श्री पल्लीवाल जैन डिजिटल पत्रिका

अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा

(पल्लीवाल, जैसवाल, सैलवाल सम्बंधित जैन समाज)

धर्म उद्देश्य: सांसारिक निवृत्ति या आत्म-प्रवृत्ति

शिष्य ने प्रश्न किया – आत्मा का हित किसमें है? उत्तर मिला- आत्मा का हित सुख में है; फिर शिष्य ने प्रश्न किया- सुख कहाँ है? तब गुरु ने कहा – सुख निराकुल अवस्था में है। निराकुल अवस्था प्राप्त होने पर हम आत्मा की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं। इस निराकुल अवस्था को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम पहले उन तत्वों की पहचान करें जो हमें आकुलित करते हैं, फिर उनको अपने से अलग करने का प्रयत्न करें। इसी बात को हम आगे विस्तार से समझने का प्रयत्न करेंगे।
मनुष्य का सारा पुरुषार्थ संसार, शरीर और इन्द्रियों के भोगों की पूर्ति में लगा रहता है। लेकिन इनकी पूर्ति कभी नहीं हो पाती है। मनुष्य इनकी पूर्ति करने लिए जितना प्रयत्न करता है वे उतनी ही और अधिक प्रबल हो उठती हैं, ठीक वैसे ही जैसे अग्नि को शांत करने के लिए यदि घी डाला जाय तो अग्नि शांत होने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है। वस्तुतः राग, द्वेष और मोह के कारण मनुष्य आकुलित होता रहता हैं। इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा, चिंतन, निदान (भविष्य की चिंता ) आदि आर्त परिणामों और क्रोध आदि रौद्र परिणामों के कारण स्वयं को आकुलित करता रहता है।
अनेक लोग अपना घर, परिवार, व्यापार आदि छोड़कर साधु हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि वे अब संसार से निवृत्त हो चुके हैं, लेकिन वस्तुत: ऐसा नहीं हो पाता है। उनके आर्त रौद्र परिणाम ज्यों के त्यों बने रहते हैं। कई बार तो लगता है कि उनमें अनेक नई इच्छायें पैदा हो गई हैं। वे अब चाहने लगते हैं कि लोग उन्हें पूजें, उनका गुणगान हो, उनकी तपस्या और विद्वत्ता की प्रशंसा करें, उनका प्रचार हो। यदि कोई साधु संपन्न परिवार का रहा होता है तो उसके मन में इस बात का विचार भी दिमाग में बना रहता है कि वह अमीर परिवार से है। कभी उसे अपने योग्यता का घमंड हो जाता है। यदि वे प्रवचन कर रहे हैं तो उनकी इच्छा रहती है कि उनकी सभा में अधिक से अधिक लोग आयें, पांडाल आकर्षक और बड़ा हो। यदि कोई उनकी बात न माने तो उन्हें क्रोध आने लगता है।
कोई व्यक्ति घर परिवार छोड़कर अकेला जंगल में जाकर बैठ जाय तब भी उसके मस्तिष्क में पूरे संसार के विकल्प आते रहते हैं। घर में रहते हुए उसने जो भोग भोगे थे उनका स्मरण करके सुखी – दुःखी होता रहता है। अकेले रहने पर भी पूरे संसार का बोझ सर पर लिए घूमता रहता है। मन बहुत चंचल होता है, घर, परिवार, व्यापार आदि छोड़कर अकेले जंगल में रहने पर भी यह मन चलायमान बना रहता है। एक पल देश की सोचेगा, अगले पल विदेश की। ये सभी क्रियायें उसे आकुलित करती रहती हैं। घर परिवार और संसार छोड़ना अलग बात है, उसके मर्म को समझना अलग बात है। संसार से निवृत्त होना तभी सार्थक है जब उक्त क्रियाओं से अपने को अलग कर पायें।
निरंतर आत्मा आत्मा की रट लगाने से भी आत्मा में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है और न ही भोगों की आसक्ति रातोंरात समाप्त हो सकती है। इन सबसे निवृत्त होने तथा आत्मा की ओर प्रवृत्त होने के लिए कठिन पुरुषार्थ और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। सबसे पहले अपने जीवन को संयमित करना होगा, अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करना होगा, प्राणी मात्र पर दया का भाव लाना होगा, अहिंसा और सत्य को अपनाना होगा तथा क्रोध, मान, माया, लोभ से बचना होगा। धीरे- धीरे इस प्रवृत्ति को अधिक, और अधिक बलवती करते जाने पर आकुलता में भी कमी होती चली जायेगी। जितने अंशों में हम बाहर की क्रियाओं से अपने को अलग करते जायेंगे, उतने अंशों में हम निराकुल अवस्था को प्राप्त करते जायेंगे।
जब व्यक्ति संसार से पूरी तरह निवृत्त हो जाता है तो उसकी प्रवृत्ति स्वतः ही अन्दर / आत्मा की ओर होने लगती है। धर्म हमें सांसारिक प्रवृत्तियों से अपने को हटाने और आत्मा की ओर अपने को प्रवृत्त करने का मार्ग सुझाता है। धर्म का मूल उद्देश्य भी आत्मा में रमण करना / आत्मा में प्रवृत्त होना ही है, लेकिन यह केवल स्वयं को सांसारिक प्रवृत्तियों से दूर करने पर ही संभव है जोकि एक लम्बी और सतत प्रक्रिया है।

  डॉ. अनिल कुमार जैन
बापू नगर, जयपुर

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