एक दिन एक व्यक्ति ने मुनि महाराज से पूछा कि वास्तव में धर्म क्या होता है तो मुनि महाराज ने कहा कि परिणामो की निर्मलता ही धर्म है। पूजा पाठ करना तो धर्म का बाहरी रूप है। एक धार्मिक व्यक्ति वही है जिसके परिणाम में निर्मलता हो, जिसकी कसाय मंद हो, जिसका चित शांत हो, और जिसने संयम को धारण किया, हो वही वास्तविक धर्मात्मा है और ऐसा व्यक्ति राग और द्वेष से दूर होता है। ऐसे व्यक्ति के अंदर काम क्रोध लोभ मोह अहंकार नहीं होता है वह सच्चे देव शास्त्र गुरु का उपासक होता है और सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का धारी होता है और जो व्यक्ति सच्चा धर्मी होता है वह पूजा पाठ भी करता है त्याग तपस्या भी करता है दया धर्म भी करता है और दान भी करता है यह व्यक्ति समय-समय पर प्रसंग के अनुसार जहां जिसकी आवश्यकता हो वह कार्य करता है वह व्यक्ति अपनी शक्ति अनुसार पूजा, पाठ, त्याग, तपस्या, दया, धर्म, दान करता रहता है ऐसा व्यक्ति जो भी काम करें उसे धर्म बनाकर करता है गृहस्थी में रहकर गृहस्थी के धर्म जब व्यापार करता है तो व्यापार का धर्म व्यवहार में व्यवहारगत धर्म और जीवन में संयम के धर्म को अंगीकार करता है ऐसा व्यक्ति अपने ज्ञान और व्यवहार से लोगों को प्रभावित करता है वह जहां भी रहता है लोग उसको पसंद करते हैं और उसका औरा बहुत सकारात्मक होता है वह जहां रहता है सकारात्मकता फैलाता है वह संसार में रहकर भी संसार से अलिप्त रहता है और धीरे-धीरे वैराग्य की तरफ अग्रेषित होता है।
फिर मुनि श्री ने बताया कि यह एक सच्चे धर्मी की स्थिति होती है लेकिन यह एक उत्कृष्ट अवस्था है यहां तक पहुंचाने के लिए हमें बहुत साधना करने की आवश्यकता होती है इसके लिए हमें शुरुआत में धर्म की क्रियो का भी आलंबन लेना होता है जैसे देव दर्शन पूजा पाठ स्वाध्याय त्याग तपस्या दान धर्म आदि पूजा पाठ त्याग तपस्या सब धर्म की क्रियाएं हैं लेकिन इन क्रियो को करते समय अपने मूल उद्देश्य को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हम यह सब कर क्यों रहे हैं इन सब को करने का एक ही उद्देश्य होना चाहिए और वह है परिणाम की निर्मलता अगर हम धर्म की क्रियाएं तो कर रहे हैं पर हमारे परिणाम में निर्मलता नहीं आ रही है तो फिर हमारा धर्म करने का कोई मतलब नहीं है हम सिर्फ धार्मिक क्रियाएं करके लोक में तो धार्मिक कहला सकते हैं लोक व्यवहार में तो लोग हमें एक अच्छे धर्मी या धर्मात्मा के रूप में जानने लग जाते हैं लेकिन जब तक परिणाम में निर्मलता नहीं आती है हमारी कसाय मंद नहीं होती है तो हमारा वास्तव में एक धर्मी कहलाने का कोई हक नहीं है अगर हम पूजा पाठ करते हैं त्याग तपस्या करते हैं धर्म आयतनों में जाते हैं तो धीरे-धीरे अपने कसायो को मंद करने की कोशिश करनी चाहिए हम धार्मिक क्रियाएं करते समय उन क्रियाओं को पूर्ण आनंद के साथ करना चाहिए मन में प्रसन्नता के साथ उन क्रियाओं को करें और प्रभु परमात्मा में ऐसे लीन हो जाए की हमारे आसपास क्या चल रहा है लोग क्या कर रहे हैं यह सब हमको दिखाई देना बंद कर दें तो फिर इन क्रियो को करने का फायदा है और अगर हम ध्यान दूसरे की तरफ दे रहे हैं की वह व्यक्ति क्या कर रहा है हमारा सारा ध्यान दूसरों की गतिविधियों पर है हम दूसरों की गलतियां सुधारने में लगे हुए हैं तो फिर हम अपनी आत्मा का उद्धार कब करेंगे अक्सर मंदिरों में लोग अपनी पूजा पर कम ध्यान देते हैं और दूसरों की गलतियां निकालने पर ज्यादा ध्यान रखते हैं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कहते हैं कि दूसरों के घरों में बुहारी लगाने से अपना घर साफ नहीं होता है अपना घर तो तभी साफ होगा जब हम अपने घर में बुहारी लगाएंगे अपनी आत्मा का कल्याण करना है तो फिर अपने मन मंदिर को ही साफ करना होगा।
मुनि श्री कहते हैं की हर इंसान की धर्म की परिभाषा अलग-अलग होती है धर्म का सबसे सूक्ष्म रूप है अधर्म नहीं करना ही धर्म है सबसे पहले धर्म करो या ना करो लेकिन अधर्म करना छोड़ दो फिर धीरे-धीरे धर्म की दिशा में आगे बढ़ो जब घर परिवार के साथ हो तो अपने पारिवारिक जिम्मेदारियां को निभाना ही धर्म है व्यापार करो तो व्यापार के धर्म को निभाओ मुनि श्री कहते हैं की व्यापार ऐसा करो जो हिंसा से मुक्त हो और शोषण से मुक्त हो न्याय और नीति से युक्त हो वही सही व्यापार है इसी प्रकार समाज के बीच में जाओ तो अपने सामाजिक दायित्वों और कर्तव्यों का निर्वाह करो और जब मंदिर जाओ तो इन सब चीजों को मंदिर के बाहर छोड़कर मंदिर मैं प्रवेश करो और वहां हमारे और भगवान के बीच में और कुछ नहीं होना चाहिए।
अक्सर लोग पूजा पाठ करने को ही धर्म समझ लेते हैं मुनि श्री कहते हैं की पूजा पाठ करना भी धर्म है, लेकिन यह धर्म का बाहरी रूप है, वास्तव में धर्म कोई क्रिया नहीं है धर्म तो आपके चित की परिणीति है धर्म तो हमारे भावों का परिणाम है हां लेकिन धर्म की उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचने के लिए अपने परिणामों को शांत करने के लिए पूजा पाठ जप और स्वाध्याय का आलंबन लेना जरूरी है इसके लिए मंदिर जाना जरूरी है।
धन्यवाद,
महेंद्र कुमार जैन
अलवर