में रहने के आदी हो चुके हैं। यदि ऐसा है तो खुशहाली भी कुछ नहीं कर पाएगी, हम जिंदगी भर नर्क में जिएंगे।
संभवतया हमें पता चल गया है कि खुशहाली के साथ बाहर कौन-कौन है, खुशहाली के साथ बहरूपिया नेता खड़ा है जिसकी शक्ल देखना भी हमें गवारा नहीं है। खुशहाली के साथ समाज का दलाल खड़ा है जो सामाजिक संगठन पर काबिज करवाने का ठेका लेता है। खुशहाली के साथ वह आमनावादी खड़ा है जो हमें बेचकर एक समुदाय विशेष से लाभान्वित होने की जुगाड़ में लगा है और जो खुशहाली के बहाने हमारे घर में जबरन घुसना चाहते हैं।
हमें ऐसी खुशहाली चाहिए ही नहीं जो उन्नति की कीमत पर समाज को बर्बाद कर दे और हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। समाज के लोग भ्रम में पड़े रहे इसलिए चालबाजों ने उन्नति- खुशहाली के अलाप को सम्वेद स्वर में गाना शुरू कर दिया है। समाज की सैकड़ों माताएं जो वैधव्य की जिंदगी को जी रही हैं, सैकड़ों बहनें जो आज तलाक के दर्द से तड़प रहीं हैं, सैकड़ों की तादाद में बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा के लिए फीस के इंतजार में बैठे हैं, समाज के सैकड़ों ऐसे नवयुवा जो अपने रोजगार को इसलिए नहीं बढ़ा पा रहे क्योंकि उनके पास व्यापार को बढ़ाने की माकूल व्यवस्था नहीं है। गांव में बहुत सारे समाजबंधु अपनी छोटी सी दुकान से अपने परिजनों का भरण पोषण करने पर मजबूर है। इन सब के यहां खुशहाली लाने को किसने रोका है, इन सभी के दरवाजे तो हमेशा खुले रहते हैं। इसलिए यह तय है कि बाहर कोई और खड़ा है, खुशहाली हरगिज नहीं है, हम दरवाजा हरगिज़ नहीं खोलेंगे ।
खुशहाली उर्फ उन्नति आज भी मुहावरा है।
अशोक कुमार जैन
2-बी, रामद्वारा कॉलोनी, महावीर नगर, जयपुर
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